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दबे पाँव (अध्याय 9)

16 मई 2022

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मैं संध्या के पहले ही बेतवा किनारे ढीवाले गड्ढे में जा बैठा। राइफल में पाँच कारतूस डाल लिए। कुछ नीचे रख लिए। रातभर बैठने के लिए आया था, इसलिए ओढ़ना-बिछौना गड्ढे में था।

अँधेरा हुआ ही था कि एक छोटी सी खींसोंवाला सुअर पंद्रह बीस डग की दूरी पर गड्ढे के सामने आया। मैंने राइफल दागी। अँधेरे में निशाना तो बाँध ही नहीं सकता था, गोली उसके पेट पर पड़ी। सुअर तुरंत मेरी सीध में आया। मैंने भी जल्दी जल्दी उस पर चार फायर और किए। एक तो उसके पेट पर पड़ा, बाकी छूँछे गए। सुअर बिलकुल नहीं रुका।

गड्ढा नीचे की जमीन से छह फीट की ऊँचाई पर थी। उसपर चढ़ने के लिए पथरीली सीढ़ियाँ सी थीं। यदि सुअर बुरी तरह घायल न हुआ होता तो गड्ढे में अवश्य आ जाता। वह ऊपर चढ़ने की कोशिश कर रहा था, क्रोध में मुँह फाड़ रहा था और अपने बड़े-बड़े दाँत पीस रहा था।

मैं इसके पहले एक सुअर की चोट खा चुका था। सोचा, रहे-सहे हाथ-पैर आज जाते हैं।

पहला विचार जो मन में उठा वह गड्ढे में से भाग जाने का था। गड्ढे के ऊपर बेतवा के पथरीले किनारी की खड़ी चढ़ाई थी; परंतु मैं कूद-फाँदकर उस चढ़ाई की सुरक्षित चोटी पर पहुँच सकता था। किंतु उसी क्षण इस विचार को दाब दिया। चटपट नीचे रखे कारतूस उठाए और राइफल में भरे। सुअर उस समय गड्ढे में चढ़ आने का प्रयत्न कर रहा था।

जैसे ही कारतूस नाल में पहुँचा, लिबलिबी दबी, धड़ाका हुआ और सुअर के प्रयत्न की इति हो गई। मैंने सोचा, बहुत बचे। झाँसी के दक्षिण में ललितपुर उसका खंड जिला है। सागर जिले की सीमा पर 'नारहट' गाँव है और गाँव के पीछे ऊँचा पठार एवं घना जंगल। इस जंगल में एक पुरान तालाब है। फागुन-चैत तक इसमें कुछ पानी रहता है। इस ऋतु में संध्या के समय नाहर, तेंदुआ, रीछ, सुअर इत्यादि जानवर पानी पीने के लिए संध्या से लेकर प्रातः काल तक आते रहते हैं।

तालाब के बंध के नीचे महुए के पेड़ हैं। उस समय महुओं ने अपने फूल टपकाने आरंभ कर दिए थे।

उस स्थान पर संध्या के काफी पहले मैं अपने मित्र शर्माजी के साथ अपनी छोटी सी गाड़ी से जा पहुँचा। मार्ग बहुत था। उसपर मोटर मजे में चल सकती थी।

साथ में पूड़ियाँ थीं और आलू तथा नमक-मिर्च। लकड़ियाँ इकट्ठी करके आग जलाई। आलू भूने और खा-पीकर मोटर की सीटों पर जा बैठे। ड्राइवर भी थोड़ा-बहुत शिकार खेल चुका था; परंतु बंदूकें दो ही थीं। वह मोटर में बैठा रहा, हम दोनों तालाब के किनारे गए। पानी के पास शिकारियों के खुदवाँ गड्ढे बने हुए थे। हम दोनों एक गड्ढे में बैठ गए।

सूर्यास्त नहीं हुआ था कि लगभग सौ गज के फासले पर एक सुअर आया। शर्मा जी ने बंदूक उठाई, मैंने रोक दिया। एक तो वह जरा दूर पड़ता था, दूसरे तमाशा देखने के लिए रात भर सामने थी; सूर्यास्त के पूर्व ही बंदूक का हल्ला करके क्यों जानवरों को बचकाया जावे।

