यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती है। जिन शिकारियों को वे अपने अनुकूल समझते हैं, उनके साथ बरताव बिलकुल उलटा होता है। उनसे कहेंगे, 'ढेरों जानवर हैं, मुल्कों गाड़ियों, खीटों!'
जब शिकारी इन 'असंख्य' जानवरों की तलाश में निकलता है, तब मिलता है उसको कुछ भी नहीं। कभी-कभी ऐसा हो जाता है।
असल में जानवर कुसमय या अनुपयुक्त स्थान पर नहीं मिलते, चाहे जैसे बड़े जंगल में कोई चला जाय।
मुझको प्रतिकूल वातावरण में जाने का बहुत कम अवसर मिला है। परंतु अनुकूल ग्रामों में भी काफी निराशाएँ पल्ले पड़ी हैं। दोष गाँववालों या जानवरों का नहीं है। कई मौकों पर तो सारा दोष शिकारी या शिकारी के सहयोगियों के ही मत्थे जाना चाहिए और गया।
यही शिकारियों की गपबाजी के विषय में भी दो शब्द कहना अनुपयुक्त न होगा। जब शिकारी की गोली चूक जाती है तो बहुधा उसको मालूम हो जाता है कि निशाना खाली गया; परंतु वह प्रायः कहता यही है - जानवर को लग गई, घायल भाग गया है। जब जानवर के घायल होने चिह्न चाक ढूँढ़ा जाता है तब जंगल में उसका कुछ पता नहीं लगता। निस्संदेह कभी-कभी घायल जानवर के शरीर से बिलकुल रक्त नहीं निकलता, परंतु सभी खाली निशानों के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता।
शायद शिकारी योजना बनाकर झूठ नहीं कहता। आत्मगौरव या गर्व उसके अचेतन मन में झूठ बोलने के लिए पहले से ही जगह बनाए रहता है। ऐसा निशाना खाली जाने पर, जो जानवर के बिलकुल नजदीक से चूका हो, तुरंत ही शिकारी के मन में एक धारणा उत्पन्न करता - 'निशाना लग गया होगा', 'निशाना लगने का शब्द तो हुआ था।' परंतु जब थोडी देर में उसको विश्वास हो जाता है, चूक हुई है तब भी वह सच्ची बात नहीं बतलाता।
अधिकांश शिकारियों को मैंने क्रोधी नहीं पाया। परंतु जब हँकाई में कोई जानवर न मिलता तब भरतपुरावेल मेरे मित्र बहुत खिसिया जाते थे। हँकैयों को डाँटते या किसी न किसी को फटकारते।
उन्होंने ने छुटपन में बहुत कुश्ती कसरत की थी - इतनी कि वे जिले के नामी पहलवानों में थे। परंतु बहुत दिनों से व्यायाम छोड़ देने के कारण स्थूल हो गए थे और अधिक दौड़धूप में उनको हाँफ आ जाती थी, इसलिए जब शिकार में उनको कुछ न मिलता तो मेहनत आँस जाती थी।
एक बार जब क्रोध खर्च करने के लिए उनको सामने कोई न मिला, तब मकान के सामने एक चारपाई पर लेट गए। आस पास कुत्ते थे ही, उन्होंने अपने क्रोध और गालियों के खजाने को कुत्तों पर लेटे लेटे ही बरसा डाला।
हमारी भाषा में गालियों की यों भी कोई कमी नहीं है; उन्होंने नई-नई भी अनेक बनाई, जो कुत्तों की कई पीढ़ियों को ही अपने चक्कर में घसीट नहीं लाईं। बल्कि उनके कल्पित या वास्तविक मालिकों के पुरखों और सगोत्रजों तक को अपनी कठोर कृपा से वंचित न रख सकीं।
मेरे ये मित्र निरामिषभोजी थे, परंतु शिकार के व्यसनी। ऐसे भी लोगों का संग हुआ है, जिन्होंने कभी शिकार नहीं खेला।
एक बार मेरे एक जैन मित्र मेरे साथ घूमने के लिए गए। उनका विचार शिकार खेलने का न था और न इस प्रयोजन से मैंने अपने साथ उनको लिया ही था। कुछ हिरन देखकर उन्होंने कहा, 'इनका मारना अनुचित है। ये किसी को हानि नहीं पहुँचाते।'
मुझको बहस नहीं करनी चाहिए थी; क्योंकि जो लोग प्रत्येक प्रकार की हिंसा से दूर रहना चाहते हैं, उनको शिकार वृत्ति में उपनीत करने का मेरा या किसी भी शिकारी का काम नहीं है। मुझको चुप देखकर वे स्वयं कहने लगे, 'परंतु यदि तंदुआ या शेर मिले तो अवश्य बंदूक चलाऊँ।'
मुझको भी कुछ कहना पड़ा, 'क्यों? तेंदुए या शेर ने आपका क्या ले लिया है?'
