मनुष्य के आसपास रहने वाले या जिनसे वह सदा घिरा रहता है, वे सभी लोग उसके अन्तरंग नहीं बन पाते। यह भी सत्य है कि अपने से दूर रहने वाले सभी उसके पराए नहीं होते। मनुष्य के कौन कितना समीप है और कौन कितना दूर है, इसे परिभाषित कर पाना संभव नही है। विषय यही है कि फिर उसकी आत्मीयता किसके साथ होती है।
गुड़ पर सदा मक्खियाँ मंडराती रहती हैं क्योंकि इससे उनका स्वार्थ जुड़ा होता है। जब गुड़ समाप्त हो जाता है, तब वे उड़ जाती हैं। फिर उस ओर मुड़कर देखती भी नहीं हैं। इसी प्रकार कुछ मौकापरस्त लोग भी अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु सम्बन्ध बनाते हैं। उसके पश्चात मुँह मोड़कर चल देते हैं। उनके लिए किसी सम्बन्ध का कोई मूल्य नहीं होता, वे बेमायने होते हैं।
निम्न श्लोक में सम्बन्धों की बहुत सुन्दर परिभाषा दी गई है। कवि का कथन है-
दूरस्थोऽपि न दूरस्थो, यो यस्य मनसि स्थितः।
यो यस्य हृदये नास्ति, समीपस्थोऽपि दूरतः॥
अर्थात जो व्यक्ति हृदय में रहता है, वह दूर होने पर भी दूर नहीं है। जो हृदय में नहीं रहता, वह समीप रहने पर भी दूर ही है।
यह श्लोक हमें समझ रहा है कि जो व्यक्ति अपने हृदय में रहता है, वह सदा ही समीप होता है। यहाँ समय और स्थान की दूरी कोई मायने नहीं रखती। वे लोग चाहे पास रहें या दूर रहें हमेशा ही निकट रहते हैं। इसी प्रकार वे चाहे प्रतिदिन मिलें या दिनों या महीनों या वर्षों के उपरान्त, उनकी आत्मीयता बनी रहती है। उनके सम्बन्धों का आकर्षण कभी समाप्त नहीं होता। इस श्रेणी में कोई भी बन्धु-बान्धव हो सकता है।
इसके विपरीत जो बिल्कुल करीब रहते हैं या सम्बन्धों में बहुत करीबी होते हैं, पर जब वे किसी भी कारणवश मन से उतर जाते हैं तो वे दूर हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो मनभेद हो जाने पर कोई कितना भी पास रहता हो, दूर ही प्रतीत होता है। पति-पत्नी, भाई-बहन, सन्तान, मित्र-रिश्तेदार, सहकर्मी कोई भी हो सकता है, जिससे मनमुटाव हो जाए तो उसका चेहरा देखना भी इन्सान को पसन्द नहीं आता। उसके मन में उन सबके प्रति नफरत का भाव पनपने लगती है।
जीवन में एकसाथ जीने-मारने की कसमें खाने वाले, एक ही छत के नीचे रहने वाले पति-पत्नी के मध्य जब विश्वास और सामञ्जस्य की डोर टूटने लगती है तब वे अजनबियों की भाँति व्यवहार करने लगते हैं। कभी अपनी सन्तान के मोहवश या किसी अन्य कारण से साथ रहते हुए भी उनके सम्बन्धों में गर्माहट समाप्त हो जाती है। एक ही छत के नीचे रहते हुए एक-दूसरे को वे फूटी आँख नहीं भाते और दोनों ही साथी को नीचा दिखाने का कोई अवसर नहीं चूकते।
इसी तरह भौतिक धन-सम्पत्ति के लिए विवाद करने वाले या न्यायालय की शरण में जाने वाले सगे बन्धुजन परस्पर शत्रुवत बन जाते हैं। उनमें परस्पर इतनी शत्रुता हो जाती है कि उनके बीच सभी सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं। तब उनके मध्य वार्तालाप का रास्ता भी बन्द हो जाता है। वहाँ सुलह-सफाई की कोई भी गुंजाइश नहीं रह जाती। विवशता के कारण यदि उनका आमना-सामना कभी हो भी जाए तो वे कन्नी काटकर निकल जाने में अपनी भलाई समझते हैं।
अपनी आँखों के तारे, जिनके लिए इस संसार में मनुष्य जीता है, वही बच्चे उसे उस समय कोढ़ यानी नासूर की तरह लगने लगते हैं, जब वे उसका सब कुछ छीनकर उसे दरबदर की ठोकरें खाने के लिए विवश कर देते हैं। उस समय वह सोचता है कि यदि ऐसी औलाद न होती और वह निस्संतान रह जाता तो अधिक अच्छा होता।
साररूप में यही कहा जा सकता है कि किसी के साथ दूरी होना अथवा समीपता होना मनुष्य के अपने व्यवहार पर निर्भर करता है। जो अधिक गम खाता है, वही सबका अपना होता है। अपने स्वार्थ को प्रश्रय देने वाला दूसरों की नजरों से उतर जाता है। तब पास होते हुए भी वह दूर हो जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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