उस दिन फागुन की पूर्णिमा थी। चंद्रमा अपने पूरे गौरव के साथ आकाश में आया। हमारे गड्ढे के पीछे महुए और आराम के लंबे-तगड़े पेड़ थे। उनकी छाया में हमारा गड्ढा छिपा हुआ था। पेड़ों की छाँह के बाहर चंद्रमा ने चाँदी-सी बिछा रखी थी, जो क्रमशः उजली पर उजली होती चली जा रही थी।

साढ़े सात या आठ बजे एक भारी-भरकम सुअर हमारे गड्ढे के पास से पानी पर पहुँचा। पास ही था। सहज ही मार सकते थे। परंतु प्यासे जानवर को न मारने की शिकारी परंपरा है, इसलिए उस समय राइफल नहीं चलाई।

सुअर ने पानी में पहुँचते ही पहले धप्प से एक पलोट लगाई। वह काफी देर तक लोट-लोटकर नहाता रहा। नहाकर उसने अँगड़ाई और फुरेरू ली। फिर थोड़ा ठहरकर पेट भर पानी पिया, तब जंगल के लिए लौटा।

लौटते समय वह हमारे गड्ढे से ठीक पंद्रह डग की दूरी से निकला। जैसे ही उसका शरीर आड़ में आया, मैंने राइफल दागी। सुअर तुरंत गिर पड़ा। परंतु फिर उठा और गड्ढे की ओर आने का प्रयास करने लगा। राइफलें हम दोनों की तैयार थीं; पर चलाने की जरूरत नहीं पड़ी। सुअर थोड़ी ही दूर चलकर समाप्त हो गया। हम लोगों ने गड्ढे से बाहर निकलकर दूरियों का नाप किया और फिर गड्ढे में जा बैठे।

अभी आठ बजा था। सारी रात रखी थी और इतना बड़ा जंगल आस पास था। बस्तियाँ मीलों दूर थीं। इसलिए गड्ढे में चुपचाप बैठे रहना ठीक समझा।

घंटे-डेढ़ घंटे बाद तालाब के बंध पर रीछ आए और वे तालाब के दूसरे किनारे पर पानी पीकर हमारी आँखों से ओझल हो गए। वे मोटर के आसपास घूम-घूमकर महुए बीनते खाते रहे। ड्राइवर की दम खुश्क थी। वह दबा हुआ मोटर में पड़ा रहा, हाथ में इंजन चलाने का डंडा लिए हुए। रीछों के चले जाने के बाद ही हम लोगों की मार में एक सुअर और आया। उसके मारे जाने के उपरांत एक बजे के लगभग तीसरा सुअर आया। वह घायल होकर भागा। हम लोगों ने गड्ढे से निकलकर उसका पीछा किया; परंतु सवेरे तक ढूँढ़ने के बाद हम लोग सवेरे अपने गड्ढे पर आए तो देखा, दोनों सुअर गायब।

पहले भ्रम हुआ, शायद शेर उठा ले गया हो; परंतु पास ही कुछ मनुष्यों की आहट मिला। वे सहरिए थे। उन्होंने अवसरभोगी बनकर काम किया था। सुअरों को थोड़ी दूर जा छिपाया था।

उनको जल्दी मानना पड़ा; क्योंकि बात छिपाने का बहुत कौशल गाँठ में न था। हम लोगों ने वे दोनों सुअर उन्हीं लोगों को दे दिए।

यह स्थान झाँसी से बयासी-तिरासी मील दक्षिण में है। झाँसी से सागर को जो सड़क गई है, उससे बाईं ओर। जहाँ सड़क अमझेरा की घाटी में होकर निकली है वहाँ तो जंगल का सुनसान सुहावनापन मानो मोहकता की गोद में खेलता है। सड़क के दोनों ओर घने जंगल के ऊँचे-ऊँचे मोटे पेड़ आँखें उलझाए रहते हैं। जंगल के पीछे लंबे-ऊँचे पहाड़ दृष्टि-पथ को रोक लेते हैं और अपने पीछे के स्थलों को गुदगुदी पैदा करनेवाले रहस्यों में भर देते हैं।

