शुभाशुभ दोनों प्रकार के कर्म मनुष्य अपने जीवनकाल में करता है। कुछ कर्म जानते-बूझते अपनी शेखी बघारने के लिए करता है और कुछ कर्म अनजाने में करता है। कुछ कर्म-कुकर्म वह देश, धर्म और समाज के हित के नाम पर करता है। मनुष्य जब स्वयं को स्वयंभू मानने की भूल कर बैठता है, तब अपने झूठे अहं को तृप्त करने के लिए एक के बाद एक अपराध करता जाता है। वह भूल जाता है कि उनके परिणाम का भुगतान उसे एक दिन करना ही पड़ेगा। वह दिन उसके अपने जीवन के लिए सुखद तो कदापि नहीं हो सकता।
एक दृष्टान्त लेते हैं। यदि मनुष्य का वेतन पचास हजार रुपए है। यदि उसे अपनी गाड़ी या घर की इ एम आई बीस हजार रुपए देनी है तो वेतन आने के बाद बीस हजार रुपए उसमें से निकल जाएँगे। शेष केवल तीस हजार रुपए ही बचेंगे। ऐसा ही चक्र कर्मों का भी होता है। उसमें समय-समय पर जमा-घटा होती रहती है। अपने सुकर्मों और कुकर्मों का परिणाम हर जीव को भोगना पड़ता है। जब तक वह उन्हें भोग नहीं लेता, तब तक उनसे मुक्त नहीं हो सकता।
एक बोध कथा की चर्चा हम यहाँ करते हैं। श्राद्ध-भोज के लिए किसी ब्राह्मण ने एक बकरे की बलि चढ़ाने की तैयारी आरम्भ की। उसके शिष्य बकरे को नदी में स्नान कराने ले गये। नहाने के समय बकरा एकाएक बडी जोर से हँसने लगा, फिर उसी पल दु:ख के आँसू बहाने लगा। उसके विचित्र व्यवहार से चकित होकर शिष्यों ने उसका कारण जानना चाहा तो बकरे ने कहा कि कारण वह उनके गुरु के सामने ही बताएगा।
ब्राह्मण के सामने बकरे ने यह बताया- "मैं पूर्वजन्मों में कभी एक ब्राह्मण था। एक बार मैंने एक बकरे की बलि दी थी, जिसकी सजा आज तक भुगत रहा हूँ। तब से अब तक चार सौ निन्यानवे जन्मों में मेरा गला काटा जा चुका है। अब उसका गला कटने की अन्तिम बारी है। अपने किए गए दुष्कर्म का दण्ड मुझे अन्तिम बार भुगतना है। इसलिए मैं प्रसन्न होकर हँस रहा हूँ। दु:खी होकर मैं इसलिए रोया कि अब से उस ब्राह्मण के भी सिर पाँच सौ बार काटे जाएँगे।"
ब्राह्मण ने उसकी बात को गम्भीरता से लिया और बलि की योजना स्थगित कर दिया। अपने शिष्यों से उसे पूर्ण संरक्षण की आज्ञा दी। बकरे ने ब्राह्मण से कहा- "ऐसा सम्भव नहीं है क्योंकि कोई भी संरक्षण मेरे कर्मों के विपाक को नष्ट नहीं कर सकता। कोई भी प्राणी अपने कर्मों से मुक्त नहीं हो सकता।"
शिष्यगण बकरे को लेकर यथोचित स्थान पर पहुँचाने जा रहे थे। रास्ते में किनारे पर लगे एक पेड़ की शाखा पर नरम-नरम पत्तों को देखकर ज्योंही बकरे ने अपना सिर ऊपर उठाया, तभी वज्रपात हुआ। ऊपर पहाड़ी पर स्थित एक बड़ी-सी चट्टान के कई टुकड़े छिटके। एक बड़ा-सा टुकड़ा उस बकरे के सिर पर इतनी ज़ोर से लगा कि पलक झपकते ही उसका सिर धड़ से अलग हो गया।
अपने कुसंस्कारों के कारण यदि किसी मनुष्य ने पूर्वजन्मों में या इस जन्म में कोई भी शुभाशुभ कर्म किया है तो हर उस कर्म का परिणाम उसे अवश्य ही भोगना पड़ता है। मुक्ति प्राप्त करने का केवल एक ही मार्ग है, वह है अध्यात्म का। यदि पूर्वजन्मों के कुसंस्कारों का कुफल मनुष्य को भोगना होता है तो सत्कर्मों का फल भी वह भोगता है। इस कर्मफल के चक्र से आज तक कोई नहीं बच सका। यह सर्वथा असम्भव होता है। जिन्हें हम भगवान मानते हैं, वे भी इस कर्मचक्र में उलझने से बच नहीं सके।
इसलिए जब तक आयु शेष है, शरीर स्वस्थ है, तब तक मनुष्य को आत्मोन्नति के कार्य कर लेने चाहिए। उसे यथासम्भव शुभकार्यों की ओर अग्रसर होना चाहिए। उसे यत्नपूर्वक अशुभकर्मों की ओर से अपने मन को विलग कर लेना चाहिए। मनीषियों द्वारा कथित चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त होने के लिए अपने कृत कर्मों की ओर निश्चित ही ध्यान देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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