आर्य और अनार्य शब्द वेदादि ग्रन्थों में मिलते हैं। पश्चातवर्ती संस्कृत साहित्य में भी इस आर्य शब्द का प्रयोग मिलता है। आर्य शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ और प्रगतिशील मनुष्य। अतः आर्य समाज का अर्थ हुआ श्रेष्ठ और प्रगतिशीलों का समाज, जो वेदों के अनुकूल चलने का प्रयास करते हैं। दूसरों को उस पर चलने को प्रेरित करते हैं।आर्य शब्द का अर्थ निम्न श्लोक में स्पष्ट किया गया है -
कर्तव्यमाचरं काममकर्तव्यमनाचरम्।
तिष्ठति प्राकॄताचारो य स: आर्य इति।।
अर्थात जो आचरणपूर्वक सभी करणीय कार्य करता है और वर्जित कृत्यों से दूर रहता है तथा सहज ही विवेकपूर्ण व्यवहार करे, वही 'आर्य' कहलाता है।
हम कह सकते हैं कि विवेकी व्यक्ति आर्य कहलाता है। इस शब्द का प्रयोग ऐसे श्रेष्ठ व्यक्ति के लिए किया जाता है जो सदा देश, धर्म और समाज की भलाई के लिए कार्यरत रहते हैं। वे किसी भी व्यक्ति को जाति-धर्म, अमीरी-गरीबी, लिंग, रंग-रूप आदि के आधार पर अलग नहीं मानते। सभी इन्सानों को एक ही समान समझते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इसी आर्य शब्द का चयन अपने अनुयायियों के लिए किया था। वे वेद मत को पुनः स्थापित करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने आर्यसमाज की नींव रखी, जिसका अर्थ है श्रेष्ठ लोगों का समूह। वे चाहते थे कि जो भी लोग उनके साथ जुड़ें वे वास्तव में समाज के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करने वाले हों। इनका आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम राम और योगिराज श्रीकृष्ण हैं।
वे सभी जीवों में उस परमपिता परमात्मा की ही छवि देखते हैं। इसलिए उन्हें सांप और बिच्छू आदि विपरीत स्वभाव वाले जीवों से भी डर नहीं लगता। वे प्राणिमात्र से प्यार करते हैं, किसी से घृणा नहीं करते। एवंविध आर्य न भूत प्रेत से डरते और न ही पीपल या बरगद आदि पेड़ों से।
ईश्वर पर उन्हें अटूट विश्वास रखते है। इन अन्धविश्वासों से दूर रहते हैं। बिल्ली या नेवले के रास्ता काट जाने पर, घर से निकलते ही छींक आने पर या खाली बाल्टी देखकर वे रास्ता नहीं बदलते। पूजा-पाठ अथवा कथा-प्रवचन के नाम पर होने वाले ढकोसलों पर वे अनवश्यक खर्च नहीं करते। किसी कार्य की संभावित सफलता के लिए ईश्वर को रिश्वत नहीं देते। गंदगी और बदबू भरे नदियों और तालाबों के जल में नहाने के लिए विवश नहीं होते और न ही वे उन्हें दूषित करते हैं।
उनके सभी कर्म ईश्वर को समर्पित होते हैं। इसीलिए कोई भी शुभकार्य बिना कोई मुहूर्त निकलवाए प्रभु का नाम लेकर आरम्भ कर देते हैं। उनका मत है कि ईश्वर के द्वारा बनाए गए सभी दिन शुभ हैं। वे अपने किए गए शुभ कर्मों का श्रेय ईश्वर को देते हैं। अपनी गलती को हरि इच्छा न मानकर भविष्य में दोहराने से परहेज करते हैं। सुबह-सुबह अखबार में पढ़कर अथवा टी.वी. में राशिफल देखकर अपने पूरे दिन का कार्यक्रम नहीं बनाते।
अनार्य शब्द का प्रयोग दुष्ट व्यक्तियों के लिए किया जाता है। जिनका कार्य सबको पीड़ा देना होता है। वे दूसरों को कष्ट में देखकर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। ये लोगों को डर दिखाकर अपना उल्लू सीधा करने से बाज नहीं आते। वे देश, धर्म और समाज के नियमों को तक पर रखना इनका स्वभाव बन जाता है। इन नियमों के विपरीत कार्य करने में ये गर्व महसूस करते हैं। ये लोग किसी कायदे-कानून को नहीं मानते। नियमों को तोड़ना इनकी आदत बन जाती है। दुष्प्रवृत्ति के ये लोग परमात्मा
की उपासना का ढोंग अधिक करते हैं। अपने से बढ़कर इन लोगों को और कुछ भी नहीं दिखाई देता।
आर्य वास्तव में एक ईश्वर की उपासना करते हैं। स्वर्ग पाने के लिए वे किन्हीं अप्सराओं अथवा हूरों की कामना कदापि नहीं करते, अपितु अपने कर्मों की शुचिता पर ध्यान देते हैं। सच्चाई के मार्ग पर चलने वाले ये ईश्वर के प्रति पूर्णरूपेण से समर्पित होते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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