’अगर' की बेशुमार ऐसी शक्लें हो सकती हैं क्योंकि अब तक जो कुछ हुआ है इस को हर रंग में देखा जा सकता है। 'अगर' के मैदान में ऐसे कई घोड़े दौड़ाए जा सकते हैं। मिसाल के तौर पर अगर हकीम सुक़रात इस मार-धाड़ में जो कि चार-सौ चौबीस साल क़ब्ल अज़ मसीह एथेंज़ के बाशिंदों ने मचाई थी, क़त्ल हो गया होता तो अफ़लातून और अरस्तू का नाम कभी सुनने में ना आता। यूनानी फ़लसफ़े का वजूद तक ना होता और वो सबक़ जो यूरोप की दानिशगाहों में दो हज़ार साल से पढ़ाया जा रहा है, मा'अरज़-ए-वजूद ही में ना आता... इस 'अगर' पर अगर ग़ौर किया जाये तो कितनी दिलचस्प बातों का सिलसिला शुरू हो सकता है। बीते हुए ज़माने का दो हज़ार साल लंबा थान खोल कर उस के तमाम नक़्श-ओ-निगार मिटा कर नए बेल-बूटे बनाना कम दिलचस्प नहीं... और अगर ये सोचा जाये कि अगर क़िलो-पत्रा की नाक एक इंच का आठवां हिस्सा बड़ी या छोटी होती तो क्या होता... ये 'अगर' बहुत मशहूर है और इस पर ग़ौर भी किया जा चुका है। कहते हैं कि अगर क़िलो-पत्रा की नाक एक इंच का आठवां हिस्सा बड़ी या छोटी होती तो ईसाईयों की तारीख़-ए-तमद्दुन बिलकुल मुख़्तलिफ़ होती। मुम्किन है कि बाअज़ लोग औरतों की नाक के साइज़ को इतना अहम ना समझें और किसी ख़ातून की नाक को क़ौमों की क़िस्मत तब्दील करने वाली ना मानें मगर इस बात पर फिर भी बहस हो सकती है कि अगर क़िलो-पत्रा की नाक ज़रा भर बड़ी या छोटी होती तो इस की ख़ूबसूरती में नुमायां फ़र्क़ पैदा हो जाता। अगर उस की ख़ूबसूरती में फ़र्क़ आ जाता तो वो ना जुलियस सीज़र को और ना मार्क अंतोनी को मस्हूर कर सकती, चुनांचे रोमन हिस्ट्री बिलकुल मुख़्तलिफ़ होती और... ख़ुदा जाने और क्या-क्या कुछ ना होता और क्या-क्या कुछ होता।