मनुष्य की सोच का दायरा विस्तृत होना चाहिए। मात्र विचार से कुछ नहीं हो सकता उस पर क्रियान्वयन भी करना चाहिए। छोटा अथवा बड़ा होने से कोई अन्तर नहीं पड़ता, उसकी कथनी और करनी से फर्क पड़ता है। मनुष्य के अन्तस में यदि एक दीपक सदैव प्रज्ज्वलित होता रहेगा, तभी मनुष्य का दिन शुभ होगा, जीवन सुखी रह पाएगा और उसका समय अनुकूल बन सकता है।
हम सब प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं कि सूर्यास्त के बाद यदि दीपक अथवा प्रकाश की व्यवस्था न हो सके तो समस्त विश्व में सन्नाटा छा जाएगा। चारों ओर अन्धकार का साम्राज्य छा जाएगा और सर्वत्र त्राहि त्राहि मच जाएगी। ऐसे विकट समय में यदि एक नन्हा-सा दीपक ही जला दिया जाए तब अन्धेरे से निजात पाने की समस्या को काफी हद तक सुलझाया जा सकता है।
दीपक अपना पूरा प्रयास करता है कि उसका प्रकाश अन्धेरे को चीरकर सबका पथ-प्रदर्शक बन जाए। आँधी आ जाए या तूफान, उनसे संघर्ष करता हुआ वह नन्हा दीपक टिमटिमाता रहता है। अपना प्रकाश चारों ओर प्रसारित करता है। यद्यपि वह सूर्य की भाँति शक्तिशाली नहीं है, फिर भी अपने प्रयास में वह अडिग रहता है। वह किसी से हार नहीं मानता। केवल अपने लक्ष्य के लिए डटा रहता है।
सूर्य महान व शक्तिशाली है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जा सकता कि वह अपनी मनमानी करने के लिए अब स्वतन्त्र हो गया है। उसे सबको सताने का मानो लाइसेंस मिल गया है। अपना प्रकाश फैलाने और ऊष्मा प्रदान करने के लिए उसे भी निरन्तर संघर्ष करना पड़ता है। वास्तव में इसे ही विधि का विधान कहा जा सकता है।
चमकते हुए सूर्य को कभी बादल आच्छादित कर लेते हैं तो कभी उसे ग्रहण लग जाता है। सारे संसार पर जब अन्धेरे का साम्राज्य छा जाता है तब वह कुछ समय के लिए अवश्य ही सबकी दृष्टि से ओझल भी हो जाता है। फिर भी अपने कर्त्तव्य मार्ग से वह भटकता नहीं है। बारबार अन्धकार का सीना चीरते हुए पूर्व दिशा से मुस्कुराता हुआ अपनी पूरी शक्ति को लगाकर उदित हो जाता है। ऐसे ही बादलों से आँख मिचौली का खेल खेलते हुए अचानक दृष्टि गोचर हो जाता है। इसी प्रकार ग्रहण से बेदाग निकलकर अपना दायित्व निभाता है।
यह मात्र सूर्य और दीपक के सघर्ष की कथा नहीं है अपितु सृष्टि के हर जीव की यही कहानी है। उसे हर कदम पर, हर पल संघर्ष करना ही पड़ता है। इससे बचने के लिए उन्हें कोई रास्ता नहीं मिल सकता। जीवनपर्यन्त सफलता को प्राप्त करने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता है। यदि मनुष्य हाथ पर हाथ रखकर निठल्ला बैठ जाए और अपने मंगल की कामना करे तो यह असम्भव है।
यहाँ एक बात और कहना चाहती हूँ कि सामने पड़ी परोसी हुई भोजन की थाली को देखकर किसी का पेट नहीं भर सकता। उसके लिए मनुष्य को रोटी का निवाला तोड़कर अपने मुँह में डालना ही पड़ता है। तभी वह भरपेट भोजन खाकर तृप्त हो सकता है अन्यथा उसे भूखे ही रह जाना पड़ता है। यानी रोटी कमाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, उसे पकाने के लिए भी श्रम करना पड़ता है और खाने के लिए भी मेहनत करनी पड़ती है।
तात्पर्य यही है कि जो भी सुख-समृद्धि मनुष्य अपने और अपनों के लिए पाना चाहता है, उसी के अनुपात में उसे अपने ऐशो आराम छोड़कर अथक परिश्रम करना पड़ता है। शेखचिल्ली की तरह केवल योजनाएँ बनाते रहने से कामनाएँ कभी पूर्ण नहीं हो सकतीं। हाँ, मनुष्य की जगहँसाई अवश्य होती रहती है। सभी बन्धु-बान्धव उसकी पीठ पीछे और सामने उसका उपहास करते है।
स्वयं को दीन-हीन, छोटा अथवा असमर्थ कहकर अपना शत्रु बनने के स्थान पर मनुष्य को सदा कर्मठ बनना चाहिए और अथक परिश्रम करते हुए अपने इच्छित मार्ग पर निरन्तर अग्रसर होना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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