वह सब कुछ मनुष्य पुनः पुन: परिश्रम करके प्राप्त कर सकता है जिनकी वह कामना करता है। सुख-सुविधा के सारे साधन वह स्वयं अपने और अपने परिवारी जनों के लिए देर-सवेर जुटा ही लेता है। उसके ईमानदार प्रयत्न कर्म बनकर उसके जीवन को समृद्ध बनाते हैं। इस जीवन में भौतिक ऐश्वर्य कमा लेना सरल एवं सहज होता है। घर, गाड़ी, फ्रिज, टीवी आदि को मनुष्य अपने स्टेंडर्ड के अनुसार या खराब हो जाने की स्थिति में समय-समय पर बदलता रहता है।
जिस शरीर को माध्यम बनाकर वह इतराता फिरता है, उसे एक बार यदि खो दिया तो भौतिक वस्तुओं की भाँति पुनः प्राप्त करना असम्भव होता है। शरीर से प्राण निकल गए तो वह मिट्टी के ढेर के समान अनुपयोगी हो जाता है। अपने परम प्रियजन भी उसे कुछ घण्टे तक सहन नहीं कर सकते। जल्दी से उस प्राणरहित शरीर या शव को अग्नि को समर्पित करने का प्रयास करते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि मानव का यह शरीर जीव को बहुत ही कठिनता से प्राप्त होता है।
निम्न श्लोक में कवि ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में समझाया है-
पुनर्वित्तं पुनर्मित्रं पुनर्भार्या पुनर्मही।
एतत्सर्वं पुनर्लभ्यं न शरीरं पुनः पुनः॥
अर्थात् धन-संपति, मित्र, स्त्री, राज्य बार-बार मिल सकते हैं। परन्तु मनुष्य का शरीर केवल एक ही बार प्राप्त होता है, बार-बार नहीं।
कवि इस श्लोक के माध्यम से हमें समझाने का प्रयास कर रहा है कि धन-सम्पत्ति यदि किसी कारण से नष्ट हो जाए तो मनुष्य दिन-रात मेहनत करके पुनः जुटा लेता है। यदि कोई मित्र साथ छोड़ दे अथवा एक प्रदेश से दूसरे स्थान पर नौकरी-व्यवसाय के कारण अन्यत्र जाने से पुराने मित्र पीछे छूट जाएँ तो पुनः नए मित्र बना लिए जाते हैं। पत्नी की मृत्यु हो जाने पा पुनः विवाह किया जा सकता है। यदि राज्य पर किसी शत्रु राजा का अधिकार हो जाए तो अपनी सेना को एकत्र करके राज्य को वापिस पाया जा सकता है।
जीव को मनुष्य का यह शरीर बहुत ही पुण्य कर्मों के सञ्चय होने के पश्चात मिलता है। एक बार शरीर के अग्नि में समर्पित हो जाने के उपरान्त इसे पुनः प्राप्त करना असम्भव होता है। पुनर्जन्म होगा भी तो कोई आवश्यक नहीं कि फिर से मानव का यही शरीर मिलेगा या यही बन्धु-बान्धव मिलेंगे। मनीषियों का कथन है कि अपने कर्मों के भोग के अनुसार चौरासी लाख योनियों में से किसी एक में जीव का जन्म होता है। वह योनि कोई भी हो सकती है यानी भूचर, जलचर या नभचर किसी भी रूप में जीव का जन्म होता है।
शुभकर्मों की अधिकता होने पर ही जीव को पुनः मनुष्य का शरीर मिलता है। उस समय उसके माता-पिता और अन्य परिजन भी उसे अपने कर्मानुसार ही मिलते हैं। पूर्वजन्म की कोई स्मृति उसके स्मृतिपटल पर शेष नहीं रहती। यही विधि का विधान है। यदि ऐसा न होता तो जीव के लिए जीना बहुत कठिन हो जाता है। उस समय जीव अपने पुराने जन्म की स्मृतियों में ही भटकता रह जाता, उन्हीं में खोया रहता और नए जन्म में रच बस नहीं पाता।
मनुष्य को सदा यह स्मरण रखना चाहिए कि अगला जन्म उसे अपने कर्मों के अनुसार मिलेगा। जिस भी शरीर को वह पाना चाहता है, उसके कर्म भी उसी के अनुसार होने चाहिए। अपने जीवनकाल में सदा शुभकार्य करके इस देह का सदुपयोग करना चाहिए। जो मनुष्य प्रतिदिन सत्कर्म करते हैं, कदाचार से दूर रहते हैं, वास्तव में उनका जीवन सफल हुआ माना जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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