हमारा यह मन बहुत ही चञ्चल है, मनुष्य को किसी भी पल आराम नहीं लेने देता। अभी यहाँ है तो अगले ही पल पूरे विश्व की सैर करके लौट आता है। सारा दिन उधेड़बुन में निकाल देता है। सारा समय यह छल-कपट करने की जुगत भिड़ाता रहता है। इसीलिए यह तरह-तरह के षडयन्त्र करता रहता है। तेरा-मेरा करता हुआ कभी किसी को अपना बना लेता है और कभी अपनों को पराया कर देता है। यह मन ही है जो मनुष्य को सदैव इधर-उधर भटकाने में लगा रहता है, उसे क्षणभर के लिए आराम से नहीं बैठने देता।
दुनिया का सारा प्रपञ्च यह मन करता हैl यह मनुष्य के उत्थान और पतन का कारक होता है। वह यदि चाहे तो मनुष्य परिश्रम करके सफलता की ऊँचाइयों को छू ले, आसमान में उड़ान भर ले, समुद्र का सीना चीरकर उसमें से मोती निकाल लाए, दुर्गम पर्वतों की चढ़ाई कर ले, इस दुनिया को सुख-सुविधाएँ देने के लिए नित-नए आविष्कार कर ले। कहने का तात्पर्य यह है कि यह मन यदि सकारात्मक रुख अपना लेता तो वह किसी से नहीं डरता और जो भी चाहता है, उसे कर गुजरता है।
दूसरी ओर इसके नकारात्मक होते ही मनुष्य का विनाश निश्चित हो जाता है। यदि यह मेहनत करने के स्थान पर आलस्य रूपी शत्रु को गले लगा लेता है तो एक अच्छा भला मनुष्य भी शेखचिल्ली की तरह दिवास्वप्न ही देखता रह जाता है। उस समय वह अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य करता है। न वह अपने दायित्व पूर्ण कर पाता है और न ही अपने परिवार के। इसलिए वह सभी की नजरों से गिर जाता है। उसका सर्वत्र तिरस्कार होता है।
यह जब सुविधपूर्वक जीने की कल्पना करने लगता है तब शॉर्टकट तलाशने लगता है। उस समय वह कुमार्ग पर चलने के लिए भी लालायित हो जाता है। जहाँ उसे बिना श्रम किए आकषर्ण दिखाई देता है, वह बिना समय गँवाए तत्क्षण उसी मार्ग पर चल पड़ता है। सारे झूठ-फरेब करता हुआ यह मन अपने ऊपर एक आवरण ओढ़ लेता है। उस खोल से बाहर निकल सकना उसके लिए नामुमकिन तो नहीं पर असम्भव अवश्य होता है।
जब मनमाफिक बात हो जाती है तो वह बल्लियों उछलने लगता है। परन्तु जब उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ हो जाता है तो वह उठा-पटक करने लगता है, विद्रोही बन जाता है। उस स्थिति में इस मन पर अंकुश लगाना आवश्यक हो जाता है। इसीलिए मनुष्य के मन को ही बन्धन और मोक्ष का कारण माना जाता है। इसी मन के ही कारण मनुष्य जन्म और मरण के चक्र में फँसा रहता है। यह मनुष्य को मोह-माया के बन्धनों में ऐसा उलझाकर रखता है कि वह चारों खाने चित्त हो जाता है। इस कारण संसार में भेजने वाले परमपिता परमात्मा से दूर होता जाता है। फिर वही चौरासी लाख योनियों का फेर उसके सम्मुख रहता है। मनुष्य को वही पुनर्जन्म की त्रासदी झेलनी पड़ती है और पुनः मृत्यु से आमना-सामना करना पड़ता है। इस चक्र से वह चाहकर भी नहीं बच पाता।
यदि इस कष्टदायी जन्म-मरण से मुक्त होकर मोक्ष की कामना की जाए तो यत्नपूर्वक मन को प्रभु की आसक्ति में लगाना पड़ता है। यह मन बार-बार संसार की चकाचौंध की ओर आकर्षित होता रहता है, उसे वहाँ से बारम्बार बलपूर्वक हटाकर वापिस ईश्वर की भक्ति की ओर उन्मुख करना पड़ता है। इसे ही भगवान श्रीकृष्ण ने 'श्रीमद्भावद्गीता' में अभ्यास कहा है। निरन्तर इस अभ्यास से मन विषय-वासनाओं से मुक्त होकर प्रभुभक्ति की तरफ जाने लगता है। उस समय में के सारे कालुष्य समाप्त हो जाते हैं और उसकी चञ्चलता दूर हो जाती है। मन शान्त होने लगता है।
अहंकाररहित, शुद्ध-पवित्र मन में ही ईश्वर का निवास हो सकता है। यदि वहाँ जरा-सी भी मलिनता होती है, तो ईश्वर को प्रतिष्ठित करने के लिए स्थान नहीं बनाया जा सकता। इसलिए अपने मन को साधकर, स्थिर करके ही ईश्वर का प्रिय भाजन बना जा सकता है। तदनन्तर जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होकर मुक्ति या मोक्ष की कामना सफल होती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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