हमारे भारत देश में एक ओर जहाँ नवरात्र आदि धर्मिक उत्सवों के समय कन्याओं की देवी के रूप में पूजा की जाती है, वहीं दूसरी ओर जन्म से पूर्व ही कन्या भ्रूण की हत्या का दी जाती है। बहुत दुर्भाग्य की बात है कि अपने जीवन में हम दोहरा चरित्र जीते हैं। एक तरफ उसके चरणों का प्रक्षालन करके, उसे टीका लगाकर, उसे उपहार देकर, उसे भोजन करवाकर हम स्वयं को धन्य मानते हैं और दूसरी तरफ उसी कन्या से इतनी घृणा करते हैं कि उसके जन्म पर ही पाबन्दी लगाने के लिए उद्यत हो जाते हैं। वाह रे इन्सान! कैसी है तेरी फितरत?
कुछ दिन पूर्व मुकेश नेमा जी ने ब्रिटिश मेडिकल जर्नल लैंसेट में छपी एक रिपोर्ट का हवाला अपनी पोस्ट में किया था। उसके मुताबिक हमारे धर्मपारायण, पवित्र भारत देश में 1980 से लेकर 2010 के बीच एक करोड़ 20 लाख भ्रूणों की हत्या की गई। शोध में कहा गया है, 'कन्या भ्रूण' का पता लगने के बाद ही ज्यादातर मामलों में गर्भपात किया गया है, खासकर उन परिवारों में जहाँ पहले लड़की हुई है। इसलिए यह मान लेने में कतई हर्ज नही है ये सब वो लडकियाँ थीं जो पैदा होने के पहले ही देवी मानकर विसर्जित कर दी गईं।
यह सर्वे वाकई दिल दहला देने वाला है। इस तथ्य को पढ़कर कोई भी सहृदय व्यक्ति व्यथित हो सकता है। ऐसा कुकर्म करने वाले यह क्यों नहीं सोचते कि यदि लड़कियों को जन्म से पूर्व गर्भ में ही मार दिया जाएगा और उनके जन्म का अनुपात इस प्रकार काम हो जाएगा तो सामाजिक व्यवस्था चरमरा जाएगी। लड़कों की संख्या अधिक हो जाने से और लड़कियों की संख्या कम हो जाने से, समय आने पर युवाओं को अपने जीवनसाथी का चयन करने में कठिनाई का सामना करना पड़ेगा। इससे भी बढ़कर यह सम्भावना भी हो सकती है कि कुछ युवाओं को अपने लिए जीवनसाथी मिल ही न सकें। कल्पना कीजिए उस समय की जब स्थिति ऐसी होगी।
लड़कियों के प्रति यह असंवेदनशीलता शायद इसलिए होती है कि उन्हें युवा होने पर अपने बाबुल का घर की छोड़कर पराए घर यानी ससुराल जाना होता है। बाल्यावस्था से युवावस्था तक उनकी शिक्षा की व्यवस्था करनी पड़ती है। उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए योग्य बनाया जाता है। यानी सारा समय उनके लिए धन खर्च करना पड़ता है और फिर विवाह के समय भी प्रभूत धन का व्यय होता है। यहीं तक ही नहीं सारी आयु उनके लिए खर्च करना होता है। दूसरे शाब्दों में कहें तो बेटी के बच्चों के जन्म आदि संस्कारों पर देना होता है। उसके ससुराल में होने वाले उत्सवों पर भी अपनी हैसियत से बढ़कर खर्च करना पड़ता है। हमारी संस्कृति के अनुसार उसकी मृत्यु के उपरान्त उसके क्रियाकर्म आदि संस्करों पर भी व्यय करना होता है।
इन सबसे बढ़कर हमारी अन्ध मान्यताएँ हैं जो कहती हैं कि बेटा घर का चिराग होता है, घर की शान होता है। उसे बुढ़ापे का सहारा माना जाता है। सारी धन-सम्पत्ति लेने के बाद भी क्या गारण्टी है कि वह दो जून की रोटी या क्या एक घूँट पानी भी पूछेगा? ऐसी भी एक मान्यता समाज में प्रचिलत है कि बेटा पुम नामक नरक से मुक्ति दिलाता है। इन रूढ़ियों के कारण जिन बेटियों का अनजाने में ही तिरस्कार किया जाता है, वे आमरण माता-पिता के लिए चिन्तित रहती हैं। यथासम्भव उनके सुख, आराम और भविष्य के लिए सदा प्रयत्नशील रहती हैं।
आज बेटियाँ अपने माता-पिता का मान बन रही हैं, उनकी शान बढ़ा रही हैं। उच्च पदों पर आसीन हो रही हैं। हर क्षेत्र यानी शिक्षा, राजनीति, खेल, फिल्म, विज्ञान आदि में अपने झण्डे गाड़ रही हैं। बताइए, ऐसी बेटियों की माता के गर्भ में ही हत्या करवा देना क्या जघन्य अपराध नहीं है? उन्हें भी दुनिया में आने का उतना ही अधिकार है जितना बेटों को है।सबसे प्रमुख बात यह है कि बेटियों के होने से घर में अनुशासन बना रहता है। घर में चहल-पहल रहती है। इस विषय पर हम सबको गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है। बेटियों के प्रति संवेदनशील होना समाज के लिए बहुत आवश्यक है।
चन्द्र प्रभा सूद
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