प्रत्येक मनुष्य के अन्तस में श्वासों की एक माला 24×7 चलती रहती है। उस पर यदि मनुष्य अपने ध्यान को केन्द्रित कर सके तो वह ईश्वर को पाने के लिए एक कदम बढ़ा लेता है। मनीषियों का कथन है कि कोई भी व्यक्ति इसका अभ्यास कर सकता है यानी धर्म-जाति, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, ज्ञानी-अज्ञानी, महिला-पुरुष सभी को समानरूप से इसका अभ्यास करने का अधिकार है। ईश्वर की दृष्टि में सभी जीव बराबर हैं। उसकी सृष्टि किसी से भेदभाव नहीं करती।
यद्यपि इसका अभ्यास करना बहुत ही कठिन है। इसका कारण संसार के आकर्षण हैं, मोह-माया के बन्धन हैं जो मनुष्य को अपने जाल में फँसाए रखते हैं। इसके साथ-साथ भागदौड़ वाली जिन्दगी जिसमें उसे अपने लिए समय ही नहीं मिल पाता। वह दो घड़ी सुकून के अपने लिए नहीं निकल पाता। इसलिए वह जीवन भर इधर-से-उधर घड़ी की सुइयों की तरह भटकता रहता है। सच कहा जाए तो उसे इस विषय पर विचार करने का समय ही नहीं मिल पाता।
ईश्वर ने इस धरा पर भेजते समय मनुष्य को जीवन के साथ ही ध्यान लगाने का एक सरल-सा मन्त्र भी दिया है जिसको हमने बिसरा दिया है। प्रायः लोगों को तो ज्ञात ही नहीं होगा कि ईश्वर प्राप्ति का ऐसा कोई अनमोल सूत्र हमारे पास है। हम संसार के कार्य व्यवहार में इतना उलझे रहते हैं कि ईश्वर और उसकी बनाई सृष्टि पर मनन नहीं करना चाहते। उसकी बनाई प्रकृति की सुन्दरता को निहारने के लिए हमारे पास समय नहीं होता।
जिस प्रकार ईश्वर के नाम जाप का कोई काल निश्चित नहीं है उसी प्रकार इस श्वासों की माला पर ध्यान लगाने का भी कोई समय नहीं है। जब चाहें, जिस समय चाहें इसका अभ्यास किया जा सकता है। यानी घर-बाहर, यात्रा में, सोते-जागते, चलते-फिरते, भीड़ या एकान्त में जहाँ भी हों, यह अभ्यास सरलता से किया जा सकता है। इसके लिए बस मन में सच्ची लगन का होना आवश्यक है। मनीषी कहते हैं कि डण्डे के जोर से किसी को ईश्वर का नाम लेना नहीं सिखाया जा सकता।
मानव जीवन का मूल यही कहा जा सकता है कि इस श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया के अनवरत अभ्यास से अपने मन को इसकी धुन में लीन कर देना। श्वास लेते और छोड़ते समय 'ओइम्' का उच्चारण करते रहना चाहिए। अपने अन्तस को इससे गुँजायमान करते हुए ध्यान लगाना चाहिए। इसी अभ्यास से ही अन्ततः अन्तस में प्रकाश दिखाई देने लगता है। किसी भी पद्धति से ईश्वर की उपासना करने पर अन्ततः प्रकाश ही दिखाई देता है क्योंकि ईश्वर प्रकाशमय है।
जो साधक अपने हृदय को ध्यान से प्रकाशित कर लेता है, वह भगवान कृष्ण के अनुसार स्थितप्रज्ञ बन जाता है। फिर उसे मान-अपमान, सुख-दुख, यश-अपयश, लाभ-हानि, जय-पराजय, शान्ति-अशान्ति आदि द्वन्द्व कभी उद्वेलित नहीं कर सकते। उसका मन शान्त हो जाता है। देश, धर्म, समाज और घर-परिवार के सभी दायित्वों को वह मनुष्य निस्पृह भाव से पूर्ण करता है। वह राजा जनक की तरह विदेह बन जाता है।
जितना हम स्वयं से दूर होने के बहाने ढूंढ़ते रहते जा रहे हैं उतना ही ईश्वर से भी दूर हो रहे हैं। हम अन्तर्मुखी होने के स्थान पर बहिर्मुखी बनते जा रहे हैं। इसीलिए दुख, कष्ट और परेशानियाँ हमारे साथी बन रहे हैं। हम उन्हें भोगते रहते हैं और रोते रहते हैं। वह मनुष्य वास्तव में महानुभाव बन जाता है जो अपने आन्तरिक शत्रुओं यानी ईर्ष्या, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि को जीत लेता है। इस प्रकार अपने मन के शुद्ध हो जाने से वह दिन-प्रतिदिन ईश्वर का प्रिय बनता जाता है। वह उसके समीप जाने के लिए अपना मार्ग प्रशस्त कर लेता है।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp