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शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी

16 मई 2022

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'इस क़ैदी को शाह के सिपुर्द कीजिये ।'

अहमदशाह अब्दाली के दूत ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से युद्ध की समाप्ति पर कहा ।

सन् १७६१ में पानीपत के युद्ध में मराठे हार गये थे। कई सरदारों के साथ मराठों का सरदार इब्राहिम गार्दी भी पकड़ लिया गया। वह अन्त तक लड़ता रहा था और घायल हो जाने के कारण पकड़ लिया गया था। घायल इब्राहिम गार्दी को नवाब शुजाउद्दौला के टोले में, जो अफ़गान शाह अहमदशाह अब्दाली की छावनी के भीतर ही था, पकड़ कर रख लिया गया। अवध का नवाब घायल सरदार का वध नहीं करना चाहता था, परन्तु अहमदशाह के रुहेले सलाहकारों और स्वयं अहमदशाह को इब्राहिमख़ाँ के नाम से घृणा थी। वह अकस्मात् शुजाउद्दौला के सिपाहियों के हाथ पड़ गया था। अहमद शाह को इब्राहिम के पकड़े जाने और शुजा के टोले में होने का समाचार मिल गया । इसलिये उसने इब्राहिम को अपने सामने पेश किये जाने के लिये शुजा के पास दूत भेजा।

शुजाउद्दौला इब्राहिम की उपस्थिति से इनकार न कर सका। उसने अनुरोध किया, 'इब्राहिमखाँ काफ़ी घायल हो गया है। अच्छा हो जाने पर पेश कर दूंगा।'

दूत ने अपने शाह का हठ प्रकट किया,-'उसको हर हालत में इसी पल जाना होगा।'

शुजा का प्रतिवाद क्षीण पड़ गया। फिर भी उसने कहा, 'सोचिये इब्राहिम मराठों के दस हजार सिपाहियों का सालार था। घायल हुआ । अब कैद में है। कम से कम इस वक्त तो नहीं बुलाया जाना चाहिये ।

दूत ने नहीं माना । उसको अहमदशाह अब्दाली का स्पष्ट आदेश था। शुजाउद्दौला को उस आदेश का पालन करना पड़ा।

मराठों के प्रधान सेननायक सदाशिवराव भाऊ का सिर कट कर पहले ही आ चुका था। वह भी नितान्त घायल अवस्था में ही अब्दाली के सिपाहियों के हाथ लग सका था। बालाजी बाजीराव पेशवा का पुत्र विश्वासराव भी पानीपत की लड़ाई में उसी दिन मारा गया था। संध्या के पूर्व ही उसका सिर भी कटकर आ गया।

विश्वासराव का सौन्दर्य मृत्यु के सिर पर भी खेल रहा था। अध मुंदी आँखें, स्वाभाविक अर्थ विस्फोत मुस्कान-मानो यमराज को भी मुग्ध कर लेने की ठान रही हों। उसके अनिर्वचनीय रूप की महिमा को सुनकर रक्त में सने हुये अनेक अफ़गान सरदार और सिपाही ठट के ठट बाँधकर जमा हो गये। उन्होंने अपने डेरों के सामने लड़ाई में मारे गये हिन्दुस्थानी सिपाहियों के मुण्डों के ढेर लगा रखे थे जिनके समक्ष ये नाचकूद कर जशन मना रहे थे। विश्वासराव का सौन्दर्य हिन्दुस्थान भर में विख्यात था। उसके कटे हुये सिर को देखने के लिये वे उस जशन को छोड़कर दौड़े आये। 'क्या मनुष्य इतना सुन्दर हो सकता है। उनकी बर्बरता बारबार प्रश्न कर रही थी।


वे चिल्ला उठे,-'हम हिन्दुओं के शाह को काबुल ले जायेंगे। इसकी लाश को हमेशा तेल में रखेंगे। उनके बढ़ते हुये हठ को देखकर अब्दाली के रुहेले सलाहकार ने अनुरोध किया, 'हटाइये इसको; फिकवा दीजिये कहीं।'

उसने यही सम्मति सदाशिवराव के शव के लिये भी पेश की। अहमदशाह ने मान लिया ।

इसके बाद अहमदशाह के सामने इब्राहिम गार्गी लाया गया। अहमदशाह ने पूछा-'तुम मराठों की दस पल्टनों के जनरल थे ?' उसने उत्तर दिया--'ज़रूर था ।'

'पहले तुम फ्रांसीसियों के नौकर थे ?'

'था, तभी तो गार्दी कहलाता हूं।'

'फिर हैदराबाद के निज़ाम के यहां नौकर हुये ?'

'सही है।'

'तुमने निज़ाम की नौकरी क्यों छोड़ दी?'

'क्योंकि निज़ाम के रवैये को मैंने अपने उसूल के खिलाफ पाया।' 'तुम्हारे उसूल ! तुमने फिरंगी ज़बान भी पढ़ी है ?'

'जी हां।'

'मुसलमान होकर फिरंगी ज़बान पढ़ी! फिर मराठों की नौकरी की!! खैर । अब जो कुछ तुमने किया उस पर तुमको तोबा करनी चाहिये । तुमको शर्म आनी चाहिये।


घावों की परवाह न करते हुये इब्राहिम बोला-'तोबा और शर्म ? आप क्या कहते हैं अफगान शाह ? आपके देश में अपने मुल्क की मुहब्बत और खून देने वालों को क्या तोबा करनी पड़ती है ? और, क्या उसके लिये सिर नीचा करना पड़ता है।'

'तुम जानते हो कि किसके सामने हो ? किससे बातें कर रहे हो ?' अहमदशाह ने तेज़ होकर कहा।

'जानता हूं। और, नहीं भी जानता हूँगा तो जान जाऊँगा। पर यह यकीन है कि आप खुदा के फरिश्ते नहीं हैं ।'

मैं इतनी बड़ी फतह के बाद गुस्से को नहीं आने देना चाहता । ताज्जुब है, मुसलमान होकर तुमने जिन्दगी को इस तरह बिगाड़ा!'

'तब आप यह जानते ही नहीं कि मुसलमान कहते किसको हैं । जो अपने मुल्क के साथ घात करे, जो अपने मुल्क को बरबाद करने वाले परदेसियों का साथ दे, वह मुसलमान नहीं।'

'मुझको मालूम हुआ है, तुम फिरंगियों के कायल रहे हो। उनकी शागिर्दी में ही तुमने यह सब सीखा है। क्या तुम नमाज़ पढ़ते हो ?'

'हमेशा; पांचों वक्त ।'

अहमदशाह के चेहरे पर व्यंग भरी मुस्कराहट आई और आँखों में वध की क्रूरता । बोला, 'फिरंगी या मराठी ज़बान में नमाज़ पढ़ते होगे ! खुदा को राम कहते होगे !'

इब्राहिम ने घावों की पीड़ा दबाते हुये कहा, 'क्या खुदा अरबी, फारसी या पश्तो ज़बानों को ही समझता है ? क्या वह मराठी या फ्रांसीसी को नहीं जानता ? क्या राम खुदा नहीं है और क्या खुदा राम नहीं है ?'

अहमदशाह अब्दाली की नाक में नासूर था। उसमें से फुफकार निकल पड़ी।

बोला, 'क्यों कुफ्र बकता है ? तोबा कर; नहीं तो टुकड़े-टुकड़े कर दिये जायेंगे।'

'मेरे इस तन के टुकड़े हो जाने से रूह के टुकड़े तो होंगे नहीं।' इब्राहिम ने दृढ़ स्वर में कहा ।


घायल इब्राहिम के ठंडे स्वर से अहमदशाह की क्रूरता कुण्ठित हुई । एक क्षण सोचने के बाद बोला, 'अच्छा, हम तुमको तोबा करने के लिये वक्त देते हैं । तोबा कर लो तो हम तुमको छोड़ देंगे। अपनी फौज में अच्छी नौकरी भी देंगे। तुम फिरंगी तरीके पर हमारी फौज के कुछ दस्ते तैयार करो।'

कराह को दबाये हुये इब्राहिम के ओठों पर एक रीनी-झीनी हँसी आ गई। इब्राहिम अहमदशाह के उस खिलवाड़ को समाप्त करना चाहता था।

उसने कहा, 'अगर छूट पाऊँ तो पूना में ही फिर पल्टने तैयार करूं और फिर इसी पानीपत के मैदान में उन अरमानों को निकालू जिनको निकाल नहीं पाया और जो मेरे कलेजे में धधक रहे हैं।'

'अब समझ में आ गया-तुम असल में बुतपरस्त हो।'

'ज़रूर हूँ, लेकिन मैं ऐसी बुत को पूजता हूँ जो दिल में बसी हुई है और ख्याल में मीठी है। जिन बुतों को बहुत से हिन्दू पूजते हैं और आप लोग भी, मैं उनको नहीं पूजता।'

'हम लोग भी ! खबरदार !'

