मनीषी मनुष्य को सदा ही कर्म करने की प्रेरणा देते हैं। वे यह समझाते हैं कि केवल भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ रखकर निठ्ठले बैठने वाले मनुष्य का भाग्य उससे रूठ जाता है। उस समय मनुष्य जो भी कामना करता है, वह पूर्ण नहीं हो पाती। उस व्यक्ति को उसके अपने प्रियजनों से भी अपमान सहना पड़ता है क्योंकि उसका भाग्य के भरोसे बैठना अनायास ही सबके कष्ट का कारण बन जाता है।
मनुष्य का भाग्य उसके साथ वैसा ही व्यव्हार करता है जैसा कि वह स्वयं आचरण करता है। किसी विद्वान ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में कर्म और भाग्य के इस सामञ्जस्य के विषय विश्लेषण करते हुए लिखा है -
आस्ते भग आसीनस्य ऊर्ध्वं तिष्ठति तिष्ठत:
शेते निषद्यमानस्य चरति चरतो भग:।।
अर्थात जो मनुष्य अपने कर्तव्य मार्ग में बैठा रहता है, उसका भाग्य भी बैठ जाता है। जो व्यक्ति खड़ा रहता है, उसका भाग्य भी खड़ा रहता है। जो मनुष्य सोता है, उसका भाग्य भी सो जाता है। जो व्यक्ति चलने लगता है, उसका भाग्य भी चलने लगता है। अर्थात कर्म से ही मनुष्य का भाग्य बदलता है।
यह श्लोक हमें चेतावनी देते हुए कह रहा है कि यदि मनुष्य पुरुषार्थ नहीं करेगा तो उसके लिए भाग्य फलदायी नहीं होगा। मनुष्य यदि कर्त्तव्य या कर्म करने के स्थान पर बैठ जाएगा तो भाग्य भी उसके साथ सुस्ताने लगता है। उसे भला ऐसी क्या आवश्यकता है कि वह थक-हारकर बैठने वाले के लिये भटकता फिरे। उसे जीवन की ऊँचाइयों पर लेकर जाए।
इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने कर्त्तव्य पथ पर चलने के स्थान पर खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी वहीँ स्थिर हो जाता है। भाग्य तो निरन्तर गतिशील रहता है। प्रकृति का नियम यही है मनुष्य जैसा कर्म करेगा वैसा ही फल उसे मिलेगा। यानी कृत कर्म से न अधिक और न ही कम। इसलिए सुफल प्राप्त करने के लिए कहीं पर भी रुक जाना मनुष्य के हित में नहीं हो सकता।
मनुष्य स्वयं सोता रहे और यह सोचे कि उसका भाग्य प्रबल होकर उसे सब सुफल दे देगा, तो यह उसकी भूल है। यदि वह आराम करेगा तो उसका भाग्य भी उसी के साथ सो जाएगा या आराम करने लगेगा। फिर सफलता की अपेक्षा क्योंकर की जा सकती है। यदि भाग्य सोया हुआ हो तो उसे जगाना पड़ता है। परन्तु यदि मनुष्य स्वयं सो जाएगा तो उसका भाग्य कभी भी नहीं जाग सकता।
श्लोक के अन्त में कवि मनुष्य को अपने भाग्य को फलदायी बनाने का उपाय बताता हुआ कह रहा है कि जब मनुष्य उठकर चलने लगता है, तब उसका भाग्य भी उसके साथ चलने लगता है। इसका अर्थ स्पष्ट है कि भाग्य गतिमान हो जाता है। ऐसे मनुष्य का भाग्य उदीयमान रहता है। उस समय वह अपने कर्मों का फल प्राप्त करने लगता है।
इसीलिए मनीषी कहते हैं कि मेहनत करने वालों की कभी हर नहीं होती। ईश्वर ने मनुष्य को कर्म करने के लिए इस सृष्टि में भेजा है। वह पूर्वकृत शुभकर्मों के फल को अपने भाग्य के अकाउन्ट से कब तक निकालकर खा सकता है? वे भी तो कभी समाप्त होंगे ही। अपने भविष्य के लिए भी तो शुभकर्मों का संग्रह उसे करना चाहिए। अन्यथा अपने भावी जीवनों में मनुष्य को असफलता, दरिद्रता , दुःख-परेशानियों, निराशा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिल सकेगा।
मनुष्य को सदा ही अपने कर्मों के प्रति सावधान रहना चाहिए। शुभाशुभ जैसे भी फल की कामना वह करता है, उसे उसके अनुसार ही कर्म करने चाहिए। सभी कर्मों का फल या कुफल उसे भोगना ही पड़ता है। समय रहते अशुभ कर्मों का परित्याग करके मनुष्य को शुभकर्मों की ओर प्रवृत्त हो जाना चाहिए। भाग्य और पुरुषार्थ दोनों जब कदमताल करते हुए साथ-साथ चलते हैं तभी मनुष्य सफलता के शिखर पर पहुँच सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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