एकाअंत में बैठ ,खुद को समझा रही थी,
अपने से ज्यादा,आक्रोश भगवान पर निकाल रही थी।
तभी त्रिपाठी आंटी आते हुए बोल पङी-क्या हुआ?
शायद मन भांप ,समझाने लगी।
पुराने दिनों को याद कर,आज खराव नही करते,
अच्छे दिनों को ताकत बना,भविष्य को संवारते।
भाग्य के आगे चलती नहीं,शायद यही मंजूर था।
सुन ,मन को हुई कुछ तसल्ली,
हम जैसों में,मैं फिर भी 'भाग्य की धनी'हूॅ।
शर्मा आंटी के और आ जाने से,माहौल में हुई तब्दीली,
चाय-नाश्ते के बीच,होने लगी ठिठौली।
मन प्रफुल्लित,आपस में घूमनें-घामनें की छिङ गई चर्चा।
त्रिपाठी आंटी पूछ बैठी-अरे!मिसेज शर्मा,
जा रही थी हिलस्टेशन,उसका क्या हुआ?
मुॅह बिचकाकर,रोना गृहस्थी का कर,पल्ला झाङ लिया,
शर्मा जी से हो गयी गहमागहमी,बोलना मैने छोङ दिया।
सही बात है,कह,त्रिपाठिन ने,'घी में आग का काम किया'।
गर्वीले भाव से त्रिपाठिन बोली-
कह दिया मैने ,इनसे-आफत कुछ भी आ जाए,
फिर भी, घूमनें तो अवश्य जाऐगे।
अंदर-ही-अंदर जलभुनकर ,शर्मा सांत्वना देती,
नही गई इस बार, तो क्या हुआ?हर बार तो हैं जाती।
न जाने से ,कौन-सी जिन्दगी थम जाएगी?
टोककर,अकङकर ,त्रिपाठिन बोल पङी-क्या कहती हैं,शर्माईन-
हर बार न जाऊ, तो हाल-बेहाल हो जाऊं।
आंनदित जीवन जीने का प्रण लिया हैं,इसमें बुरा ही क्या?
शर्माईन तसल्ली मुद्रा में,ठंडी सांस ले बोली-
अपना यही दस्तूर,जितना ऐशोआराम,उतना कम,
दखलांदाजी से हो जाती हैं,'जिन्दगी नासूर'।
त्रिपाठी आंटी 'हाॅ-में-हाॅ' मिलाती,
इच्छाएं कम नही होती,समझौता नहीं कर सकती।
चर्चा सुन,मैं सोचने लगी,
'समय के साथ समझौता,नीचे को देख संतोष करना',
मुझें दे रही थी उपदेश,
खुद की बात आने पर, सब परे हो गए 'उपदेश'।
वाह!आंटी मान गए-
'पर उपदेशों,कुशल बहुतेरे।'