यथायोग्य अभिवादन करने वाला व्यक्ति जो नित्य प्रति अपने से बड़ों की सेवा करता है उसकी आयु, विद्या, यश और बल में बढ़ोतरी होती है। इस भाव को निम्न श्लोक में बड़ी ही सुन्दरता से व्यक्त किया गया है-
अभिवादनशीलस्य नित्य वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्॥
यह तो सीधा-सा गणित है चाहे इसे आप मानें चाहे न मानें। जो मनुष्य सबका अभिवादन करता है अर्थात् बड़ों को प्रणाम, अपने बराबर वालों से स्नेह पूर्वक सौहार्द रखता है व छोटो के सिर पर प्यार से हाथ रखकर आशीष देता है वह विनम्र होता है। ऐसा विनयी व्यक्ति सबका प्रिय होता है।
दूसरी बात कही है कि बड़े-बजुर्गो की सेवा। दूसरों की सेवा करना मनुष्य का परम सौभाग्य होता है। बड़े-बजुर्गो को जो एक आयु के पश्चात अशक्त होने लगते हैं उन्हें सेवा करवाने की बहुत आवश्यकता होती है। उनकी सेवा का अर्थ है उनकी आवश्यकताओं को पूरा करना। ऐसा सद् कार्य जो करता है वह सौभाग्यशाली सेवाभावी सबका मन मोह लेता है।
विनम्र होना और सेवाभावी होना ये दोनों गुण सोने पर सुहागा होते हैं। जिस मनुष्य में ये दोनों गुण होते हैं वह आम जन न रहकर खास जन बन है। उसकी उपस्थिति मात्र से ही सब लोग निश्चिंत हो जाते हैं क्योंकि उसे सभी संकटमोचक की तरह देखते हैं।
सब बड़ों का आशीर्वाद उसे मिलता है। लोग ऐसे व्यक्ति की दीर्घायु की कामना करते हैं। कहते हैं कि श्राप फलीभूत होते हैं। यदि श्राप फलता है तो निश्चित ही आशीर्वाद का भी फल मिलता है। जब बहुत से लोग उसकी दीर्घायु की कामना करेंगे तो उसकी आयु बढ़ेगी। यहाँ एक बात करना आवश्यक है कि हमारी आयु कितनी है बताना कठिन होता है। हमारे पूर्वकृत कर्मों के आधार पर ही हमें ईश्वर आयु निर्धारित करके भेजता है।
यहाँ हम उस आयु की चर्चा कह सकते हैं कि वे व्यक्ति मरणोपरांत भी हमारे हृदयों में जीवित रहते हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनकी चर्चाएँ होती रहती हैं। इतिहास भरा पड़ा है ऐसे महान पुण्यात्माओं के उल्लेख से।
विद्या अध्ययन तो हर मनुष्य करता है। इससे उसे ज्ञान प्राप्त होता है व उसका चहुँमुखी विकास होता है। वह योग्य बनकर घर-परिवार, समाज के अपने दायित्वों का निर्वहण करता है। परन्तु जब वो वृद्धों के पास बैठता है तो उनके अनुभवों से बहुत कुछ सीखता है। इस प्रकार उसके सांसारिक ज्ञान की वृद्धि होती है।
सदा अभिवादन से, सबसे आशीर्वाद लेने और दुनियादारी की समझ होने से मनुष्य का यश चारों ओर फैलता है। जैसे कस्तूरी को कितनी भी परतों में छिपा लो वह खुशबू ही फैलाती है। उसी प्रकार अपने निश्छल स्वभाव से मनुष्य यश, मान, सम्मान के भागीदार बन जाते हैं।
सबके प्रिय होने से इनका साथ देने के लिए बहुत से लोग आगे बढ़ते हैं। इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि बल बढ़ता है। किसी परेशानी में अगर ये घिर जाएँ तो अनेकों हाथ इनका साथ निभाने के लिए उठ जाते है अर्थात् भौतिक बल बढ़ता है। इसी से मनुष्य की पहचान बनती है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। यदि वह अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझेगा तो समाज से कटकर अकेला हो जाता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति समाज में अपना एक स्थान बनाता है तो सभी उसे अपने सिर आँखों पर बिठाते हैं। इसी की चर्चा इस श्लोक के माध्यम से हमने की है। अब मार्ग का चुनाव हमें स्वयं करना है।
चन्द्र प्रभा सूद
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