मनुष्य को अपने जीवनकाल में यदि कोई भौतिक उपलब्धि हो जाती है तो वह मानो आकाश में ऊँचे उड़ने लगता है, उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते। फिर वह स्वयं को अघोषित स्वयंभू मानने लग जाता है और अपने आप को महान लोगों की श्रेणी में सम्मिलित हुआ जान लेता है, चाहे उसे कोई दूसरा पूछे या नहीं। सामने वाले सभी लोग उसे अपने से कमतर अथवा हीन प्रतीत होने लगते हैं।
मनुष्य को सदा स्मरण रखना चाहिए कि इस संसार में वह खाली हाथ आता है। इसी प्रकार दुनिया से विदा लेकर खाली हाथ ही प्रस्थान करता है। यानी इस धरा पर खून-पसीना बहाकर कमाई गई सारी धन-दौलत, गाड़ी व जमीन-जयदाद धरी रह जाती है। अपना सब कुछ यहीं छोड़कर चल पड़ता है। उसे यह देखने की मोहलत भी नहीं मिल पाती कि वह देख सके कि उसके उत्तराधिकारी उसकी धन-सम्पत्ति का सदुपयोग कर रहे हैं अथवा उसे बरबाद कर रहे हैं।
यहाँ बर्फ का दृष्टान्त देते हैं, जिसे मैंने वाट्सअप पर पढ़ा था। एक बार किसी व्यक्ति ने बर्फ से पूछा - आप इतनी ठण्डी क्यों हो?
बर्फ ने बड़ा अच्छा जवाब दिया - मेरा अतीत पानी था और मेरा भविष्य भी पानी है। फिर मैं गरमी किस बात की रखूँ?
बड़ी साधारण-सी बात है परन्तु हृदय पर बहुत गहरा वार करती है। बर्फ अपने भूत को नहीं भूली। उसे याद है कि बर्फ बनने से पहले वह पानी थी। और फिर जब पिघल जाएगी तो पुनः पानी में परिवर्तित हो जाएगी। इसलिए उसे गरमी रखने की आवश्यकता नहीं है। वह अपने स्वभाव को जल की भाँति निर्मल और प्रवाहशील बनाना चाहती है।
इसी प्रकार मनुष्य की भी स्थिति है। उसका अतीत भी खाली हाथ था एवं भविष्य भी खाली हाथ ही है। अर्थात वह इस दुनिया में खाली आया था और यहाँ से खाली हाथ विदा लेगा। उसे बर्फ की तरह शान्त और गर्वरहित होना चाहिए। फिर भी वह न जाने किस-किस बात का घमण्ड करता है?
घमण्ड करने के लिए उसने कई तर्क खोज लिए हैं। कभी उसे अपनी सफलता पर गर्व होता है तो कभी उसे अपनी बुद्धि अथवा ज्ञान पर मान होता है। अपने धन-वैभव पर वह इतराता फिरता है। अपनी सुन्दरता, अपनी शिक्षा, अपने पद का मद उसे होता है। वह योग्य व होनहार बच्चों के लिए गर्वित होता रहता है। वह अपनी शक्ति पर सदा सीना चौड़ा करके गुब्बारे की तरह उड़ता रहता है।
उसे इस सत्य को स्मरण करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती कि उसके अहंकार के ये सभी हेतु क्षणिक होते हैं। धन, सत्ता, सौन्दर्य, स्वस्थ, शक्ति आदि सदा उसका साथ नहीं निभाएँगे। समय बीतते उसे छोड़ देंगे। उस समय उसे कोई नहीं पूछता। वह निपट अकेला रह जाता है। तब वह सोचता है कि उसके साथ ऐसा अन्याय क्यों हुआ?
इतना सब हो जाने पर भी वह इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं होता कि उसने कोई गलती है। वह बस दूसरों पर दोषारोपण करके अपने झूठे अहं की तुष्टि कर लेना चाहता है। उसका वश चले तो वह सारी दुनिया को ही आग के हवाले कर दे। अपने सामने सिर उठाने वाले किसी भी व्यक्ति का सिर कुचलकर रख दे। अपने समक्ष उसे सभी अन्य लोग बौने प्रतीत होते हैं।
मनुष्य यदि संसार की क्षणभंगुरता का सदा स्मरण कर सके तो वह दूसरों पर कभी अन्याय अथवा अत्याचार नहीं कर सकता। तब उसे हर पल का हिसाब ईश्वर को देने की चिन्ता रहेगी। वह किसी के बहकावे में आकर भी कुमार्गगामी नहीं बन सकेगा। वह अपने हितार्थ स्वयं के द्वारा निर्धारित किए गए नियमों की अनुपालना, बिना बोझ समझे स्वतः ही सहर्ष करने लगेगा।
इस प्रकार ईर्ष्यारहित, निरहंकार रहकर, सद्भावना का आचरण करके मनुष्य खाली हाथ विदा लेते हुए भी इतना यश कमा जाता है कि युगों तक समाज उसे स्मरण करता है। उसके इहलोक और परलोक दोनों सुधर जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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