दूसरों की कमियाँ खोजने में हम सभी लोग बहुत निपुण होते हैं। बुरे लोग तो अनायास ही हमे दिखाई दे जाती हैं। दूसरों पर टीका-टिप्पणी करना या आलोचना करने का अधिकार हम स्वतः ही ले लेते हैं। ऐसा करते समय रस ले लेकर दूसरे को अपमानित करने कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते। जो श्रोता सामने बैठता है, वह भी आनन्द से सराबोर हो जाता है। यानी श्रोता और प्रस्तोता सभी नमक-मिर्च लगाकर गॉसिप करते हुए भावविभोर होते रह्ते हैं।
दूसरों के छिद्रान्वेषण करने के स्थान पर मनुष्य को अपने अन्तस में झाँकना चाहिए। यदि वह आत्मनिरीक्षण कर सके तो वहाँ कितनी कमियाँ या बुराइयाँ हैं, तभी ज्ञात हो सकेगा। अपनी कमियों को सुधारने में मनुष्य का पूरा जीवन व्यतीत हो जाता है। अपने दोषों को दूर करने में मनुष्य जुट जाए तो उसे दूसरों की कमियों पर हंसी नहीं आएगी। वह यही चाहेगा कि उसके सभी बन्धु-बान्धव दोषों से मुक्त हो जाएँ। तब उस मनुष्य का बेड़ा पार हो सकता है।
मनीषी कहते है कि दूसरे की ओर एक अँगुली करो तो चार अँगुलियाँ अपनी ओर रहती हैं। यानी दूसरों से अधिक अपने दोष होते हैं। निम्न दोहा चेतावनी दे रहा है कि मनुष्य को बुरे लोगों को खोजने के स्थान पर स्वयं को देखना-परखना चाहिए-
बुरा जो देखने मैं चला, बुरा न मिलया कोई।
जो मन खोज अपना, मुझसे बुरा न कोई।।
अर्थात कवि का कथन है कि दूसरों के दोष ढूंढ़ने लगा तो मुझे कोई बुरा व्यक्ति मिला ही नहीं। परन्तु जब मैंने अपने अन्दर झाँककर देखा तो पता चला कि मुझसे बुरा व्यक्ति कोई ओर है ही नही।
मनुष्य सदा अपनी कमियों को अनदेखा करता रहता है। यानी अपने बारे में वह चुप्पी साध लेता है। कोई उन्हें प्रकट करे, यह उसे बिल्कुल पसन्द नहीं आता। वह व्यक्ति उसे जहर की तरह लगता है जो उसके दोषों को इंगित करके उसे दिखाए। इसलिए वह अपने दोषों का सुधार नहीं कर पाता।
निम्न श्लोक में कवि ने मनुष्य की मनोदशा का समीचीन चित्रण किया है -
परवाच्येषु निपुण: सर्वो भवति सर्वदा।
आत्मवाच्यं न जानीते जानन्नपि च मुह्मति।
अर्थात दूसरों के बारे में बोलने में सभी लोग सदा ही कुशल होते हैं परन्तु अपने बारे में वे नहीं जानते। यदि जानते भी हैं तो गलत ही जानते है।
किसी दूसरे के गुण-दोषों को परखने में हमें महारत हासिल है, परन्तु अपनी बारी आने पर हम अनजान बन जाते हैं। जानते-बूझते हम अपनी कमियों को छिपाने का असफल प्रयास करते हैं। यह तो किसी भी तरह संभव नहीं कि सारी दुनिया बुरी है और केवल हम अकेले ही दोषरहित, सर्वगुण सम्पन्न हैं। वास्तव में हम अपने बारे में गलत सोचते हैं और गलत जानकारी देते हैं। इस सोच को कदापि उचित नहीं ठहराया जा सकता।
हर मनुष्य में दोष होते है। यदि मनुष्य उनसे रहित हो जाए तो भगवान बन जाएगा। प्रत्येक मनुष्य में इतनी सहनशीलता होनी चाहिए कि वह अपने बन्धु-बान्धवों को उन कमियों के साथ स्वीकार करे, उनसे किनारा न करे। साथ ही प्रतिदिन उन्हें तिरस्कृत करके स्वयं को दूसरों की नजर में हीन बनाए।
दूसरों को सुधारने की प्रवृत्ति अच्छी है, परन्तु स्वयं को सुधारने वाला महान कहलाता है। ईश्वर को भी वही लोग पसन्द हैं जो स्वयं को अग्नि में तपाकर कुन्दन बनने का प्रयास करते हैं। दूसरों के दोषों को गिनने से अपने अन्दर वे दुर्गुण समाने लगते हैं। इसलिए आत्मोन्नति चाहने वालों को अपनी ओर ध्यान देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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