जीव यानी आत्मा और ईश्वर देखने में एक ही जैसे लगते हैं। इसका कारण यह है कि आत्मा उस परमपिता परमात्मा का एक अंश मात्र है। इसलिए दोनों में समानता अथवा एकरूपता होना स्वाभाविक है। इन दोनों में समानता होते हुए भी भिन्नता है। सबसे बड़ा अन्तर यह है कि परमात्मा अजर, अमर, अविनाशी है जबकि आत्मा बार-बार जन्म लेती है। कहते हैं चौरासी लाख योनियों में अपने कर्मानुसार आत्मा जन्म लेती है। वह जन्म और मरण के इस चक्र में भटकती रहती है।
ऋग्वेद में एक मन्त्र आया है जिसमे वर्णन किया गया है कि जीव और ईश्वर एक ही वृक्ष पर ही बैठे हैं। आत्मा यानी जीव उस वृक्ष के खट्टे-मीठे फल खाता है जबकि परमात्मा मूक दर्शक बना देखता रहता है-
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादवत्त्यनश्ननन्यो अभिचाक शीति॥
अर्थात दो सुंदर पंखों वाले पक्षी, साथ-साथ एकसाथ एक वृक्ष पर बैठे हुए हैं, एक दूसरे के सखा हैं। एक वृक्ष को वे सब ओर से घेरे हुए हैं। उनमें से एक आत्मा वृक्ष के फल को बड़े स्वाद से खा रहा है, दूसरा बिना चखे, सब कुछ साक्षी भाव से सिर्फ़ देख रहा है।
इस मन्त्र में एक दृष्टान्त के माध्यम से जीवात्मा और परमात्मा के सम्बन्ध के विषय में समझने का प्रयास किया है। ये दोनों पक्षी हैं और प्रकृति वृक्ष है। कर्मफल इस वृक्ष का फल है। जीवात्मा का काम है कर्म करते रहना, इसलिए उसे जीवनकाल में कर्मफल मिलता है। परमात्मा प्रकृति से आसक्त हुए बिना, साक्षी भाव से जीव और प्रकृति को देख रहा है यानी वह केवल द्रष्टा मात्र है।
ऋग्वेद का यह मन्त्र हमें समझा रहा है कि प्रकृति रूपी वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं- जीवात्मा जो कर्म करता है और वृक्ष रूपी प्रकृति का फल चखता है। दूसरा पक्षी परमात्मा इस क्रम से निर्लिप्त रहता है, वह फल नहीं चखता। न
वह कर्ता है और न ही भोक्ता है। यह मन्त्र हमारे समक्ष इस सत्य को उजागर करता है कि ईश्वर, जीव और प्रकृति ये तीनों अनादि और अनन्त हैं।
मजे की बात यह है कि जब फल जीव को वृक्ष द्वारा ही प्राप्त हेते हैं तो फिर भी वह बाहर नजरें गड़ाए बैठा रहता है। इन्द्रियों से, मन से, बुद्धि से उसे जो भी प्राप्त होता है वह इस शरीर के भीतर ही प्राप्त होना है। दोनों प्रकार भोग के फल व मित्र उसे इस शरीर के भीतर ही उसे मिलते हैं।
वह बाहर फल खाने के लिए भागता है तो उसे लगता है कि परमात्मा रूपी मित्र भी बाहर ही मिलेगा। उसे अपने भीतर कुछ झाँकने की आदत ही नहीं है। बाहर उसकी पहुँच केवल फलदार उस वृक्ष तक ही सीमित है। उसे भगवान बाहर नहीं मिल सकता वह केवल तभी दिख सकता है जब उसके भीतर के नेत्र खुले हों।
इस मन्त्र का निष्कर्ष यह निकलता है कि जीव प्रातःकाल और साँयकाल प्रभु के सान्निध्य में बैठे। ईश्वर उसके अन्तस में सदा विद्यमान है। जीव यानी मनुष्य दिन भर अपने कार्य करता रहे अथवा शरीर रूपी फलों का रसास्वादन करता रहे। आवश्यकता पड़ने पर वह प्रभु से सहायता पाने के लिये अपने भीतर कभी भी झाँक सकता है। पर सन्ध्या समय होते ही सांसारिक कार्य कलापों को बिसराकर अपने सखा उस मालिक की शरण में अवश्य लौट आना चाहिए। इससे उसे अपने मित्र की आनन्दमयी मित्रता का सुख मिलता रहेगा। उस पर मालिक की कृपा सदा बरसती रहेगी।
यहाँ एक पक्षी का उदाहरण लेते हैं। पक्षी सारा दिन भोजन की तलाश में घूमते रहते हैं और खाते रहते हैं, परन्तु साँय होते ही वे अपने-अपने घोंसलों में लौट आते हैं। फिर प्रात: होते ही घोंसले से बाहर अपने भोजन की तलाश में बाहर निकल जाते हैं।
पक्षी की ही तरह हम भी अपने घोंसले यानी अपने घर से प्रात: निकलते हैं और शाम होते ही उसमें वापिस लौट आते हैं। यह तो हुई इस भौतिक जगत के घर की बात है। मनुष्य का वास्तविक घर प्रभु की शरण है। वहाँ जाकर वह सच्चा विश्राम पा सकता है। मनुष्य ईश्वर से जितना दूर जा रहा है, उतना ही वह कष्ट पा रहा है।
दिनभर कर्मफल का भोग करने के पश्चात आत्मा को अपने मित्र परमात्मा की शरण में आ जाना चाहिए। अपनी दिन भर में एकत्र हुई सभी चिन्ताओं को उस प्रभु से साझा करके, उनसे मुक्ति पाई जा सकती है। उस परममित्र के साथ समय व्यतीत करने पर मनुष्य जीवन में वास्तविक आनन्द को प्राप्त होता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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