सभी माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे किसी नामी स्कूल में पढ़कर अपना जीवन संवार लें और बड़ा आदमी बन सकें। अपनी तरफ से वे हर सम्भव प्रयास भी करते हैं। स्कूल में दी जाने वाली मोटी फीस आदि का भी प्रबन्ध करते हैं। इस तथ्य को हम झुठला नहीं सकते कि पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाले सभी बच्चे होशियार नहीं हो जाते और न ही वे योग्य बन पाते हैं।
माता-पिता पैसे के बल पर लाखों रूपयों की कैपिटेशन फीस देकर अपने बच्चों का दाखिला बड़े नामी-गिरामी स्कूलों में करवा देते हैं। यह मेरे अकेले का कथन नहीं है। समाचारपत्रों, टी वी और सोशल मीडिया पर अक्सर ऐसे समाचार आते रहते हैं। किसी-किसी स्कूल, कालेज या यूनिवर्सिटी में होने वाले ऐसे दाखिलों की अनियमिताओं का वे सब पर्दाफाश करते रहते हैं।
प्रश्न यह उठता है कि क्या नामी स्कूल में पढ़ने वाले सारे बच्चे योग्य बनते हैं? क्या उन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे संस्कारी भी बन पाते हैं?
इन संस्थानों में पढ़ने वाले बच्चे भी अनुत्तीर्ण होते रहते हैं। एक कक्षा में एक या दो वर्ष भी बिताते हैं। यह उन बच्चों का हाल है जिन पर माता-पिता साल भर में लाखों रुपए खर्च कर देते हैं। स्कूल की पढ़ाई के साथ ही ट्यूशन पर भी धन को व्यय करते हैं। परन्तु फिर भी बच्चों को उत्तीर्ण नहीं करवा सकते।
इन संस्थाओं में पढ़ने वाले बहुत से बच्चे राउडी होते हैं। माता-पिता की तरह वे भी दुनिया को मुट्ठी में करने या दुनिया को देख लेने वाली प्रवृत्ति रखते हैं। छुटपन से ही उनके ये विचार उन्हें सभ्य इन्सान नहीं बनने देते।
ऐसे बच्चे संस्था के नियम-कानूनों की धज्जियाँ उड़ाने से नहीं चूकते। घर से स्कूल तो वे आते हैं पर वहाँ से बंक करके या भागकर इधर-उधर घूमने, सिनेमा देखने अथवा किसी होटल में चले जाते हैं। अपनी छोटी आयु से ही शराब और सिगरेट पीने लगते हैं। होस्टलों में तो यह होता ही रहता है। बच्चों के घर से भाग जाने तक की घटनाएँ भी यदा कदा हो जाती हैं।
कालेजों में परस्पर साथियों के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार का असर अब स्कूलों में भी पड़ने लगा है। वहाँ भी कुछ बच्चे दादागिरी करते हैं और उनका साथ देने वाले अन्य बच्चे भी यदाकदा गलत कार्य करने से बाज नहीं आते।
कुछ पैसे वालों के बच्चे झूठे अहं के कारण अपने अध्यापकों का सम्मान नहीं करते। वे समझते हैं कि हमारे सामने इनकी औकात क्या है? पर वे भूल जाते हैं कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए वे उन्हीं पर ही निर्भर हैं। वे जरा-सी बात हो जाने पर अपने अध्यापकों की हत्या की कर देते हैं। ऐसी घटनाओं की जानकारी देने के दायित्व से मीडिया चूकता नहीं है।
आज पैसे के दम पर मनमानी करने वाले इन स्कूलों में बच्चे भी गुटबाजी करते हैं और परस्पर शत्रुता निभाते रहते हैं। मौका हाथ लगने पर उनमें भीषण लड़ाइयाँ भी होती हैं। उस समय चाकू, पिस्तौल आदि निकाल लेना मामूली बात होती है।
स्कूल में कमजोर वर्ग के बच्चों के साथ प्रायः इनका व्यवहार असन्तुलित होता है। उन्हें मारना-पीटना, गाली-गलौच करना, ताने कसना तो उनका रोज का शगल होता है। बात-बात पर उन बेचारों को अपमानित करना ये लोग अपना अधिकार समझते हैं।
ऐसे नालायक बच्चे न तो स्कूल में अध्यापकों का सम्मान करते हैं और न ही घर पर अपने माता-पिता का। घर में काम करने वालों का हर बात पर अपमानित करना अपना अधिकार समझते हैं।
यह आलेख लिखने का मेरा उद्देश्य आप सबको डराना नहीं है बल्कि मात्र इतना समझाना है कि नामी स्कूलों के पीछे भागने के स्थान पर अपने बच्चों को पढ़ने के लिए उसे वहाँ भेजिए जो आपकी जेब के अनुरूप हो। पढ़ाना तो बच्चों को स्वयं ही पड़ता है। केवल स्कूली पढ़ाई पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। अपने बच्चों को योग्य और संस्कारी बनाना चाहते हैं तो स्वयं ही जिम्मा उठाइए।
चन्द्र प्रभा सूद
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