मैं एक ऐसा इन्सान हूँ जो ऐसे रिसालों और ऐसी किताबों में लिखता हूँ और इसलिए लिखता हूँ कि मुझे कुछ कहना होता है। मैं जो कुछ देखता हूँ, जिस नज़र और जिस ज़ाविए से देखता हूँ, वही नज़र, वही ज़ाविया मैं दूसरों के सामने पेश कर देता हूँ अगर तमाम लिखने वाले पागल थे तो आप मेरा शुमार भी उन पागलों में कर सकते हैं। ''काली शलवार'' का पस-ए-मंज़र एक वैश्या का घर है। ये घर बुए के घर की तरह हैरत-अंगेज़ नहीं। जिसके मुताल्लिक़ अजीब-ओ-ग़रीब बातें मशहूर हैं। दिल्ली में ऐसी औरतों के लिए एक मुक़ाम मुंतख़ब कर के बे-शुमार घर बनाए गए हैं। मेरी सुल्ताना ऐसे ही एक बने बनाए घर में रहती थी। उसने बुए की तरह ये घर ख़ुद नहीं बनाया था वो बुए की तरह रात को जुग्नू पकड़-पकड़ कर अपना घर रौशन नहीं करती थी। रौशनी पैदा करने के लिए बिजली मौजूद थी। और चूँकि ये बिजली मुफ़्त नहीं मिल सकती और ना रहने के लिए मकान ही किराए के बग़ैर मिल सकता है। इसलिए उसे मज़दूरी करनी पड़ती थी। वो अगर ब्याही होती तो उसे ये सब चीज़ें मुफ़्त में मिल जातीं। लेकिन वो ब्याही नहीं थी वो एक औरत थी... और जब औरत को बिजली के पैसे देने पड़े, घर का किराया अदा करना पड़े और जिसके पल्ले ख़ुदा-बख़्श सा आदमी पड़ जाए, जो ख़ुदा पर भरोसा रखे और फ़क़ीर के पीछे मारा मारा फिरे तो ज़ाहिर है कि वो ऐसी औरत नहीं होगी जो हम अपने घरों में देखते हैं।
मेरी सुल्ताना चकले की एक औरत है। उसका पेशा वही है जो चकले की औरतों का होता है। चकले की औरतों को कौन नहीं जानता। क़रीब-क़रीब हर शहर में एक चकला मौजूद है। बद-रु और मोरी को कौन नहीं जानता। हर शहर में बद-रुएं और मोरियां मौजूद हैं जो शहर की गंदगी बाहर ले जाती हैं... हम अगर अपने मरमरीं ग़ुस्लख़नों में बातें कर सकते हैं, अगर हम साबुन और लियोनिडर का ज़िक्र कर सकते हैं तो उन मोरियों और बद-रुओं का ज़िक्र क्यों नहीं कर सकते, जो हमारे बदन का मैल पीती हैं। अगर हम मंदिरों और मस्जिदों का ज़िक्र कर सकते हैं तो उन क़हबा-खानों का ज़िक्र क्यों नहीं कर सकते। जहां से लौट कर कई इन्सान मंदिरों और मस्जिदों का रुख करते हैं... अगर हम अफ़ीम, चरस, भांग और शराब के ठेकों का ज़िक्र कर सकते हैं तो उन कोठों का ज़िक्र क्यों नहीं कर सकते जहां हर क़िस्म का नशा इस्तिमाल किया जाता है।