विद्या यानी ज्ञान का मनुष्य के जीवन में बहुत महत्त्व है। विद्याविहीन मनुष्य को मनीषी पशु के समान मानते हैं। विद्या मनुष्य के मोक्ष तक का मार्ग प्रशस्त करती है। वह उसका ऐसा सच्चा मित्र है जो किसी भी परिस्थिति में उसका दामन नहीं छोड़ती चाहे उसके अपने बन्धु-बान्धव उससे किनारा ही क्यों न कर लें। वह उसे हर समस्या से निपटने का रास्ता सुझाती है और किसी भी अपरिहार्य स्थिति से बाहर निकलने में सहायक बनती है। यह विद्या उसके किसी भी मित्र अथवा सम्बन्धी से इतनी अधिक विश्वासपात्र होती है जो उसे कहीं भी नीचा नहीं देखने देती।
मनुष्य जितना विद्याध्ययन करता है, उतना ही योग्यता प्राप्त करता है। उसकी हर सफलता का मूल कारण यह विद्या ही होती है। विद्वत्सभा में उसे यथोचित स्थान दिलाती है। वह किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं करती। जाति-धर्म, रंग-रूप, देश-काल आदि किसी भी परिस्थिति से उसे कोई लेना देना नहीं होता। विद्या की देवी, माँ सरस्वती की कृपा हर उस मनुष्य पर बरसाती है जो उसकी साधना मनोयोग से करता है। उसे विद्वान बनने का आशीर्वाद देती है।
'हितोपदेशम्' ग्रन्थ में कवि नारायण पण्डित ने हमें समझाने का प्रयास किया है कि अधम व्यक्ति भी यदि विद्या प्राप्ति के लिए साधना करता है तो अपनी योग्यता के बल पर वह भी सम्मान और धन-वैभव आदि सुगमता से प्राप्त कर सकता है-
संयोजयति विद्यैव नीचगापि नरं सरित्।
समुद्रमिव दुर्धर्षं नृपं भाग्यमतः परम्।।
अर्थात जिस प्रकार प्रचण्ड वेग से बहती हुई नदी अपने साथ तृण आदि तुच्छ पदार्थों को समुद्र से मिला देती है, उसी प्रकार अधम मनुष्य को विद्या राजा से मिलाती है। उससे उसका भाग्योदय हो जाता है।
इस श्लोक में कवि समझना चाहता है कि जब अधम या निम्न व्यक्ति विद्याध्ययन कर लेता है और किसी राजा को अपने ज्ञान से प्रभावित कर लेता है तब वह उसकी योग्यता का मूल्यांकन करके उसे धनादि देकर पुरस्कृत कर सकता है। आधुनिक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अब जब राजसत्ता नहीं है तो अधिकार-सम्पन्न व्यक्ति को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं। विद्या किसी भी व्यक्ति को इस योग्य बनाती है कि वह ऐसे लोगों के समक्ष स्वयं को बिना झिझके प्रस्तुत कर सके और अपने ज्ञान से उन्हें प्रभावित कर सके।
इस श्लोक में कवि ने प्रचण्ड वेग से बहने वाली नदी का उदाहरण दिया है। वह नदी अपने जल में आए हुए तिनके आदि तुच्छ पदार्थों को अपने साथ बहाकर ले जाती है और उन्हें समुद्र में छोड़ देती है। उसी प्रकार एक विद्वान भी अपनी सारी जड़ता को विद्या रूपी नदी में बहाकर स्वयं योग्य बन जाता है। ज्ञान प्राप्त करके वह शुद्ध हो जाता है यानी उसकी अज्ञानता दूर हो जाती है। तत्पश्चात फिर समुद्र रूपी किसी राजा को प्रसन्न करके सुख-समृद्धि पा लेता है।
'हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता' की ही भाँति ज्ञान का भी कोई ओरछोर नहीं होता है। आजन्म मनुष्य ज्ञानार्जन करता रहे, तब भी वह स्वयं के सम्पूर्ण ज्ञानी होने का दावा नहीं कर सकता। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ज्ञान का आगार है। उसमें से मनुष्य अपनी कैपेसिटी या सामर्थ्य के अनुसार ज्ञान का अर्जन कर लेता है। जो मनुष्य आजन्म विद्यार्थी बना रहता है वह परम विद्वान बनकर समाज को दशा और दिशा देने वाला महानुभाव बन जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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