मैं इस बार इस स्थान पर गया हूँ; पर बार-बार जाने का मोह मन में बना रहा। एक बार तो कुछ डगों से एक शेर से बच गया था। ठीक दीवाली की रात थी। झाँसी से सीधा इस घाटी के बीचोबीच आठ बजे रात को पहुँचा। वहाँ से 'अमझेरा' नाम का नाला बहता हुआ निकला है। नाले पर पुलिया है। उस पार हनुमानजी का छोटा सा मंदिर और चबूतरेदार एक पक्की बारहदरी। किसी समय यह पुलिस की चौकी थी; उस समय खाली पड़ी थी।

इस बारहदारी के सामने चबूतरे पर हम लोगों ने अपना सामान रखा। खाना साथ में था, परंतु साग-भाजी पकाना चाहते थे। लकड़ी-कंडे बीन-बानकर आग सुलगाने का यत्न कर रहे थे कि मेरी बगल में कुछ डग के फासले पर गुरगुराहट का शब्द हुआ। मैं इस गुरगुराहट को पहचानता हूँ। सब शिकारी पहचानते हैं। तेंदुए की न थी, शेर की थी। पर वह वार किए बिना चला गया।

दूसरे दिन 'नारहट' गाँव में सुना कि दीवाली से दो दिन पहले अमझेरा घाटी में ही शेर ने एक राहगीर को सताया था।

अमझेरा घाटी झाँसी जिले के गौरवमय स्थलों में से एक है।

अमझेरा घाटी से होली की परमा को मैं घर आया और संध्या के पहले ही अपने पुराने स्थान भरतपुरा, झाँसी से बारह मील दूर बेतवा किनारे अपने मित्र शर्मा जी के साथ पहुँच गया। होली, दीवाली इत्यादि बड़े-बड़े त्योहार हम लोगों ने बरसों जंगलों में ही मनाए हैं।

हम लोग उसी गड्ढे में जा बसे, जिसमें कुछ महीने पूर्व सुअर ने मेरी मरम्मत करते करते छोड़ा था।

लगभग रात भर जागते रहे और अमझेरा घाटी के सौंदर्य एवं वैचित्र्य पर कल्पना को भटकाते रहे। न कुछ दिखलाई पड़ा और न सुनाई पड़ा। हम दोनों पहली रात के जागे थे ही, चार बजे के करीब सो गए।

साढ़े सात बजे होंगे, जब मेरी आँख यकायक खुली। देखूँ तो गड्ढे की ढी वाले किनारे की चोटी पर सुअर आ रहे हैं। पहले तो मुझको भ्रम हुआ, शायद गाँवटी सुअर हों। उसी क्षण भ्रम का निवारण हो गया। मैंने आँखें मीड़ीं। मैं गाँव में न था और न वे सुअर गाँवटी हो सकते थे।

मैं झटपट राइफल लेकर गड्ढे में बैठ गया, एक हाथ से फिर आँखें मीड़ीं। सुअर ढी के ऊपर से नीचे उतर आए थे और गड्ढे की सीध में थे। मैंने तुरंत एक पर गोली चलाई और दूसरे ही क्षण दो सुअर गड्ढे के भीतर आ गए। पहले सामने ठीक दो हाथ के फासले पर एक देखा था। उस पर राइफल उबारी। वह खिसक गया। दाहिनी तरफ आँख की तो दूसरी मेरे बिस्तरों के ऊपर ठीक एक हाथ के फासले पर।

मैं ठीक-ठाक नहीं बतला सकता कि क्या हुआ; पर हुआ यह कि मेरी राइफल उस सुअर की ओर घूम गई। उसी समय लिबलिबी पर ऊँगली की दाब पड़ी और गोली चली। सुअर के चिथड़े उड़ गए। उसका रक्त मेरे बिस्तरों में भर गया और बोटियों के टुकड़े मेरी कमीज में आ चिपटे। सुअर गड्ढे में से भागा और काफी दूर जाकर मरा। उस दिन सुअर मेरे चिथड़े-चिथड़े उड़ा सकता था। राइफल की गोली खाने के पहले और पीछे भी; परंतु मैं कैसे बच गया, यह ठीक-ठीक कभी समझ में नहीं आया।

मेरे मित्र मुझसे पहले जागकर दिशा मैदान के लिए नदी में थोड़ी दूर चले गए थे। जिस समय सुअर गड्ढे में आए, वे दातौन कर रहे थे। पहली गोली के चलने पर जैसे सुअर मेरे गड्ढे पर चढ़े, उन्होंने देख लिया था। दूसरी गोली चलने पर जैसे ही घायल सुअर भागा, वे मुझको गड्ढे की ओर दौड़ते दिखलाई पड़े। बड़ी घबराहट में थे।

