घर की सुखमयी,वैभवता की ईंटें संवारती,घर की धुरी है,
धरा सी उदारशील,सृष्टि की पर्याय,सूरज की दमकती किरण हैं।
ताउम्र ढलकती ओं स में,क्षणिक सुखों को तलाशती,
जीवन के रिश्तों को सीप में छिपे मोती की तरह सहेजती,जीवन के अंतिम क्षणों में,
मुट्ठी भर सुखसुविधाओं की उम्मीद में,तिल-तिलकर नष्ट करती,
नारी तुम अतुल्यनीय,अमुल्य,करूणामयी जीवट मूर्ति हो।
स्त्री पैदा नही होती ,बना दी जाती है,
सफलता की कुंजी ,पुरूषों ने थामकर,अस्तित्वहीन जीवनयापन को मजबूर किया।
पुरूष प्रवृति पोषित होकर,वह परिधि बनी।
सांसारिक जगत में एकसाथ पर्दापण हुआ,अपनी ही जन्मदात्री को शोषक बना दिया।
मातृत्व के नाम परअधिकारविहीन कर,पराधीन बना दिया।
घर की धुरी होने पर भी,योगदान विलुप्त रहा।
घर की दीवारों में चुनकर,नजरों के कई पहरें बिठा दिए।
खुद के आंगन में,खिङकी से झांकती धूप की तरह कैद,
कालेपानी की सजा काटती,ममतामयी सजीव मूर्ति कब कठपुतली बन गयी।
दूसरों के आसरे काटती गुमनामी जिन्दगी में,क्षणिक सुख की आस में दर-व-दर दस्तक देती,
अक्षरों में'नर से भारी नारी',का जीवन अंधकारमय कैसे हो गया।
जिसने जीवन देकर तुम्हें ,जीने योग्य बनाया।वह पुरूष विरोधी नही,सृष्टि के अधूरेपन की पूरक हैं।
संवेदनि के नाम पर,स्त्री पुरूष का बंटवारा करने वालो,
नारीवाद को ढकोसला,संसद को परकटी महिलाओं की विरासत मानने वालों,
सामंजस्यता की बहस पर ढोल पीटने वालो,
सजग हो जाओ,क्रान्ति दबे पाॅव आ गई।
कल की अवला,अशक्ता, आज शक्तिस्वरूपा बनी।
अंगारों पर चलकर,अपनी पहचान बनाई।पुरूषप्रदत्त पीङा,विकराल सूनामी बनी।
वह राख का ढेर नही,छिपी चिन्गारी हैं।ऑखों में पानी नही,दहकती ज्वाला हैं।
गुलामी नियति नही,नया इतिहास लिखने वाली तलवार हैं।
अभिशाप बनी शिक्षा पर कब्जा कर,परिवर्तन की कर्णधार बनी।
आर्थिक परनिर्भरता के परो को काटकर,कर्मठ स्वावलंवी नारी बनी।
विरासत में मिली रबङसील हटाकर,प्रखर पहचान बनाई।
पुरूषोंकी अहंकारी प्रवृति को तोङकर,वैचारिक धरातल की विवेचना की।
वर्षो पुराने संघर्षो का नया पन्ना रचा।कठमुल्लावादी चक्रव्यूह तोङकर,स्वजाति को खदेङ दिया।
बनावटी जीवन शैली नकारकर,स्वस्थ समाज मेंवजूद टंकित किया।
बेटा-बेटी की पैदाईश का दंड देना नाइंसाफी हैं।आर्थिक सबलता से रूढिवादी बंधन शिथिल हो रहे।
समान काम,समान वेतन की हवा से,अधिकारो की वकालत करना सीख लिया।
दोहरा बोझ उठाकर, आर्थिक स्वायत्ता को स्वीकारा।
अशिक्षा से श्रापमुक्त होकर,महिषासुर जैसी कुरीतियों से दामन छुङा लिया।
पर्सनल इज पाॅलीटिकल को पाॅलीटिकल इज पर्सनल बनाया।
फिर भी कर्आन्ति की धारा मंद्धिम,विकास यात्रा अवरूद्ध हैं,
दल दल में कुलबुलाता दम तोङता कानून हैं।आधुनिकता के नाम पर,नुमाईस कर,
आसमान से गिरी खजूर में अटक गई।नारीवाद मनोरंजक का ठहाका बना,
महिला मताधिकार मात्र एक आभूषण हैं।
राजनीति में डमी बन आई,तादाद बङी पर सुधार नही हुआ।
जहा स्त्री दुर्दशा, पुरूष कमजोर इच्छा शक्ति का परिणाम है,वही स्त्री, स्त्री ही के खिलाफ हैं।
सफल होगा तभी प्रयास,स्वयं जाग्रत की चेतन्यता कायम करे,
अग्रसर होती नारी, दबके में छिपी नारी की साधक बने।
दुनियां पुरूषों के कदमों में नही,कदम से कदम चलने में हैं।
पुरूष के एकाधिकारवादी रबैये का भ्रमजाल हटाए,
औरत जननी हैं,मुक्ति का पिन्जरा तोङकर,खुद गढ़ना हैं।
नारी उत्थान का बीङा उठाकर,पचास फीसदी वोट बनना है।
हम बहु नही,बहुमत हैं।नारी चेतना कर्णधार हैं।
हिचक की ठंडी वर्फ पिघलाकर,संकटमोचक ढाल,नारी स्वतंत्रता का बनना है।
कर्मठ गूंज से नारी झंडा गाढ़ना हैं।।नारी का जन्म पुरूष की पसली से नही ,रीढ की हड्डी से हैं।
सजावटी गुलदस्ता या वस्तुपरक नहीं,विषयपरक बनना हैं।
कर्मठताओं से वर्जनाओं की दीवार ढहाकर,अपमान के खाने में सम्मान का ठप्पा लगाना हैं।
नक्शों पर बनी योजनाओं खो साकार कर, अस्तित्व की लकीरें खींचना हैं।
लेकिन सच यह भी हैं कि औरत,औरत को न मारे,यो कभी न हारे।