प्रेसवाले के हिसाब करने पर,माताजी ने कहा-कपङों की संख्या से रूपए इतने हुए,लेकिन तुम तो अधिक रुपया बता रहे हों।प्रेसवाला कपङों को दिखा कर बोलता हैं-देखिए माताजी, यह पजामा घर पर पहनने वाला इसका दस रुपया,पेन्ट शर्ट का पांच रुपया,सफारी शूट का दस रुपया,कोट का पच्चीस रुपया।सबका जोङकर हुआ ना,एकदम सही हिसाब।हिसाब-किताब में एकदम पक्के हैं।अंगुलियों पर हिसाब लगाते हुए माताजी बोली-हिसाब तो एकदम बराबर हैं।लेकिन माताजी के मन ही मन एक ही सबाल कुलबुला रहा था,सो पूछ ही लिया-यह बताओं,जब सभी कपङा हैं,तो सबके दाम अलग-अलग क्यों?तपाक से प्रेसवाला बोला-इतनी सी बात आपको समझ में नही आई।समझाते हुए प्रेसवाला कहता हैं-देखिए, मैं आपके यहाॅ रोज ही आता हूं,तो मुझे पानी ही पिला देती हैं।पङोसी के आने पर चाय,रिश्तेदार के आने पर दही की मलाई वाली लस्सी या शेक या कोल्ड ड्रिन्क।जिस तरह आदमियों की इज्जत होती हैं,उसी तरह कपङों की।आया समझ।
प्रेसवाले की बात सुनकर माताजी ही क्या,मैं भी उसके तर्कसम्मत जबाव सुनकर हतप्रद रह गई।सोचने लगी,सही ही तो हैं।हम ही पे तो समाज,मित्र,पङोसी,रिश्तेदारों यहा तक की उपभोग की वस्तुओं में उनके महत्व के हिसाब से ऊॅचनीच का ददर्जा दिया जाता हैं।गिलास में पानी थोङा छूट गया कौई फर्क नही पङता।दूध दही का बर्तन धो कर पी लिया जाता हैं।माना उससे धार्मिक आस्था जुङी हुई हैं।लेकिन घी ताल के बर्तन को इतना पोंछकर खाते हैं कि भ्रम हो जाता हैं कि कही यह धुला हुआ तो नही था।साथ में अंगुली चुसकर भी साफ करते हैं।कही ऐसा तो नही दाम के आधार महत्व देते हैं।शायद हाँ।
तात्पर्य यह हैं कि सभी का अपनी-अपनी जगह महत्व हैं।किसी एक के बिना जीवनयापन निराधार हैं।