इतनी गम्भीरता मनुष्य में होनी चाहिए कि जो भी विष अथवा अमृत उसे इस संसार में रहते हुए मिल जाए उसका पान करने या आत्मसात करने का कौशल उसे आना ही चाहिए। तभी वह एक सफल और योग्य व्यक्ति बन सकता है। इसके साथ ही यह भी सत्य है कि इन्सानी स्वभाव है कि वह अपने साथ घटित होने वाली घटनाओं को कदापि विस्मृत नहीं कर सकता। चलचित्र की भाँति वे उसके मानसपटल पर चलती रहती हैं।
इस जीवन से जो भी मिले, उसे पचाने की कला सीख लेनी चाहिए। यदि मनुष्य के पास इतनी सामर्थ्य है कि उसे दो समय का भोजन सरलता से मिल सकता है तो उसके लिए उसका पाचनतन्त्र स्वस्थ होना चाहिए अन्यथा भोजन के न पच पाने से उस पर मोटापे की पर्तें चढ़ने लगती हैं। उसका सुन्दर शरीर जिस वह मान करता है, वह बेडौल होने लगता है। फिर असमय ही अनेक व्याधियाँ उसे घेरने लगती हैं।
अथक परिश्रम करने के उपरान्त जब मनुष्य के पास जब अपार धन, दौलत अथवा समृद्धि आने लगती है तब उसके व्यवहार में आने वाला परिवर्तन प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगता है। मनीषी कहते हैं कि पैसा बोलता है। इसका अर्थ यही लगाया जा सकता है कि एक-एक करके सुख-सुविधा के साधन घर में जुटाए जाने लगते हैं। जो निश्चित ही हर किसी की नजर में आते हैं।
उस समय मनुष्य का दिमाग सातवें आसमान पर होता है। अपने अतिरिक्त सभी उसे सभी लोग कीड़े-मकौड़ों की तरह दिखाई देते हैं। अपने अहं को तुष्ट करने के लिए वह अनेक उपाय करता रहता है। गुड़ पर मक्खियों की तरह स्वार्थी लोग उसके आसपास मण्डराते रहते हैं। उसका प्रशस्ति गान करते हैं। उसे महान बताकर उसका अहंकार बढ़ाते हैं।
अपना कार्य निकल जाने पर उससे किनारा कर लेते हैं। ऐसी अवहेलना उससे सहन नहीं हो पाती। उन्हें वह अपना अघोषित शत्रु मानने लगता है। यदि उसका वश चल सके तो समाज में उनका हुक्का पानी बन्द करवा दें अथवा फिर उन्हें ऐसे अन्धेरे कुएँ में धकेल दें जहाँ से वे कभी वापिस न लौट सकें।
इस बात का दुख उन्हें आजन्म ही सताता है कि अज्ञानवश उन्होंने ने स्वार्थी लोगों का पोषण किया। यदि वे अपनी इस निराशा को नियन्त्रित कर लेते हैं तो सुखी रहते हैं। इसके विपरीत अपनी मूर्खता को न पचा पाने से उनकी निराशा बढ़ती है। कभी-कभी इस प्रकार अनावश्यक तनाव से मनुष्य को अवसाद भी हो जाता है। यह वास्तव में घर-परिवार और बन्धु-बान्धवों के लिए एक चिन्ता का कारण अवश्य बन जाता है।
सौभाग्यवश जब सुख-समृद्धि, सत्ता, शक्ति आदि में से कुछ भी मनुष्य की झोली में आ जाता है तब उसे अहंकार का दामन छोड़कर सहृदयता और सरलता को अपनाना चाहिए। यद्यपि यह मार्ग कठिन है परन्तु असम्भव नहीं है। इस रास्ते पर चलता हुआ वह अपने खाते में पुण्यों या सत्कर्मों की वृद्धि करता है। सन्मार्ग से भटक जाने पर वह पापकर्मों को अपने लिए एकत्र करता चलता है।
निस्सन्देह विवेक मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र होता है। उस पर उसे आँख मूँदकर विश्वास करना चाहिए। इसके द्वारा दिए गए सद्परामर्श के अनुसार चलने से उसे कदाचित ही असफलता का मुँह देखना पड़े। हाँ, उसके बताए मार्ग को अनदेखा करके अवश्य ही वह अपने लिए संकटों को न्यौता देने का कार्य कर बैठता है।
मनुष्य को सावधान रहते हुए फूँक-फूँककर अपना प्रत्येक कदय उठाना चाहिए। किसी भी कार्य को करने से पहले उसके हर पक्ष पर विचार करना आवश्यक होता है। अन्यथा फिर पश्चाताप ही शेष बचता है। उन सब अपरिहार्य स्थितियों से बचना मनुष्य का पहला कर्त्तव्य होना चाहिए। मनुष्य अपनी मूर्खताओं के मुँह के बल गिरता है और अपनी समझदारी से वह सदा आगे ही बढ़ता जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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