मेरी बाईं टेहुनी में चोट आ गई थी। लहू निकल रहा था। परंतु वह घाव सुअर का दिया हुआ न था। भागते हुए सुअर के पीछे थोड़ा सा चलते ही फिसलकर टेहुनी के बल पत्थर पर गिरा था।

मैंने एक फुट से ज्यादा लंबाईवाली खीसें देखी हैं; परंतु कोई-कोई इसकी लंबाई दो-दो पीट तक की बतलाते हैं। कई रजवाड़ों में तो इन खीसों को चाँदी से मढ़ाकर रख लिया गया है।

खीसों की बहुत सी कहानियाँ भी बन गई हैं। एक कहानी ने तो अतिशय की सीमा ही लाँघ डाली है।

कहते हैं कि अहमदनगर की ओर पहाड़ों की घाटियों में एक बड़ा प्रचंड सुअर था। जब वह दस-बीस शिकारियों के प्राण और हथियार भी छीन चुका, तब एक छोटी सी सेना उसके मुकाबले के लिए गई। सुअर ने उस सेना का भी मँह मोड़ दिया, और शायद हथियार भी छीन लिए।

जब एक विशेष रियासत के राजा उस सुअर के मुकाबले के लिए पहुँचे, तब कहीं वह मारा जा सका। प्रमाण के लिए कहा जाता है कि उस रियासत की राजधानी में उस सुअर की लंबी खीसें चाँदी से मढ़ाई रखी हैं।

यदि इस कथन को प्रमाण का पद दे दिया जाय तो अवश्य वह सुअर छोटे से हाथी के बराबर तो होगा ही होगा।

सुअर के मारे जाने में गाँववालों की बहुत रुचि होती है। एक तो सुअर के मारे जाने से उसका एक दुश्मन कम हो जाता है, दूसरे गाँव की अधिकांश जनता उसको बड़े चाव से खाती है।

उसकी चरबी के अनेक उपयोग होते हैं। कमजोर बैलों को पिलाने से वे बलिष्ठ और तेज हो जाते हैं। बादी जोड़ों के दर्द और मूँदी चोटों पर इसका बहुत प्रयोग किया जाता है। जहाँ डॉक्टर, वैद्य और हकीम कोई भी सुलभ नहीं वहाँ इसके अनेक लाभकारी और लाभहीन उपयोग किए जाते हैं।

यदि किसी को शिकार की सनसनी को आनंद प्राप्त करना है तो सुअर के शिकार से बढ़कर मैं किसी अन्य जानवर के शिकार को नहीं समझता हूँ।

घायल हो जाने के बाद भालू, तेंदुए और शेर को मैंने बहुधा भागते हुए देखा है; परंतु सुअर को घायल होने के बाद बहुत कम भागते देखा है।

अन्य बड़े जानवरों की तौल में उसका डीलडौल छोटा होता है; परंतु उस छोटे डीलडौल में कितना बल, कितना साहस और कितना पराक्रम होता है!

तेज बहनेवाली पथरीली बेतवा में मैंने सुअर को ही तीर की तरह सीधा तैरते हुए देखा है।

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रचनाएँ
वृंदावन लाल वर्मा की रोचक कहानियाँ
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इन्हे बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये 19 साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’(1908) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति दल’(1909) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था। ये प्रेम को जीवन का सबसे आवश्यक अंग मानने के साथ जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक भी थे। इन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूंजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी। इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं।
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चंद्रमा थोड़ा ही चढ़ा था। बरगद की पेड़ की छाया में चाँदनी आँखमिचौली खेल रही थी। किरणें उन श्रमिकों की देहों पर बरगद के पत्तों से उलझती-बिदकती सी पड़ रहीं थीं। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई अधलेटा। खजु

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जब महमूद गजनवी (सन 1025-26 में) सोमनाथ का मंदिर नष्ट-भ्रष्ट करके लौटा तब उसे कच्छ से होकर जाना पड़ा। गुजरात का राजा भीमदेव उसका पीछा किए चल रहा था। ज्यों-ज्यों करके महमूद गजनवी कच्छ के पार हुआ। वह सिं

