सूरज की प्रस्फुटित किरणों के साथ ही,
कानों में पङती खङ-खङ,बेवाक आवाजें,
ये कर्कश आवाजें किसी और की नहीं,
घर की मुखिया, नानी मां की आवाजें।
उठो भई, भोर हुई, नही तो,किसी की खैर नही।
सहमें-सहमें से बहुएं,बच्चें,अपने कामों में लग जाते ,बचाकर नजरें।
पीछे से फिर सुनाई दी,
कुंभकरण की नींद में,पैर पसारे सोने वालों,
सूरज सिर चढ़ आया,शर्म करों।
सिर-पैर उठा,तूफान एक्सप्रेस-भागती,
भागमभाग में,घूंट गरमागरम चाय का लेती जाती।
पोपलें मुहॅ से उलाहनों के फूल बरसतें,
घनघोर घटा समान,कर्कश आवाजों के बादल घुमङतें,
सब बचते बचाते,छिपते छिपाते,
डर हैं,किस पर ये बादल फटे,बिजली गिरें?
खुदा-न-खास्ता,सामने जो आ पङा,उसकी खैर नहीं।
जैसे-जैसे सूरज तपता जाता,वैसे-वैसे नानी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ता जाता।
बस अपनी ही दुनियां में मग्न,काम निपटानें में तल्लीन,
देखा को अनदेखा कर देती ,जो उलझा ,उसकी खटिया खङी कर देती।
अवसरवादिता से परे,अभी,कौई नाता नहीं,एक छङी हांकती।
नुक्ताचीनी उनकी आदत,कोताही की कौई जगह नहीं।
पूरा घर सिर चढ़ा लेती ,हालत सबकी चिकने घङें जैसी हो जाती।
कभी किसो को दुत्कारती ,तो कभी किसी को पुचकारती,
फटकारों के बीच में भी,प्यार से थपथफाती।
झिङकी में भी बात्सल्य टपकाती जाती।
फुर्सत हुई,गंगा स्नान से निवृत हुई,
भगवान पूजा बाद,पेटपूजा हुई,
फटाखे से फूटने वाले,वुथिया पुराण का अंत हुआ।
सन्नाटा-सा छा जाता ,गिरी सुई की आवाज भी आ जाती।
घोर आश्चर्य!भोर क्या था,अब क्या?
शायद,ढलती धूप के साथ,माथा भी ठंडा हो चला।
अब,गपशप,खिलखिलाहटें सुनाई देती,पर सुबह जैसा कोलाहल नहीं।
माहौल में शान्ति जरूर,परनानी का मौन अखरता।
चुप्पी का कारण पूछा,सब ठहाकामार हॅस पङे,
भई,'रिकार्डिन्ग खत्म हुई,टेपिन्ग चालू हैं'।
'नानी मां एक टेपरिकार्डर -सी,शांतसरोवर का तूफान -सी।
फिर, हरनई सुबह,नया पुराण।
अब,भोर का सन्नाटा खटकता हैं,मन 'वो कोलाहल'को तरसता हैं।
धन्य हैं!नानी मां ,जिनकी रही अनोखी दांस्तान।