परिश्रम से कमाए हुए अपने धन की सुरक्षा करना मनुष्य के लिए बहुत आवश्यक है। धन से प्रायः सभी आवश्यक कार्य पूरे किए जाते हैं। मनुष्य इसे कमाने के लिए दिन-रात एक कर देता है। अपना सारा सुख-चैन होम करके कोल्हू के बैल की तरह खटता रहता है तब जाकर वह धनार्जन कर पाता है। यही धन है जो उसके ऐशो-आराम का माध्यम या साधन बनता है। मनुष्य सिर उठाकर शान से चलता है। उसके चेहरे की चमक ही उसकी रईसी का बखान कर देती है।
जो लोग धन का उपार्जन नहीं कर पाते वे अभावों में अपना सारा जीवन व्यतीत करते हैं। उनके अपने प्रियजन भी उनसे किनारा करने में बिल्कुल देर नहीं लगाते। हर समय उनका चेहरा मुरझाया हुआ दिखाई देता है। वे सदा चिन्तित, उदास और परेशान दिखाई देते हैं। उनका सारा जीवन जोड़-तोड़ करते हुए बीतता है। एक समस्या का निदान वे करते हैं तो दूसरी समस्या उन्हें मुँह चिढ़ाती हुई सी सामने प्रकट हो जाती है। वे फिर कतर-ब्यौन्त करते हुए ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं।
धन का संरक्षण करने के लिए निम्न श्लोक हमें उपाय बता रहा है-
उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्।
तडागोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम्।।
अर्थात कमाए हुए धन का त्याग करने से ही उसका रक्षण होता है। जैसे तालाब का पानी बहते रहने सेे साफ रहता है।
यह श्लोक समझ रहा है कि धन को यदि बहुत अधिक सम्हालकर रखा जाए, उसे न अपने लिए खर्च किया जाए और न अपनों के लिए तो उस धन से भी एक प्रकार की सड़ान्ध आने लगती है। साँप की तरह केंचुली मारकर बैठने वाले सोचते हैं-
चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए
उनका धन किसी के उपयोग में नही आता। वे अपने परिजनों सहित अभावों में जीवन व्यतीत करते हैं।
धन की सुरक्षा होती है उसके सदुपयोग से। उसे परोपकार के कार्यों में लगाने से या देश, धर्म, समाज के लिए दान देने से। इसे ही धन का त्याग भी कह सकते हैं। ऐसे श्रेष्ठजन ही संसार में त्यागी अथवा महान कहलाते हैं। उन्हें सर्वत्र सम्मान दिया जाता है।
यहाँ कवि ने उदाहरण देकर अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। वे कहते हैं कि पानी जो हमारी जीवनदायिनी शक्ति है उसे यदि बहुत समय तक एक स्थान पर या एक बर्तन में रोककर रख दिया जाए तो कुछ समय पश्चात उससे दुर्गन्ध आने लगती है, उसमें कीड़े भी पड़ने लगते हैं। इसलिए जल को बाँधकर या रोककर रखने का प्रयास कभी नहीं करना चाहिए। उसे सदा प्रवहणशील होना चाहिए। बहता पानी कभी दुर्गन्ध नहीं देता।
इस प्रकार धन और जल दोनों में कवि ने समानता प्रदर्शित की है। वास्तव में सच्चाई भी यही है कि जल यदि दुर्गन्ध देने लगे तो उसे उपयोग में नहीं लाया जाता, फैंक दिया जाता है। मनीषी कहते हैं कि धन का यदि सदुपयोग न किया जाए तो उसका हरण चोर-डाकू कर सकते हैं। आने वाली पीढ़ी समय रहते अभावों में जीवन जीने को विवश होती है। जब बाद में बिना परिश्रम किए आसानी से धन मिल जाता है तो वह उसका दुरूपयोग करके उसे बरबाद कर देती है।
इसलिए अपने जीवनकाल में अपनी मेहनत से कमाए हुए धन का अतिसंग्रह न करते हुए उसे सदा अपने और अपनों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में व्यय करना चाहिए। जो समाज हमें बहुत कुछ देता है उसे उसकी भलाई के कार्यों में लगाकर, एक अच्छा मनुष्य होने का परिचय देना चाहिए। इससे धन का सदुपयोग भी होता है और मनुष्य को यश भी मिलता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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