वायुमण्डल में चारों ओर ही नकारात्मक बयार बह रही है। इसका गहरा प्रभाव हम सबके तन यानि स्वास्थ्य, मन, धन और मस्तिष्क सब पर हो रहा है।
सबसे पहले हम तन की चर्चा करते हैं। पर्यावरण के दूषित होने कारण हमारे शरीर पर प्रभाव पड़ता है। गाड़ियों, एसी, फेक्टरियों आदि के धुँए के कारण दूषित वायु के चलने से साँस संबंधी बिमारियों से बहुत लोग झूझ रहे हैं। हमारी नदियों को कारखानों का कचरा और सीवर का गंदा पानी दूषित कर रहा है। इससे पेट संबंधी बिमारियों से लोगों को न चाहते हुए झूझना पड़ रहा है।
हमारे खाद्यान्नों, सब्जियों और फलों आदि पर इस दूषित जल के कुप्रभाव तथा खेती में किसानों द्वारा डाले गए उन जहरीले कीटनाशक रासायनिकों के कारण ये सब खाने योग्य नहीं है परन्तु फिर भी हम खा रहे हैं। इसलिए जन साधारण को कैंसर जैसे अनेकानेक असाधारण रोग दिन-प्रतिदिन पीड़ित कर रहे हैं।
वाहनों के बढ़ते शोर, समय-असमय बजने वाले डीजे व बैंड-बाजे की कनफाड़ू धुनों से हमारे कानों से सबंधित बिमारियाँ बढ़ रही हैं।
ईश्वर ने हमारे चंचल मन को बहुत ही संवेदनशील बनाया है। जरा से भी नकारात्मक विचार इसे मथने लगते हैं और यह व्याकुल हो जाता है। चारों ओर ही निराशा का माहौल पसरा हुआ है। समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, अपहरण, लूट, बलात्कार, हत्या जैसी जघन्य घटनाएँ निराशा को जन्म देती हैं। राजनैतिक उठा-पटक भी नित्य ही विचलित करने में पीछे नहीं रहती।
इन सब घटनाओं को पढ़कर और सुनकर मन तार-तार होने लगता है। दूसरा कारण मन के पीड़ित होने का है बिमारियों की चपेट में आना। शरीर जब किसी भी कारण से अशक्त हो जाता है तब मनुष्य लाचार हो जाता है और दूसरों पर आश्रित हो जाता है।
ऐसी स्थिति में मन में निराशा के भाव आना स्वाभाविक होता है।
इस सबके अतिरिक्त कुछ फिल्मी गीतों में भी निराशा के भाव झलकते रहते हैं। कमप्यूटर पर खेले जाने वाले साहसिक खेल बच्चों को आत्महत्या करने के लिए उकसाते हैं जिनकी चर्चा टीवी सीरियलों, समाचार पत्रों आदि में समय-समय पर होती रहती है। ये सभी कारण मानव मन को विचलित करने के लिए पर्याप्त होते हैं। अपनी दैनन्दिन आवश्यकताओं को ताबड़तोड़ बढ़ती मंहगाई के कारण पूर्ण न कर पाना भी मानसिक अवसाद का एक बड़ा कारण बन जाता है। इस तरह मन का अस्वस्थ होना अनेक मनोरोगों को जन्म देता है।
धन बेचारा क्या-क्या करे? मनुष्य की दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करे या हर रोज बीमार पड़ जाने पर डाक्टरों के पास जाकर व्यय हो जाए। अब शरीरिक और मानसिक रोगों का इलाज करवाना भी तो जरूरी है। दिन-रात एक करके और खून-पसीने से कमाए धन को और समय को डाक्टरों के पास जाकर खर्च करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। फिर भी कोई गारन्टी नहीं है कि मनुष्य पूर्णरूपेण स्वस्थ हो ही जाएगा।
सरकार कितने ही कड़े कानून क्यों न बना ले उससे कोई हल नहीं निकल सकता जब तक हम स्वयं जागरूक नहीं होंगे। बहुत-सी समाजसेवी संस्थाएँ अपने-अपने स्तर पर हमें जगाने का प्रयास करती रहती हैं। सरकार भी विज्ञापनों के माध्यम से भी जन जागरण का यत्न करती है। फिर भी इच्छाशक्ति और विश्वास की शायद कहीं कमी रह जाती है। इसीलिए ये परेशानियाँ हम सब लोगों को झेलनी पड़ती हैं।
एवंविध वायुमण्डल व पर्यावरण को दूषित करने के दोषी हम सभी लोग हैं। इसका निदान भी हम सबको मिलकर ही खोजना होगा। अपने तुच्छ स्वार्थों से ऊपर उठकर सोचना ही मानवता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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