आपस में मिल-बैठकर ही किसी समस्या का समाधान किया जा सकता है। लड़-झगड़कर मुँह फुलाकर अलग-थलग होकर बैठ जाना अथवा अपने-अपने रास्ते चल देना किसी भी समस्या का हल नहीं होता यानि कोशिश यही रहनी चाहिए कि बातचीत का रास्ता बन्द न हो।
सम्बन्धों में कितनी भी कटुता क्यों न आ जाए उनसे किनारा नहीं किया जा सकता। देर-सवेर उन्हें सुधारना ही पड़ता है। जब सब कुछ बिगड़ जाता है तब उन्हें जोड़ने पर एक गाँठ-सी पड़ जाती है। बाद में यही कहकर उन्हें भूलना होता है कि 'पुरानी बातों पर मिट्टी डालो और उन्हें भूल जाओ।' बड़े-बुजुर्ग गलत नहीं कहते। मिल-जुलकर, एक होकर रहने की शक्ति से हम सभी परिचित हैं।
समाज में, अपने आस-पड़ोस में, अपने कार्यक्षेत्र में अर्थात् हर स्थान पर यदाकदा मनमुटाव हो जाते हैं। हर व्यक्ति के विचार, उसकी सोच, उसके कार्य करने का तरीका सब अलग-अलग होते हैं। इसलिए ऐसा होना स्वाभाविक होता है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। इसका यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता कि तब उस व्यक्ति विशेष से हम शत्रुता मोल ले बैठें। समय बीतते हमारी यही कटुता पीढ़ी-दर-पीढ़ी की दुश्मनी बन जाए, जिसका अन्त सुखद कम और दुखद अधिक होता है। इससे किसी का हित नहीं साधा जा सकता है। प्राय: प्राय: व्यवहार में हम देखते हैं।
दो लोगों या समूहों में भी यदि झगड़े की स्थिति बनती है और थाने-पुलिस अथवा कोर्ट-कचहरी में जाने की नौबत आ जाती है तब भी अन्तत: समझौता ही करना पड़ता है। दोनों पक्षों को शेक हेंड करके ही मुक्ति मिलती है।
अपने घर में बच्चों के झगड़े होते ही रहते हैं। तब हम उन्हें गले मिलवाकर एक-दूसरे सॉरी कहलवा देते हैं। यानि कि उनमें समझौता हो जाता है और बच्चों के साथ-साथ हम भी खुश हो जाते हैं। उन्हें हम यही शिक्षा देते हैं कि झगड़ा मत करो, प्यार से रहो, गलती हो जाने पर माफी माँग लो और मिलकर रहो।
बच्चों को हम सीख दे देते हैं और उनका कोमल मन हमारे प्रति सम्मान के कारण उसे मान लेता है। परन्तु जब हम बड़ों की बारी आती है तो हमारा अहं आड़े आ जाता है। हम दूसरों को दी हुई अपनी ही सीख को भूलकर अखड़ या हठी बन जाते हैं। बच्चे यदि हमारी बात को अनसुनी करना चाहते हैं तो उन्हें डपटकर, हम अपनी बात मनमवाते हैं। उनके समक्ष स्वयं क्या उदाहरण रखते हैं?
घर-परिवार में होने वाले झगड़े प्राय: गलतफहमियों अथवा गलत फैसलों के कारण होते हैं। जिस प्रकार नाखूनों से माँस को अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार भाई-बन्धुवों से पूर्वाग्रह के कारण किनारा नहीं करना चाहिए। सयाने कहते हैं 'अपना मारेगा भी तो छाया में फैंकेगा।' रिश्तों के धागों को मजबूती से पकड़े रहना चाहिए, तोड़ना नहीं चाहिए। फिर जब जोड़ने का समय आता है तो एक कसक रह जाती है। कभी-कभी यह अहसास हो जाता है कि बिना किसी की खास गलती के इतने समय तक हम एक-दूसरे को दोषी मानकर कोसते रहे।
हम राजनैतिक कूटनीति पर नजर डालें तो देखते हैं कि युद्ध के बाद भी दो देशों को आखिर समझौता ही करना पड़ता है। वहाँ पर दुश्मनी के बाद भी बातचीत बन्द नहीं की जाती।
अपना व्यवहार ऐसा रखना चाहिए कि उससे किसी का अहित न हो। बातचीत का रास्ता हमेशा खुला रखना चाहिए। अपनी हठधर्मिता को त्यागकर, मिल-बैठकर, सदा ही सकारात्मक समझौते होते हैं। उनका मान रखने से सबको प्रसन्नता होती है जो अमूल्य होती है। अपनों का साथ बड़े ही भाग्यशालियों को मिलता है। इस सौभागय को दुर्भाग्य में बदलने से सबको बचना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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