अपने इर्दगिर्द चारों ओर बुराई को फलते-फूलते देखकर और अच्छाई को हैरान-परेशान देखते हुए लोग बहुत घबरा जाते हैं। ऐसा लगने लगता है कि जब बुराई का ही बोलबाला होना है तो फिर अच्छा बनाने का कोई लाभ नहीं, बुरा बनाना ही ज्यादा लाभदायक है। परन्तु यह सोच सर्वथा गलत है। मनुष्य को बुराई से लड़कर उसे परास्त करने का साहस जुटाना चाहिए।
दूसरों की होड़ में बुराई के मार्ग को नहीं अपनाना चाहिए। यह मार्ग शार्टकट वाला होता है। यानी काम समय में बहुत कुछ पा लेना। बुराई का मार्ग दूर से बहुत लुभावना प्रतीत होता है। आरम्भ में उसमें आकर्षण दिखाई देता है। लगता है इस रास्ते में मौज-मस्ती है, ऐशो-आराम है, एक रुतबा है। कोयले की दलाली में जैसे हाथ काले हो जाते हैं उसी प्रकार कुछ दूर उस रास्ते पर चलने के पश्चात ज्ञात होता है कि वह व्यक्ति सिर से पैर तक दलदल में डूब गया है। वह कितने ही हाथ-पैर मार ले वहाँ से चाहकर भी बाहर नहीं निकल पाता है। फिर उसके दुष्ट साथी अपने रहस्य प्रकट हो जाने के डर से उसे निकलने भी तो नहीं देते।
बुराई हमें पल्लवित और पोषित होते हुए दिखाई अवश्य देती है। उसका कारण है कि उसका शोर बहुत होता है, उसकी चर्चा अधिक होती है। मुट्ठी भर बुरे लोग समाज की नजरों में आधिक खटकते हैं। उन्हें उखड फैकने के प्रयास समय-समय पर होते रहते हैं। बुराई चाहे सतयुग में हुई हो या त्रेतायुग में या द्वापरयुग में, सदा ही उसका अन्त हुआ है। इसीलिए मनीषी कहते हैं - 'बुरे का अन्त बुरा।'
अच्छाई का मार्ग लम्बा और काँटों भरा होता है। ईश्वर कदम-कदम पर परीक्षा लेता रहता है। वह भी सुपात्र की तलाश में रहता है। एक बार जब मनुष्य जीवन की परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो जाता है तब फिर मनुष्य को कभी पीछे मुड़कर देखने आवश्यकता नहीं रह जाती। उसे वह सब कुछ सहजता से प्राप्त हो जाता है, जिसकी उसे आवश्यकता होती है।
इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य की परीक्षा निश्चित है। अच्छाई की परीक्षा पहले होती है और फिर बाद में उसे आनन्द मिलता है, घर-परिवार और समाज का सहचर्य मिलता है। इसके विपरीत पहले सब्जबाग दिखाने वाली बुराई जब बाजी हार जाती है तब मनुष्य को तोड़कर रख देती है। उसे अपनों से और इस समाज से कटकर अन्धेरों में खो जाना पड़ता है। उस समय अकेलापन ही उसका एकमात्र साथी रह जाता है। उसके उदाहरण खोजने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे लोग हमें आपने आसपास ही मिल जाएँगे।
अच्छाई और बुराई की जंग हमेशा से चलती आई है। कभी किसी का पलड़ा भारी हो जाता है तो कभी किसी का। यह तो प्रकृति का नियम है, जो परिवर्तन करती रहती है। अच्छे यानी सज्जन लोग और बुरे यानी बुरे या दुष्ट लोग एक साथ समाज में रहते हैं, तभी सृष्टि का संतुलन बना रहता है। यदि सदा ही हर स्थान पर बुराई रहेगी तो सृष्टि में हाहाकार मच जाएगा। सब बुरा ही होगा। इसी तरह यदि सर्वत्र अच्छाई हो जाएगी तो भी बात नहीं बनेगी।
इस तरह मनुष्य बोर होने लगेंगे। उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगेगा। दुनिया का आकर्षण ही समाप्त हो जाएगा। हर मनुष्य को विविधता में ही आनन्द आता है। अच्छाई को सभी लोग प्यार और श्रद्धा से स्मरण करते हैं जबकि बुराई का नाम लेते ही उनके मुँह का जायका बिगड़ जाता है। उसे वे नफरत से याद करते हैं।
इस सत्य को सबको सदा ही स्मरण रखना चाहिए कि अन्ततः जीत अच्छाई की ही होती है, बुराई की कदापि नहीं। सच्चाई के मार्ग पर चलना सदा ही श्रेयस्कर होता है। इसलिए बुराई के लुभावने आकर्षणों के मकड़जाल को दूर से ही सलाम करके आगे बढ़ जाना चाहिए। अच्छाई के मार्ग पर आई बाधाओं को हँसते हुए पार करके मनुष्य को जीवन का वास्तविक सुख भोगना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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