बहुत दुख होता है यह सुनकर जब लोग कहते हैं कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है। इस कथन को झुठलाया भी नहीं जा सकता। जब भी नारी मुक्ति की चर्चा होती है तब दूसरी ओर से यह उलाहना सुनने को मिलता है कि महिलाओं को किससे आजादी चाहिए। वे अच्छी तरह सोच विचार करके निर्णय तो ले लें। पहले स्त्रियाँ अपनी जाति से तो मुक्त हो लें। उसके बाद ही पुरुषों से स्वतन्त्रता की बात करना उचित हो सकता है।
वैसे ईमानदारी से देखा जाए पुरुष यानी पिता, भाई, दादा, नाना आदि की और से किसी भी कारण होने पर न बाद में होती है पर घर की स्त्री यानी माता, दादी, नानी आदि की ओर से न एकदम हो जाती है। प्रायः माताएँ अपनी बेटियों के अरमानों की बलि चढ़ा देती हैं। उन्हें बेटी के सपनों से अधिक समाज का डर होता है कि कोई क्या कहेगा? इसलिए वे बेटियों के सपनों को कुचल देती हैं, उनके पंखों को कतर देती हैं और उनकी महत्त्वाकांक्षाओं को दफन कर देती हैं। वे सदा बेटियों को पराए घर जाने और ससुराल में प्रताड़ित होने का भय दिखाकर उन्हें अनजाने ही बागी बना देती हैं। प्रायः माताएँ बेटों को अधिक महत्त्व देती हैं। वे किसी भी कारण से उनके मुकाबले बेटियों पर अधिक बन्धन लगाती हैं।
ससुराल में चाव से लाई गई बहू उस समय सास की आँख की किरकिरी बन जाती है जब घर के सदस्य उसकी प्रशंसा करने लगते हैं। उसे लगता है मानो सत्ता उसके हाथ से छिन रही है। सास जब बहू को बेटी न समझकर अपना प्रतिद्वन्द्वी समझने लगती है तो घर में परेशानी शुरू हो जाती है। उसे लगता है कि वर्षों से एकछत्र शासन करने वाली वह अब शायद किनारे की जा रही है। इसलिए वह बहू को अपमानित करने या उस पर टीका-टिपण्णी करने का कोई अवसर नहीं गँवाती। ससुराल में बहू को दहेज के लिए या किसी दिन-त्योहार के मौके पर मायके से मनमाफिक उपहार न मिलने पर यदा कदा उसे तिरस्कृत किया जाता है। इसके लिए किसी-किसी घर में यदा कदा उसके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है यानी शारिरिक प्रताड़ना भी दी जाती है, भूखा-प्यासा रखा जाता है।
होना तो यह चाहिए था कि बहू के आने पर सास माँ बन जाती और उसे अपनी बेटी समझकर् उसकी गलतियों को अनदेखा कर देती। उसे महत्त्वपूर्ण सदस्य मानकर उसके कन्धों पर स्वेच्छा से घर के दायित्व सौंप देती। इस प्रकार कहीं भी लड़ाई-झगड़े की गुँजाइश ही न रह जाती। बहू भी एक स्त्री है। वह भी यदि घर के बड़ों का मान रखकर बहुत-सी बातों को नजरअंदाज कर दे तो घर स्वर्ग बन जाए।
ऐसा होता नहीं है। जब अपनी माँ ही बेटी के आगे बढ़ते कदमों को रोक देती है तो फिर सास से क्या उम्मीद रखनी? कहने का तात्पर्य यही है कि माँ हो या सास दोनों भी तो स्त्रियाँ हैं। उन्होंने भी अपने समय में बहुत-वर्जनाओं को सहा है, उनके भी बहुत से अरमानों का गाल घोटा गया था। इसलिए उन्हें लगता है कि वे अपनी आगामी पीढ़ी के साथ वैसा व्यवहार क्यों न करें जैसा कभी उनके साथ किया गया था। मनोविज्ञान के अनुसार शायद इसे बदले की भावना कहा जा सकता है।
स्त्रियों को कभी घर-परिवार का वास्ता देकर और कभी बच्चों की ममता का हवाला देकर उनके पैरों में बेड़ियाँ डाल दी जाती हैं। उन्हें वे सब परम्पराएँ अथवा रूढ़ियाँ निभाने के लिए विवश किया जाता है, जिन्हें वे नापसन्द करती हैं। उनकी इच्छा का तो मानो कोई सम्मान ही नहीं है। गर्भ में ही बेटी शिशु के भ्रूण की हत्या भी तो स्त्री ही करती है। वे घर का कार्य भी करें और नौकरी भी करें और बच्चों को भी देखें। इस सब में वे मानो मशीन बनकर रह जाती हैं। उनको अपने लिए कोई समय ही नहीं मिल पाता। फिर उन्हें घर में सबकी बातें भी सुननी पड़ती हैं।
यह सब लिखने का तात्पर्य यही है कि महिलाओं को यदि वास्तव में मुक्ति चाहिए तो पुरुषों को कोसने से पूर्व स्त्रीगत विद्वेष की भावना को मन से निकालकर बाहर फैंकना होगा। उसे अपने व्यवहार में आमूल परिवर्तन करना होगा। दूसरी स्त्री को यथोचित सम्मान देना होगा। जब वे बदलेंगी तभी सब बदलेगा। उसके बाद ही पुरुषों से जंग लड़ने का लाभ हो सकेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp