पराई स्त्री को माता के समान मानने वाला और दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले की तरह जानने वाला और अपनी ही तरह सभी जीवों को जो देखता है या समझता वही वास्तव में विद्वान कहलाता है। ये सुन्दर भाव निम्नलिखित श्लोक में कहे गए हैं-
मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत्।
आत्मवत्सर्वभूतेषु य: पश्यति स पण्डित:॥
श्लोक में सबसे पहले समझाया है पराई स्त्री को माता की तरह मानो। यदि हर व्यक्ति इस उक्ति का मनन कर जीवन में ढाल ले तो तथाकथित सभ्य समाज की बहुत-सी बुराइयों का अंत हो जाएगा। बलात्कार जैसी घिनौनी हरकत कोई नहीं करेगा। घर, बाहर, आफिस आदि किसी स्थान पर यौनशोषण की समस्या नहीं रहेगी। स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों से भी मुक्ति मिल जाएगी।
समाज में चारों ओर स्वच्छ तथा स्वस्थ वातावरण का निर्माण होगा। महिलाएँ खुली हवा में साँस ले सकेंगीं। अपनी इच्छा से स्वतन्त्रता पूवर्क आ जा सकेंगी। कन्या भ्रूणहत्या की नृशंस समस्या से समाज इस समय त्रस्त हो रहा है उससे भी मुक्ति मिलेगी।
दूसरे के धन को यदि हम मिट्टी मान लें तो कोई किसी की धन-संपत्ति पर कुदृष्टि नहीं डालेगा। चोरी-डकैती, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, लूटपाट जैसे दुष्कर्म करने से मनुष्य तौबा कर लेगा। घरों में मोटे-मोटे ताले लगाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। घर खुला रहने पर भी चिन्ता नहीं होगी। क्योंकि चोरी तो कोई करेगा नहीं। बड़ी-बड़ी तिजोरियों में धन को सुरक्षित रखने की आवश्यकता ही नहीं होगी। मनुष्य दूसरों के धन पर अपनी नजर नहीं डालेगा। उसके मन में परिश्रम व ईमानदारी से कमाए अपने धन से संतोष उपजेगा। कहते हैं-
गोधन गजधन बाजिधन और रत्नधन खान।
जब आए संतोष धन सब धन धूरी समान॥
संतोष रूपी धन परिवार की बुराइयों से रक्षा करता है। संतान को सुयोग्य बनाता है जिस पर माता-पिता, देश व समाज गर्व करता है।
ऐसे कमाए अपने धन में बहुत बरकत होती है। गलत रास्ते से कमाये हुए धन का दुरूपयोग अधिक होता है। माना यही जाता है-
'चोरी का धन मोरी में' और भी 'चोरी का माल लट्ठों के गज।'
कहने का तात्पर्य है कि ऐसे पैसे को व्यर्थ बरबाद करने या लुटाने में कष्ट नहीं होता।
अपने समान दूसरे को समझने का अर्थ है जैसा व्यवहार हम अपने लिए दूसरों से चाहते हैं वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ करना। हम चाहते ही कि सभी हमारे साथ सहृदयता, आत्मीयता का व्यवहार करें तो हमें भी दूसरों के प्रति सहृदय व आत्मीय होना होगा। यदि सम्मान चाहिए तो दूसरों को सम्मान दो और प्यार चाहिए तो सभी जीवों से प्यार करो। दूसरे शब्दों में कहें तो दूसरों से यदि हम दूसरों से दुर्व्यवहार या नफरत करेंगे तो वही मिलेगा। इसीलिए विद्वान कहते हैं-
'जैसा बोओगे वैसा काटोगे' और 'बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाय'
हम अपने जीवन में वही प्राप्त करते हैं जो हम बाँटते हैं। इसलिए अपने समान सभी को समझने वाला सही अर्थों में विद्वान होता है। ऐसे महापुरुषों का संसर्ग हमेशा उन्नति कारक होता है। ये लोग मानवजाति के शुभचिंतक होते हैं।
इन भावों को आत्मसात करके यदि जीवन में अपना लें तो मनुष्य महान बन जाता है। संसार की बहुत-सी बुराइयाँ स्वतः समाप्त हो जाएँगी।
चन्द्र प्रभा सूद
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