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दो सौ वर्ष के लगभग हो गए, जब पूना में रामशास्त्री नाम के एक महापुरुष थे। न महल, न नौकर-चाकर, न कोई संपत्ति। फिर भी इस युग के कितने बड़े मानव! भारतीय संस्कृति की परंपरा में जो उत्कृष्ट समझे जाते रहे है

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कुछ समय हुआ एक दिन काशी से रायकृष्ण दास और चिरगाँव से मैथिलीशरण गुप्त साथ-साथ झाँसी आए। उनको देवगढ़ की मूर्ति कला देखनी थी - और मुझको दिखलानी थी। देवगढ़ पहुँचने के लिए झाँसी-बंबई लाइन पर जालौन स्टेशन

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दबे पाँव (अध्याय 2 )

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हिंदी में कुछ-न-कुछ लिखने की लत पुरानी है। सन् 1909 में छपा हुआ मेरा एक नाटक सरकार को नापसंद आया। जब्त हो गया और मैं पुलिस के रगड़े में आया। परंतु रंगमंच पर अभिनय करने पर अभिनय करने का शौक था और नाटक

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दबे पाँव (अध्याय 3)

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चिंकारे का शिकार करछाल के शिकार से भी अधिक कष्टसाध्य है। चिंकारा बहुत ही सावधान जानवर होता है। उसे संकट का संदेह हुआ कि फुसकारी मारी और छलाँग मारकर गया। हिरन संकट से छुटकारा पाने के लिए दूर भागकर दम ल

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दबे पाँव (अध्याय 4)

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एक जगह जमकर बैठने का शिकार काफी कष्टदायक होता है। झाँखड़ या पत्थरों के चारों ओर ओट बना लेते हैं और उसके भीतर जानवरों को अगोट पर शिकारी बैठ जाते हैं-ऐसे ठौर पर, जहाँ होकर जानवर प्रायः निकलते हों। उनके

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दबे पाँव (अध्याय 5)

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हिरन वर्ग के जानवरों के लिए ढूका या ढुकाई का शिकार भी अच्छा समझा जाता है। इस शिकार में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पेट के बल रेंगते हुए भी चलना पड़ता है; पहेल ही कहा जा चुका है। कुछ लोग बंदूक के घोड़

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चीतल (स्वर्णमृग) हिरन वर्ग का पशु समझा जाता है। परंतु इसके सींग फंसेदार होते हैं। यह बहुत ही सुंदर होता है। इतना सुंदर कि कभी-कभी शिकारी इसके भयानक हानि पहुँचानेवाले कृत्यों को भूल जाता है। इसकी खाल प

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दबे पाँव (अध्याय 7)

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चीतलों के बाद मुझको पहला तेंदुआ सहज ही मिल गया। विंध्यखंड में जिसको 'तेंदुआ' कहते थे, उसकी छोटी छरेरी जाति को कहीं-कहीं 'चीता' का नाम दिया गया है। हिमाचल में शायद इसी को 'बाघ' कहते हैं। तेंदुए की खबर

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खेती को नुकसान पहुँचानेवाले जानवरों से सुअर चीतल और हिरन से कहीं आगे है। मनुष्यों के शरीर को चीरने-फाड़ने में वह तेंदुए से कम नहीं है। सुअर की खीसों से मारे जानेवालों की संख्या तेंदुए की दाढ़ों और नाख

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एक बार जाड़ों में पहाड़ की हँकाई की ठहरी। लगान लग गए। मैं पहाड़ की तली में बैठ गया और शर्मा जी चोटी पर। बीच में अन्य मित्र लगान पर लग गए। हँकाई होते ही पहले साँभर हड़बड़ाकर निकल भागे। हँकाई में पहले

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साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं। जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग मे

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एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर

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अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी। जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थ

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मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर

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दबे पाँव (अध्याय 15 )

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मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भ

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एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया। मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होक

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दबे पाँव (अध्याय 17)

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जंगली कुत्ते का मैंने शिकार तो नहीं किया है, परंतु उसको देखा है। जिन्होंने इसके कृत्यों को देखा है वे इस छोटे से जानवर के नाम पर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। रंग इसका गहरा बादामी होता है, इसलिए शायद इस

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दबे पाँव (अध्याय 18)

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भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है। भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-

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दबे पाँव (अध्याय 19)

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भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव क

