आजकल एक बार फिर पितृपक्ष चल रहा है। अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर श्राद्ध किसका करना चाहिए? मरे हुए परिवारी जनों का अथवा जीवित माता-पिता का? यह एक गम्भीर चिन्तन का विषय है।
मुझे श्राद्ध का अर्थ यही समीचीन लगता है कि अपने जीवित माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी, गुरु-आचार्य और अन्य वृद्धजनों तथा तत्ववेत्ता विद्वानों की श्रद्धापूर्वक सेवा करनी चाहिए।
जीवित व्यक्ति ही अपनी सन्तान को उपदेश दे सकता है और अपने जीवन के अनुभव से संसार के व्यवहारों का ज्ञान करा सकता है। हर प्रकार से रक्षा कर सकता है। मरने के पश्चात कोई पितर नहीं होता क्योंकि पितर न तो आत्मा है और न ही शरीर है। शरीर नश्वर है और आत्मा अविनाशी है। मृत्यु आत्मा और शरीर दोनों का सम्बन्ध छुड़ा देती है तब पितर नहीं रह जाते हैं? यदि ऐसा नहीं माना जाता तब पितर शब्द का सम्बन्ध आत्मा से नहीं जुड़ सकता फिर श्राद्ध किया किसका किया जाएगा?
वास्तव में जीव से माता-पिता आदि का सम्बन्ध नहीं होता, जीव और शरीर के संयोग से विशेष सम्बन्ध है। सारे भौतिक नाते-रिश्ते इस संसार में ही सम्बन्ध रखते हैं। मरने के पश्चात न कोई किसी का पितर रहता है और न कोई किसी की सन्तान। सब जीव अपना-अपना कर्म-फल भोगने के लिए इस संसार में आते है।
कहते हैं पितर सूक्ष्म शरीर धारण करके श्राद्ध के दिनों में आते हैं और ब्राह्मणों के साथ भोजन करते हैं। यदि ऐसा हो कि वे कभी पितृलोक से न आ सकें तो क्या ब्राह्मणों को खिलाया हुआ भोजन उन्हें मिल सकेगा? दूसरी बात क्या बिना स्थूल शरीर के वे भोजन कर सकते हैं?
यहाँ एक और प्रश्न मन में आता है कि ब्राह्मणों के साथ जब पितर भोजन करते हैं तो पहले कौन खाता है यदि वे एक-दूसरे के बाद खाते हैं तो वे झूठा खाते हैं जो शास्त्र व सिद्धान्त के अनुसार गलत है।
मनुष्य किन लोगों का श्राद्ध करना चाहता है? जिनका जन्म चौरासी लाख योनियों में से किसी एक में हो चुका है। यह भी पता नहीं कि उसका पितर पुनः मनुष्य बना है या कोई खूँखार जंगली जानवर या फिर कोई कीट-पतंगा।
मनुष्य को यह भी तो नहीं पता होता कि उसका पितर इस समय किस अवस्था में है? वह रोगी है या स्वस्थ। यदि वह रोगी है तो ब्राह्मणों को हलवा, पूरी खीर आदि गरिष्ठ भोजन क्यों खिलाया जाए? उन्हें तो कड़वी दवा पिलानी चाहिए और मूँग की दाल ही खिलानी चाहिए।
क्या यह सम्भव है कि पितर के नाम पर खिलाया जाने वाला भोजन उसे ही मिल रहा है? यदि भोजन पितर के पास पहुँच रहा है तो फिर ब्राह्मण का पेट नहीं भरना चाहिए, उसे तो भूखा ही रह जाना चाहिए।
यह तो वही बात हो गई कि किसी आदमी के पास पत्र भेजने के लिए लैटरबाक्स में डाल दिया परन्तु उसका पता नहीं लिखा। अब बताइए क्या वह पत्र उस आदमी के पास पहुँचेगा? इसी तरह पितरों के पते के बिना ब्राह्मणों को खिलाने से भोजन पितरों के पास कैसे पहुँच जाएगा? यह तो कोरा अन्धविश्वास है।
घर पर ब्राह्मणों को खिला देने से परदेश या परलोक जाने वाले का पेट नहीं भरता फिर तथाकथित मृत पितरों का पेट भरना भी असम्भव है। अत: मृतक व्यक्ति के नाम पर का श्राद्ध करना व्यर्थ है। इस तरह करके मनुष्य स्वयं को धोखा देता है।
यदि श्राद्ध दान देने की भावना से किया जाए तो सुपात्र को दान देना चाहिए। इन तथाकथित समाज के ठेकेदारों को नहीं जो नौकरी या व्यापार करके अपनी आजीविका चलाते हैं। भोजन खिलाना ही है तो किसी अनाथालय में या किसी भूखे-लाचार को खिलाइए। उनका पेट भरेगा तो दुआएँ देंगे।
यदि अपने जीवनकाल में जीवित माता-पिता की सारी आवश्यकताओं को यथासमय पूरा किया जाए और उनकी यथाशक्ति सेवा की जाए तो ऐसे व्यक्ति को इन सब ढकोसलों को करने की कोई जरूरत नहीं होती। समय रहते सच्चे मन से जीवित पितरों का श्राद्ध करें अर्थात श्रद्धापूर्वक अपने हाथों से उनकी सुख-सुविधा की सारी व्यवस्थाएँ करनी चाहिए। जीते जी उनकी खोज-खबर न लेकर मरे पीछे आडम्बर करने का न कोई लाभ होता है और न ही उसे कोई पुण्य मिलता है।
फ़ेसबुक पर श्रवण कुमार उर्मिलिया के विचार इस विषय पर अच्छे लगे। आप सबके साथ साझा कर रही हूँ।
और कितना ढोंग-धतूरा फैलाया जायेगा पितरों को तारने और श्राद्ध/तर्पण के नाम पर। इन आडम्बरी पंडितों को बस उन्हीं की चिंता क्यों होती है जो मृत हो चुके हैं? ये कभी अपने जजमानों को यह सीख क्यों नहीं देते कि वे उनकी सेवा भी करें जो ज़िंदा हैं !
कैसी सभ्यता है यह? जिसे सामने बिठाकर खिलाया जा सकता है उसे नज़रअंदाज़ करो। और पूर्वजों के नाम पर दूसरों को खिलाने का दिखावा करो? कबीर दास जी ने तभी लिखा था-
जियत हाड़ में दंगम-दंगा
मरे हाड़ पहुंचाए गंगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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