'हां, आप लोग भी। मरे हुये सिपाहियों के सिरों के ढेर जो हर तम्बू के सामने लगाये गये हैं और जिन के सामने आप के पठान और रुहेले सिपाही नाच नाचकर जशन मना रहे हैं, वह सब क्या है ? क्या यह बुतपरस्ती नहीं ? हिन्दुओं की और आप लोगों की बुतपरस्ती में सिर्फ इतना ही फर्क है कि जिन बुतों को वे पूजते हैं उनसे खून नहीं बहता और न बदबू आती है।'

'हूं ! तुम बहुत बदज़बान हो!' तुम्हारा भी वही हाल किया जायगा जो तुम्हारे सदाशिवराव भाऊ का हुआ है।'

पीड़ित, चकित, इब्राहिम के मुंहसे निकल पड़ा,-'क्यों । उनका क्या हुआ।'

उत्तर मिला,-'मार दिया गया, सिर काट लिया गया।'

'ओफ़!' घायल इब्राहिम ने दोनों हाथों से सिर थाम कर कहा।

अब्दाली को उसकी पीड़ा रुची । बोला, 'और तुम लोगों का वह खूबसूरत छोकरा विश्वासराव भी मारा गया।'

इब्राहिम की बुझती हुई आँखों के सामने और भी अंधेरा छा गया। उसने कम्पित, कुपित स्वरमें कहा, 'विश्वासराव ! विश्वासराव!! मेरे मुल्क का नाज़ !!! मेरे सिपाहियों के हौसले का ताज !!! ओफ़' इब्राहिम गिर पड़ा!

अहमदशाह उस के तड़पने पर प्रसन्न था। उसकी निर्ममता ने सोचा, शहीद को जीत लिया । इब्राहिम ज़रा सा उठकर भरभराते हुये स्वर में बोला, 'पानी!'

अब्दाली कड़का,-'पहले तोबा कर ।'

जहाँ के तहाँ पड़कर इब्राहिम ने कहा, 'तोबा ! शहीद कहीं तोबा करता है ? तोबा करें वे लोग जो कैदियों, घायलों और निहत्थों का कतल करते हैं।'

अब्दाली से नहीं सहा गया ! इब्राहिम भी नहीं सह पा रहा था। अब्दाली ने उसके टुकड़े टुकड़े करके वध करने की आज्ञा दी।

एक अंग कटने पर इब्राहिम की चीख में से निकला, 'मेरे ईमान पर पहली नियाज़ ।' दूसरे पर क्षीण चीख में से,-'हम हिन्दू मुसल मानों की मिट्टी से ऐसे सूरमा पैदा होंगे जो वहशियों और जालिमों का नाम निशान मिटा देंगे।'

फिर अन्त में मराठों के ब्रिगेडियर जनरल इब्राहिमख़ाँ गार्दी के मुंह से केवल एक शब्द निकला-'अल्लाह!' जिसको फरिश्तों ने पंखों और इतिहास के पन्नों ने सावधानी के साथ अपने आँसुओं में छिपा लिया।

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रचनाएँ
वृंदावन लाल वर्मा की रोचक कहानियाँ
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इन्हे बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये 19 साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’(1908) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति दल’(1909) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था। ये प्रेम को जीवन का सबसे आवश्यक अंग मानने के साथ जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक भी थे। इन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूंजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी। इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं।
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खजुराहो की दो मूर्तियाँ

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चंद्रमा थोड़ा ही चढ़ा था। बरगद की पेड़ की छाया में चाँदनी आँखमिचौली खेल रही थी। किरणें उन श्रमिकों की देहों पर बरगद के पत्तों से उलझती-बिदकती सी पड़ रहीं थीं। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई अधलेटा। खजु

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थोड़ी दूर और

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जब महमूद गजनवी (सन 1025-26 में) सोमनाथ का मंदिर नष्ट-भ्रष्ट करके लौटा तब उसे कच्छ से होकर जाना पड़ा। गुजरात का राजा भीमदेव उसका पीछा किए चल रहा था। ज्यों-ज्यों करके महमूद गजनवी कच्छ के पार हुआ। वह सिं

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रक्षा

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मुहम्मदशाह औरंगजेब का परपोता और बहादुरशाह का पोता था। 1719 में सितंबर में गद्दी पर बैठा था। सवाई राजा जयसिंह के प्रयत्न पर मुहम्मदशाह ने गद्दी पर बैठने के छह वर्ष बाद जजिया मनसूख कर दिया। निजाम वजीर ह

