झुंझलाते हुए,समन से बाबू बोले-
तुम्हारे काम में एक घंटा बर्बाद हो गया।
वही पास बैठी भाभी को समझानें लगे-
जगह-जगह ढूढ़नें पर बाबू मिला,
कल फिर आना,काम टला।
इतना सुन,सुमन के मुहॅ से बरबस निकल पङा-
काम का समय न बताओगें,
घंटों बर्बाद होने पर भी,कल फिर हैं जाना।
बेटी-बहु का अंतर आज समझ आया।
बात सुन,बाबूजी बगलें झांकने लगें,
अरे!नही...नहीं...,ऐसा क्यों सोचती हो?कहने लगे।
सब के बाहर जाते ही,ऑखे भर आईं,
कङवे शब्द बोलने पर ,अपने पर गुस्साई।
लेकिन सच तो कङवा होता हैं।
पालन-पोषण कर,एक एहसान किया,
विवाहोपरान्त, सबसे पल्ला झाङ लिया।
बात-बात पर एहसान दिलाते,'बेटी,बेटी होती हैं'।
उपेक्षित व्यवहार बहु का नहीं अखरता,
विरोध करना तो दूर,मुहॅ से एक शब्द नहीं निकलता।
बेटी की तरफ मां झुकती है,उसके काम को बीस नहीं समझती।
हालांकि,बहु-बेटी विवाद में,
पक्षपात कर,बेटी को दायरा जरूर याद दिला देती।
लेकिन ,पिता ऐसा क्यों नहीं करते?
'बेटियां मांओं पर नहीं होती भारी'।
मजबूरीवश,ज्यादा दिन डेरा डल जाता,
तो व्यवहार पिता का बदल जाता।
'एहसानों को याद दिला,रास्ता ससुराल का दिखलाया जाता'।
आखिर!बेटी,मां-पिता दोनों की होती,
फिर भी ,पिता इतना'रूढ़ी'क्यों होता।
बेटियां ,मां से ज्यादा पिता का ध्यान रखती,
जरा-सी उनकी तकलीफ में,भैया-भाभी से झगङती।
समय के साथ-साथ सब कुछ बदलते,
फिर भी'बहु-बेटे ही विराजमान'रहते।
दिलोंदिमाग से'पुरातन रीति'की अमिट छाप मिटती नहीं हैं,
"बहु तो 'रोटी खिलाएगी','ठिकाना'बेटी घर नही हैं"।