मनीषी समय-समय पर हम मनुष्यों को जगाने का अपना कार्य बखूबी करते रहते हैं। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम उनके दर्शाए हुए मार्ग पर चलकर, अपने जीवन में सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं अथवा उन्हें अनदेखा करके स्वयं ही अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने का काम करते हैं। अथवा फिर समय बीत जाने पर लकीर पीटते हुए, यह कहकर पश्चाताप करते- 'समय रहते यदि हम चेत जाते तो कहाँ-से-कहाँ पहुँच जाते।'
निम्न श्लोक को ही देखिए जिसमें कवि ने बहुत सुन्दर विचार प्रस्तुत किए हैं। उनका कथन है-
उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति पातकम्।
मौनेन कलहो नास्ति जागृतस्य च न भयम्॥
अर्थात उद्यम करते रहने से कभी दरिद्रता नहीं आती तथा जप करने से पाप नहीं होता है । मौन रहने से कभी कलह नहीं होता और जागते रहने से किसी प्रकार का भय नहीं होता।
सबसे पहले इस श्लोक में परिश्रम करने पर बल दिया है। कवि का कथन है कि परिश्रमी व्यक्ति के पास दरिद्रता नहीं आती। मनुष्य यदि उद्यमी होगा तो वह अपना मनचाहा देर-सवेर प्राप्त कर लेगा। अपनी मेहनत के बलबूते पर वे समाज में अपना एक उचित मुकाम हासिल कर लेते हैं। यह भी सत्य है कि सफलता उनकी दासी बनती है जो कठोर श्रम करते हैं। ऐसे ये पराक्रमी अपने जीवन को सफल बनाते हैं। साथ ही अपने और अपनों के सपनों को पूर्ण करने की सामर्थ्य रखते हैं। इसीलिए ये अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए आदर्श बनते हैं।
इनके विपरीत हाथ पर हाथ रखकर निठल्ले बैठने वाले रेस में हार जाते हैं। वे न तो अपनी इच्छाएँ पूर्ण कर पाते हैं और न ही अपनों की आकांक्षाओं पर खरे उतर पाते हैं। इसलिए वे सारा जीवन अपनी गलतियों या कमियों का ठीकरा दूसरों के सिर पर फोड़कर, अपराधबोध से मुक्त होने का असफल प्रयास करते हैं। ऐसे लोगों को समाज में वह स्थान प्राप्त नहीं हो पाता जो वे पा सकते थे। अपने माथे पर वे नाकामयाबी का लेबल लगाए घूमते रहते हैं।
इसके बाद कवि कहता है कि ईश्वर का जप करने वाला मनुष्य पापकर्म नहीं करते। जो व्यक्ति ईश्वर का जप सच्चे मन से करते हैं, अपना सब कुछ उसे समर्पित कर देता है, वे देश, धर्म, परिवार और समाज के नियमों के विरुद्ध कोई कार्य कर ही नहीं सकते। वे हर कार्य को करते समय संयम बरतते हैं। ये सहृदय लोग हर कदम फूँक-फूँककर रखते हैं। किसी भी शर्त पर वे कुमार्गगामी नहीं बन सकते।
हाँ, ईश्वर की आराधना का ढोंग या प्रदर्शन करने वाले सत्कर्म अथवा दुष्कर्म कर सकते हैं। उन्हें किसी से भय नहीं लगता। वे स्वयं को ईश्वर से कम नहीं समझते। इसलिए उनसे कुछ भी अपेक्षित है। ऐसे लोग क्रूर, निर्दय, दूसरों को भयभीत करने वाले होते हैं। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। ऐसा लगता है कि वे कानून को भी अपनी जेब में रखते हैं। जब अपने कृत कर्मों का भुगतान करना पड़ता है तब उन्हें पश्चाताप करना पड़ता है।
हमारे शास्त्र मनुष्य को मौन रखने का सदपरामर्श देते हैं। मौन मनुष्य को आत्मसंयम रखने में सहायता करता है। इसे अपनाने वाले का आत्मिक बल बढ़ता है। मनुष्य का मौन बहुत से संकटों से उसकी रक्षा करता है। हमारे मनीषी कहते हैं-
एक चुप सौ को हराए।
इसका तात्पर्य यही है कि बहुत से झगड़े मौन रहने से टल जाते हैं। सामने वाला व्यक्ति आखिर कब तक अपना सिर फोड़ता रहेगा। इस तरह शान्ति बनी रहती है।
अन्त में कवि कहता है जागने वाले व्यक्ति को डर नहीं लगता। डरेगा तो वही जो अपने दायित्वों के प्रति सावधान नहीं रहता। जो मनुष्य सदा जागरूक रहता है, उसे जगाने की किसी को आवश्यकता नहीं होती। उसे प्रगति करने अथवा सफलता के कदम छूने से कोई नहीं रोक सकता। जब वह पिछड़ेगा ही नहीं तो वह क्यों डरेगा। वह सदा शान से अपना सिर उठाकर चलेगा।
यह श्लोक वास्तव में मनुष्य को उन्नति करने का मार्ग दर्शाता है। अब यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह इस मार्ग पर चलकर आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त कर पाता है या नहीं।
चन्द्र प्रभा सूद
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