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रामशास्त्री की निस्पृहता

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दो सौ वर्ष के लगभग हो गए, जब पूना में रामशास्त्री नाम के एक महापुरुष थे। न महल, न नौकर-चाकर, न कोई संपत्ति। फिर भी इस युग के कितने बड़े मानव! भारतीय संस्कृति की परंपरा में जो उत्कृष्ट समझे जाते रहे है

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दबे पाँव (अध्याय 1)

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कुछ समय हुआ एक दिन काशी से रायकृष्ण दास और चिरगाँव से मैथिलीशरण गुप्त साथ-साथ झाँसी आए। उनको देवगढ़ की मूर्ति कला देखनी थी - और मुझको दिखलानी थी। देवगढ़ पहुँचने के लिए झाँसी-बंबई लाइन पर जालौन स्टेशन

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दबे पाँव (अध्याय 2 )

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हिंदी में कुछ-न-कुछ लिखने की लत पुरानी है। सन् 1909 में छपा हुआ मेरा एक नाटक सरकार को नापसंद आया। जब्त हो गया और मैं पुलिस के रगड़े में आया। परंतु रंगमंच पर अभिनय करने पर अभिनय करने का शौक था और नाटक

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दबे पाँव (अध्याय 3)

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चिंकारे का शिकार करछाल के शिकार से भी अधिक कष्टसाध्य है। चिंकारा बहुत ही सावधान जानवर होता है। उसे संकट का संदेह हुआ कि फुसकारी मारी और छलाँग मारकर गया। हिरन संकट से छुटकारा पाने के लिए दूर भागकर दम ल

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दबे पाँव (अध्याय 4)

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एक जगह जमकर बैठने का शिकार काफी कष्टदायक होता है। झाँखड़ या पत्थरों के चारों ओर ओट बना लेते हैं और उसके भीतर जानवरों को अगोट पर शिकारी बैठ जाते हैं-ऐसे ठौर पर, जहाँ होकर जानवर प्रायः निकलते हों। उनके

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दबे पाँव (अध्याय 5)

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हिरन वर्ग के जानवरों के लिए ढूका या ढुकाई का शिकार भी अच्छा समझा जाता है। इस शिकार में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पेट के बल रेंगते हुए भी चलना पड़ता है; पहेल ही कहा जा चुका है। कुछ लोग बंदूक के घोड़

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चीतल (स्वर्णमृग) हिरन वर्ग का पशु समझा जाता है। परंतु इसके सींग फंसेदार होते हैं। यह बहुत ही सुंदर होता है। इतना सुंदर कि कभी-कभी शिकारी इसके भयानक हानि पहुँचानेवाले कृत्यों को भूल जाता है। इसकी खाल प

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दबे पाँव (अध्याय 7)

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चीतलों के बाद मुझको पहला तेंदुआ सहज ही मिल गया। विंध्यखंड में जिसको 'तेंदुआ' कहते थे, उसकी छोटी छरेरी जाति को कहीं-कहीं 'चीता' का नाम दिया गया है। हिमाचल में शायद इसी को 'बाघ' कहते हैं। तेंदुए की खबर

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खेती को नुकसान पहुँचानेवाले जानवरों से सुअर चीतल और हिरन से कहीं आगे है। मनुष्यों के शरीर को चीरने-फाड़ने में वह तेंदुए से कम नहीं है। सुअर की खीसों से मारे जानेवालों की संख्या तेंदुए की दाढ़ों और नाख

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मैं संध्या के पहले ही बेतवा किनारे ढीवाले गड्ढे में जा बैठा। राइफल में पाँच कारतूस डाल लिए। कुछ नीचे रख लिए। रातभर बैठने के लिए आया था, इसलिए ओढ़ना-बिछौना गड्ढे में था। अँधेरा हुआ ही था कि एक छोटी सी

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एक बार जाड़ों में पहाड़ की हँकाई की ठहरी। लगान लग गए। मैं पहाड़ की तली में बैठ गया और शर्मा जी चोटी पर। बीच में अन्य मित्र लगान पर लग गए। हँकाई होते ही पहले साँभर हड़बड़ाकर निकल भागे। हँकाई में पहले

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साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं। जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग मे

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एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर

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दबे पाँव (अध्याय 13)

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अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी। जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थ

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मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर

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दबे पाँव (अध्याय 15 )

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मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भ

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दबे पाँव (अध्याय 16)

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एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया। मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होक

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दबे पाँव (अध्याय 17)

