अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस, महिला सशक्तिकरण दिवस ,महिला आधिकार,महिला आर्अअक्षण यह शब्द जितने कागजों पर सकारात्मकता का प्रतीत होते दिखाई देते हैं,उतने ही व्यवहारिकता से परे हैं।इन शब्दों ने महिला समाज को अभिव्यक्ति का नवीन अवसर जरूर प्रदान किया हैं,लेकिन महिला सशक्ता की छवि दृष्टिगोचर नही हुई ।आखिर ऐसा क्यों?मानसिक संकीर्णता मेंकमी आई,महिला पुरूष समानता का प्रतिशत बढ़ने पर भी आशाजनक सुधार नही हुआ हैं।आए दिन बलात्कार,अपराध,आत्महत्या की खबरें सुर्खियों में रहती हैं।महिला दिवसों के दिन वार्षिक लेखा जोखा,उल्लेखनीय मुद्दों पर बहस,पिछङें कामों का विश्लेषण कर इतिश्री कर हाथ झाङ लेते हैं।जबकि होना यह चाहिए कि प्रत्येक महिला पुरूष, प्रत्येक दिन समाप्ति अवधि में आत्म चिन्तन कर,आपस में विचार विमरूश कर निष्कर्ष निकालना चाहिए कि हमनें,आपनें या समाज में शोणित महिला वर्ग के लिए क्या किया और क्या कर सकते थेया क्यों नही कर पाए?जब इस तरह आत्म स्वमेव मंथन करेगे,तोसकारात्मक फल साक्षात् होगा।क्योंकि आत्मीयता लग्न,निःस्वार्थ भाव से किया गया कौई भीविचार बिन्दु यूं ही नष्ट नही होगा।हमें अपने आपको स्वयं पढ़ना होगा।हालांकि हम दूसरो के विचारों,कार्यो से प्रभावित होते हैं,लेकिन यह प्रेरणात्मक स्त्रोंत चन्द मिनिट या चन्द दिनों बाद अदृश्य या विस्मृत हो जाता है।और ऐसे में सुधारात्मक प्रयास कोसो दूर छिटक जाते हैं।केवल भाषणवाजी, लेखनकार्य से ही सुधार करना संभव ही नही ,मुश्किल भी हैं।इसलिए हमें वर्जनाओं की दीवार तोङकर,एक दृढ़संकल्पित,अडिग विचार बिन्दु पर अपने आपको गढ़ना हैं।और इन राहों पर चलकर उद्धेश्यात्मक सुधार पर पहुचना हैं।तभी इन दिवसो की सही अर्थो में परिणिती होगी।एक नही,सौ नही,सभी में आत्मसुधार,आत्म चिन्तन,मंथन कर मील का पत्थर साबित होना हैं।तात्कालिक परिणामों के मद्देनजर हताश होकर मैदान छोङना नही हैं बल्कि रास्ते में आए बबूल के कांटों को हटाकर,सफलताओं का मखमली रास्ता बनाना हैं।क्योकि रीतिरिवाज गुलाब के पेङों की तरह हैं जिसमें कली रूपी अधिकार, योजनाएं दुर्विचारों को साफ करने वाली हैं तो गुलाब के चारों ओर विचारोउअं की धज्जिया उङाने वाली,मार्ग में रोढ़ा बनने वाले कांटे भी हैं।लेकिन हमें एक कुशल मालीरूपी समाजचिन्तक की तरह मखमली मार्ग निर्मित कर अग्रसर होना है।क्योकि इस रास्ते मेंकेक्टस की तरह भेदनशील दकियानूसी, रूढ़िवादी पुरातन समाज का पुरूष वर्ग हैं,जो केक्टस के फूलरूपी महिला को अपनी कांटों रूपी दवंगता से उसके सफलता के रास्तें में आकर,अस्तित्वता को दवाने में पीछे नही हटता ।जबकि पुरूष वर्ग यह नही जानता कि गुजरने वाला राहगीर उसमें छिपे फूल की ओर आकृष्ट होकर,उत्सुकता से अपनी पैनी दृष्टि से देखता है कि फूल(महिला)का जीवनयापन कैसे हो रहा हैं?कहने का तात्पर्य हैं कि फूल के बिना कांटों की अस्तित्वहीनता उसी तरह हैं-समाज में बिना स्त्री के पुरूष की वर्चस्वता नहीं।चाहे नरक लोक के महिला पुरूष हो या स्वर्ग लोक के देवी देवता।