उत्तर मिला - 'ये हिंस्र पशु हैं। इनको मारने में मन को कोई बाधा प्रतीत नहीं होती।'
मुझको किसी पक्ष के समर्थन करने का आग्रह नहीं था, तो भी मेरे मुँह से निकल पड़ा - 'हाँ, ये हिरनों को खाते हैं और हिरन मनुष्यों की खेती को खाते हैं।'
एक दूसरे जैन मित्र ने तेंदुए का शिकार खेल ही डाला। मचान पर बैठने के पाव घंटे बाद तेंदुआ आया। उनको बंदूक चलाने का अभ्यास बहुत कम था। चलाई, परंतु खाली गई। तेंदुआ भाग गया।
कुछ लोगों को अपने शिकार के स्मारकों से घर भरने का बड़ा शौक होता है। यदि इनके लिए कुछ अपना भी खून बहाया गया तो उन स्मारकों में खेल की कुछ छलछलाहट मिलेगी; परंतु यदि वे शिकार के सहयोगियों के रक्त में सने हुए हैं, तो मन में ग्लानि उत्पन्न होती है।
झाँसी के पड़ोस में ही एक रियासत के राजा शिकार के बहुत व्यसनी हैं। शेर तो उन्होंने इतने मारे हैं कि अपने महल के एक बड़े कमरे में उसी की खालें फर्श और दीवारों पर हैं। मुझे आश्चर्य था कि छत को क्यों खाली से नहीं मढ़ा गया है!
इनका शिकार अधिकतर हँकाई का होता है। इनकी मचान के पास से शेर को हाँकने का प्रयत्न किया जाता है। फिर शेर का मारा जाना हाथ की सफाई और बंदूक की शक्ति पर निर्भर है। उनके एक हाँके में शेर निकला और गोली से घायल होकर जंगल में घुस गया। राजा के एक जागीरदार को घायल शेर की खोज के लिए जाना पड़ा। शेर काफी घायल हो गया था, परंतु उसमें बदला लेने के लिए अभी बल बाकी था।
घायल शेर जागीरदार पर टूट पड़ा। उसने अपनी झपट से उनका कंधा फाड़ दिया और एक आँख को खरोंच डाला। वे नीचे पड़ गए और शेर ऊपर हो गया। वह उनको तुरंत खत्म कर देता, परंतु पास ही एक शिकारी और था। उसने बिलकुल पास आकर ऐसे अंदाज के साथ गोली चलाई कि नीचे पड़े हुए जागीरदार बच जाएँ और शेर मारा जाए। ऐसा ही हुआ।
कंधे और आँख के इलाज में महीनों लग गए; परंतु वे बच गए। जिस आँख को शेर ने खरोंचा था उस आँख से उनको दिखलाई तो पड़ा, परंतु उसका स्थान बदल गया। यह घटना एक मित्र की आँख की देखी है।
इन्हीं की एक आँख देखी घटना और है, परंतु उसका अंत भंयकर हुआ।
एक बड़े शिकारी हाँके के शिकार में बिना मचान के शिकार खेलने लगे। वे शेर की दाब में आ गए। चित गिर पड़े। शेर ने दोनों पंजे उनकी कमर के ऊपरी भाग पर रखे और उनके मुँह के पास हुंकार भरी और छोड़कर चला गया। इतनी ही दबोच के कारण उनका फेफड़ा फट गया और मुँह, आँखों तथा नाक से खून आ गया। थोड़ी देर बाद उनका देहांत हो गया।
मैं भी हँकाई के शिकार में शेर के लिए कई बार धरती पर ही खड़ा रहा हूँ। परंतु शेर ऐसी स्थिति में कभी नहीं मिला। मैं मन में अवश्य यह मानता रहा हूँ कि शेर न निकले तो बहुत अच्छा, पर निकलता तो शायद बंदूक चलाता - फिर जो कुछ होता।
जानवरों की खाल या सिर को स्मरण के हेतु रक्षित रखने के लिए खाल को साफ करवाकर धरती पर फैला देना चाहिए। खाल सिकुड़ने न पावे, इसके लिए उसके सिरों पर छोटी-छोटी खूँटियों का गाड़ देना अच्छा है। फिर बारीक पिसा हुआ नमक मलकर खाल को सूखा लिया जाय। कुछ लोग फिटकरी काम में लाते हैं। परंतु गाँवों में हर जगह फिटकरी प्राप्त नहीं होती। नमक सुलभ है और अच्छा भी है।
इसके बाद खाल को किसी कारीगर के हाथ में दे देना ठीक होगा। इस प्रकार की कारीगरी करनेवाली कई कंपनियों बंबई, मद्रास इत्यादि में हैं; परंतु बड़े खर्च का नखरा राजा-रईसों के लिए है।
जिस महल के कमरे की सजावट का ऊपर वर्णन किया गया है, उसमें एक लाख रुपये से अधिक खर्च हो गया होगा। उस कमरे में घुसते ही सौंदर्य कम और बीभत्स अधिक दिखलाई पड़ता है।
समाप्त