कल-कल करती जिन्दगी में,जैसे खुशियों को विराम लग गया,
आधुनिकता के नाम पर,छलावा,दिखावा दृष्टिपात् होने लगा।
बङी खुशियों के चक्कर में,छोटी-2खुशियों को विरामचिह्न देता,
जो मन-ही-मन नासूर बन नजर आता।
परिवर्तन होनें के बाबजूद भी,खुले दिल से जीनें में हैं सकुचाते,
अवसरों की तलाश में,तकल्लुफ उठानें का इंतजार हैं करवाते।
आज भी,हम पर लगी हुई हैं बंदिशें ,
पंख फैलाकर,खुशियां समेट ,होना चाहती हैं आंनदित।
ये नाइंसाफी हैं,दोषारोपण करने से ना चूकतें,
मर्यादाओं का ढिढोंरा पीटकर,इच्छाओं का हनन करते।
मन की ललक पूरा करने में,
नामौजूदगी में, मौकापाकर,अभिलाषाओं के पंख लगाती।
कही तो,रहन-सहन,तौर-तरीकों पर,उंगली उठाते,कहते-
यहां पर मर्याधा में रहो,बाहर कैसे भी घूमों।
उफ!!!यह कैसी भ्रमित बंदिश???
हुआ जरूर परिवर्तन,पर सोच मे बदलाव से परे,
ढर्रेवाला दृष्टिकोण, हैं समझ से परे।
ये एक छलावा हैं।
फलतः औपचारिकता वृद्धि के'कई कारक' बनें
"अवसरवादिता,अवसाद,बोझिल रिश्तों की भरमार....'
चिन्तनीय विषय हैं,प्रभावित हो रही आने वाली पीढ़ी,
संक्रमण के दौर में,कगार पर हैं सामाजिक विघटन,
सभ्यता कौई बुरी नहीं होती,बस थोङी समझ की जरूरत होती,
विस्तृत करने पर सोच,सामंजस्य नजरिया,मानवीय आधार बन जाऐ,
छोटी-सी खुशी देने में,जरूरत समझदारी की,
'ता उम्र तरसती जिन्दगीयां,कल्पनाओं के पंखों सेआंसमान छूं जांऐ।
एक कदम आप बढ़ाकर तो दिखाईये,
''निस्सार बनी मूरत में खुशियों का दामन भर जांए''!