तपस्वी, साधकों अथवा धर्मगुरुओं को स्त्रियों से दूर रहने के लिए शास्त्र आदेश देते हैं। उसी प्रकार स्त्री साधकों को भी पुरुषों से दूर रहने का निर्देश शास्त्र देते हैं। स्त्रियों के लिए अपने पति के अतिरिक्त किसी भी अन्य पुरुष का चरण स्पर्श करना वर्जित माना गया है। इसी प्रकार पुरुषों के लिए भी विधान है कि वे किसी महिला साधु का चरण स्पर्श न करे।
इसके पीछे जो तर्क मुझे समझ आता है, वह यह है कि समाज में किसी प्रकार का अनाचार और कदाचार न फैलने पाए। इस तरह यदि व्यभिचार फैलेगा तो सामाजिक व्यवस्था चरमरा जाएगी। इसका कारण है कि स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध आग और घी का माना जाता है। इसलिए उनका संयोग कष्टदायी होग। यही कारण है कि हमारे दूरदर्शी महान ऋषियों ने एक सुदृढ़ विवाह संस्था की परिकल्पना की। इससे सामाजिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलती है और समाज में किसी प्रकार के दुराचरण की कोई गुँजाइश ही नही रहती।
इस विषय पर मैं बहुत प्रसिद्ध दो उदाहरण आपके समक्ष रखना चाहती हूँ। महर्षि विश्वामित्र उच्चकोटि के परम तपस्वी थे। देवलोक की अप्रतिम सुन्दरी अप्सरा मेनका के जल में फंसकर पथभ्रष्ट हो गए। जब उन्हें होश आया, तब तक वे अपना तपोबल नष्ट कर चुके थे। बहुत वर्षों की कठोर तपस्या के पश्चात् उन्होंने पुनः अपना स्थान ऋषियों में बनाया।
दूसरे गुरु मछन्दरनाथ जी हैं जो अपनी तपस्या भूलकर गृहस्थी के चक्कर में पड़कर अपने गुरुपद से च्युत हो गए। यह उनका सौभाग्य था कि गुरु गोरखनाथ जी जैसा शिष्य उन्हें मिला था। गोरखनाथ जी उन्हें उस संसार से साधना के पथ पर वापिस लेकर गए।
इन दोनों उद्धरणों को लिखने का उद्देश्य यही है कि स्त्री और पुरुष दोनों दो ध्रुवों की भाँति हैं। विपरीत लिंगी होने का आकर्षण इन दोनों के मध्य रहता है। इसीलिए शास्त्र स्पष्ट निर्देश देते हैं कि पिता और पुत्री को अथवा भाई और बहन को भी एक कमरे में अकेले नहीं बैठना चाहिए। इस कथन का यह अर्थ कदापि नहीं है कि सभी पुरुष कुकर्मी या बलात्कारी होते हैं। इसका अर्थ यह लगाना चाहिए कि ऐसी परिस्थितियों से बचाना चाहिए, जिसमे कोई भी पक्ष अपना संयम खो बैठे।
नकारात्मक विचार रखने वाले किसी महानुभाव ने 'नारी नरक का द्वार है' कहकर अपनी नाकामयाबी को प्रकट किया है। नारी यदि नरक का द्वार है तो पुरुष को क्या कहा जाए?
यह कहना कि सारा दोष स्त्री का है उचित नहीं है। यदि नारी अपने हावभाव से पुरुष को रिझाती रहती है तो पुरुष भी कोई दूध का धुल हुआ नहीं है। वह भी स्त्री को अपने वश में करने के लिए तरह तरह के जाल बिछाता रहता है। कभी प्यार से और कभी बलपूर्वक उसे पाना चाहता है। उसे सब्जबाग दिखाता है। फिर अपना स्वार्थ निकल जाने पर दूध में पड़ी हुई मक्खी की तरह बाहर फैंक देता है।
मनीषी हमें समझाते हैं - 'मातृवत् परदारेषु' यानी दूसरे की या पराई स्त्री को माता के सामान मानो। यह कहकर शास्त्र ने पुरुषों के लिए मर्यादा की एक सीमारेखा खींची है। गुरु को पिता की श्रेणी में रखकर गुरु को शासित किया है। उसका दायित्व बनता है क़ि वह अपने पास आने वाले भक्तों या शिष्यों को अपनी सन्तान की तरह ही माने।
इस विवरण से हमें यही समझना चाहिए कि चाहे धर्मगुरु हो या साधु-सन्त, सबको अपनी-अपनी मर्यादा में ही रहना चाहिए। तभी समाज का सन्तुलन बना रहता है। स्त्रियों से भी अनुरोध है कि यदि वे किसी धार्मिक स्थान, किसी सभा या धारण किए हूए गुरु के पास कभी अकेले न जाएँ। अपने मित्रों, पारिवारिक सदस्यों या अपने पति के साथ ही जाएँ। इस प्रकार तथाकथित ढोंगी साधुओं, तान्त्रिकों, मान्त्रिकों के चंगुल से बचा जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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