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जंगली कुत्ते का मैंने शिकार तो नहीं किया है, परंतु उसको देखा है। जिन्होंने इसके कृत्यों को देखा है वे इस छोटे से जानवर के नाम पर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। रंग इसका गहरा बादामी होता है, इसलिए शायद इस

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दबे पाँव (अध्याय 18)

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भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है। भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-

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दबे पाँव (अध्याय 19)

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भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव क

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दबे पाँव (अध्याय 20)

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जंगल में शेर और तेंदुए से भी अधिक डरावने कुछ जंतु हैं - साँप, बिच्छू और पागल सियार। अजगर का तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि वह काटने के लिए आक्रमण नहीं करता है, भक्षण के लिए पास आता है; और जहाँ तक मैंने द

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दबे पाँव (अध्याय 21)

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जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं। अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का क

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दबे पाँव (अध्याय 22)

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शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले। संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं

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शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती

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लौटने पर किसी ने कहा तलवार पास रखनी चाहिए, किसी ने कहा छुरी। तलवार और छुरी का उपयोग शिकार में हो सकता है; परंतु मैं तलवार से छुरी को ज्यादा पसंद करूँगा और छुरी से भी बढ़कर लाठी को, और लाठी से बढ़कर क

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दबे पाँव (अध्याय 25)

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यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती ह

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रिहाई तलवार की धार पर

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बंदा बैरागी और उसके सात सौ सिख साथियों के कत्ल का दिन आ गया। ये सब बंदा के साथ गुरदासपुर से कैद होकर आए थे। बंदा ने स्वयं खून की होली खेली थी, इसलिए उसके मन में किसी भी प्रकार की दया की आशा या प्रार्थ

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सच्चा धर्म

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हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफी संख्या में आ बसे थे; कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम-जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इनमें भी उन्नाव दरवाजे की तरफ मेवाती और बड

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शाहजादे की अग्निपरीक्षा

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दिल्ली का बादशाह जहाँगीर सन 1605 में राजसिंहासन पर बैठा था। उसे दस-बारह साल राज करते-करते हो गए थे। जहाँगीर सूझ-बूझवाला व्यक्ति था; परंतु कभी-कभी दुष्टता का भी बरताव कर डालता था। उसमें सनक भी थी। जहा

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शेरशाह का न्याय

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वह नहा रही थी। ऋतु न गरमी की, न सर्दी की। इसलिए अपने आँगन में निश्चिंतता के साथ नहा रही थी। छोटे से घर की छोटी सी पौर के किवाड़ भीतर से बंद कर लिए थे। घर की दीवारें ऊँची नहीं थीं। घर में कोई था नहीं,

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शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी

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'इस क़ैदी को शाह के सिपुर्द कीजिये ।' अहमदशाह अब्दाली के दूत ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से युद्ध की समाप्ति पर कहा । सन् १७६१ में पानीपत के युद्ध में मराठे हार गये थे। कई सरदारों के साथ मराठों का सरद

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पहले कौन?

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मेवाड़ और मारवाड़ (जोधपुर) में परस्पर बहुत वैर बढ़ गया था। बात लगभग तीन सौ वर्ष पुरानी है। मेवाड़ की सीमा पर जोधपुर राज्य का एक गढ़ था। गढ़ खँडहर हो गया है और खँडहरों का नाम क्या! जोधपुर अपनी आन पर थ

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लुटेरे का विवेक

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बात बारहवीं शताब्दी के अंत की है। मुहम्मद साम दिल्ली का सुल्तान था और भीम द्वितीय गुजरात का राजा। भीम ने लगभग इकसठ वर्ष राज किया। वह सिद्धांत पर चलता था, जिसे सत्रहवीं शताब्दी में छत्रसाल ने यों व्यवह

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इंद्र का अचूक हथियार

16 मई 2022
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तपस्वी की साधना की जो प्रतिक्रिया हुई, उससे इंद्र का इंद्रासन डगमगाने लगा। तपस्या भंग करने के उपकरण इंद्र के हाथ में थे ही। उसने प्रयुक्त किए। तपस्वी के पास मेनका अप्सरा अपने साज-बाज के साथ जा पहुँची।

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वृंदावनलाल के जीवन के प्रेरक प्रसंग

16 मई 2022
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सच्चा इतिहास मैं लिखूँगा मनुष्य के जीवन में एकाध घटना ऐसी गुजरती है, जो संवेदनशील मन को झनझना देती है। जिस घटना ने वृंदावनलाल वर्मा के मन को झकझोरकर उन्हें इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया, वह घटना उ

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