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दबे पाँव (अध्याय 20)

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जंगल में शेर और तेंदुए से भी अधिक डरावने कुछ जंतु हैं - साँप, बिच्छू और पागल सियार। अजगर का तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि वह काटने के लिए आक्रमण नहीं करता है, भक्षण के लिए पास आता है; और जहाँ तक मैंने द

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दबे पाँव (अध्याय 21)

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जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं। अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का क

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दबे पाँव (अध्याय 22)

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शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले। संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं

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शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती

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लौटने पर किसी ने कहा तलवार पास रखनी चाहिए, किसी ने कहा छुरी। तलवार और छुरी का उपयोग शिकार में हो सकता है; परंतु मैं तलवार से छुरी को ज्यादा पसंद करूँगा और छुरी से भी बढ़कर लाठी को, और लाठी से बढ़कर क

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दबे पाँव (अध्याय 25)

16 मई 2022
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यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती ह

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रिहाई तलवार की धार पर

16 मई 2022
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बंदा बैरागी और उसके सात सौ सिख साथियों के कत्ल का दिन आ गया। ये सब बंदा के साथ गुरदासपुर से कैद होकर आए थे। बंदा ने स्वयं खून की होली खेली थी, इसलिए उसके मन में किसी भी प्रकार की दया की आशा या प्रार्थ

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सच्चा धर्म

16 मई 2022
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हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफी संख्या में आ बसे थे; कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम-जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इनमें भी उन्नाव दरवाजे की तरफ मेवाती और बड

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शाहजादे की अग्निपरीक्षा

16 मई 2022
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दिल्ली का बादशाह जहाँगीर सन 1605 में राजसिंहासन पर बैठा था। उसे दस-बारह साल राज करते-करते हो गए थे। जहाँगीर सूझ-बूझवाला व्यक्ति था; परंतु कभी-कभी दुष्टता का भी बरताव कर डालता था। उसमें सनक भी थी। जहा

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शेरशाह का न्याय

16 मई 2022
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वह नहा रही थी। ऋतु न गरमी की, न सर्दी की। इसलिए अपने आँगन में निश्चिंतता के साथ नहा रही थी। छोटे से घर की छोटी सी पौर के किवाड़ भीतर से बंद कर लिए थे। घर की दीवारें ऊँची नहीं थीं। घर में कोई था नहीं,

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शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी

16 मई 2022
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'इस क़ैदी को शाह के सिपुर्द कीजिये ।' अहमदशाह अब्दाली के दूत ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से युद्ध की समाप्ति पर कहा । सन् १७६१ में पानीपत के युद्ध में मराठे हार गये थे। कई सरदारों के साथ मराठों का सरद

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पहले कौन?

16 मई 2022
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मेवाड़ और मारवाड़ (जोधपुर) में परस्पर बहुत वैर बढ़ गया था। बात लगभग तीन सौ वर्ष पुरानी है। मेवाड़ की सीमा पर जोधपुर राज्य का एक गढ़ था। गढ़ खँडहर हो गया है और खँडहरों का नाम क्या! जोधपुर अपनी आन पर थ

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लुटेरे का विवेक

16 मई 2022
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बात बारहवीं शताब्दी के अंत की है। मुहम्मद साम दिल्ली का सुल्तान था और भीम द्वितीय गुजरात का राजा। भीम ने लगभग इकसठ वर्ष राज किया। वह सिद्धांत पर चलता था, जिसे सत्रहवीं शताब्दी में छत्रसाल ने यों व्यवह

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इंद्र का अचूक हथियार

16 मई 2022
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तपस्वी की साधना की जो प्रतिक्रिया हुई, उससे इंद्र का इंद्रासन डगमगाने लगा। तपस्या भंग करने के उपकरण इंद्र के हाथ में थे ही। उसने प्रयुक्त किए। तपस्वी के पास मेनका अप्सरा अपने साज-बाज के साथ जा पहुँची।

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वृंदावनलाल के जीवन के प्रेरक प्रसंग

16 मई 2022
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सच्चा इतिहास मैं लिखूँगा मनुष्य के जीवन में एकाध घटना ऐसी गुजरती है, जो संवेदनशील मन को झनझना देती है। जिस घटना ने वृंदावनलाल वर्मा के मन को झकझोरकर उन्हें इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया, वह घटना उ

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