खेती को नुकसान पहुँचानेवाले जानवरों से सुअर चीतल और हिरन से कहीं आगे है। मनुष्यों के शरीर को चीरने-फाड़ने में वह तेंदुए से कम नहीं है। सुअर की खीसों से मारे जानेवालों की संख्या तेंदुए की दाढ़ों और नाखूनों से मारे जानेवालों की अपेक्षा कहीं अधिक होती है। प्रत्येक वर्ष के औसत की कहानी है।
सुअरों की संख्या इतनी शीघ्रता के साथ बढ़ती है कि उसकी बाढ़ में किसी बड़े षड्यंत्र का हाथ सा दिखलाई पड़ता है।
दो-तीन वर्षों में ही एक जोड़ के कम से कम पचास जोड़ हो जाने की संभावना रहती है।
यह जानवर बहुत दृढ़, बड़ा कष्टसहिष्णु, विकट बहुभोजी और बहुत मार पी जानेवाला होता है। बहादुर इतनी कि इसके मुकाबले में शेर भी उतना नहीं होता। खीसें इसका हथियार हैं और बल का कोष इसकी गरदन और कंधे। और इसका सिर तो मानो पत्थर का एक ढोंका ही होता है। जिसने एक बार इस खीस का सिर की टक्कर खाई, वह उसको कभी भूल नहीं सका अर्थात् यदि उस टक्कर के कारण मर न पाया तो।
उतरती बरसात के दिन थे। सूर्यास्त होने में विलंब था। बदली छाई हुई थी और ठंडी हवा चल रही थी। मैं अपने एक मित्र के साथ जंगल की ओर चल दिया। जंगल में घुसा नहीं था कि दो छोकरे दो कुत्ते लिए हुए मिल गए। कुत्ते आगे-आगे दौड़ रहे थे और कलोलों पर थे। मैंने उन छोकरों को कुत्ते पकड़कर लौटने के लिए कहा। उन्होंने प्रयत्न करके एक कुत्ता पकड़ पाया। दूसरा जंगल का रुख पकड़ गया।
हम लोग उस कुत्ते को पकड़ने की चिंता में जंगल के सिरे पर पहुँच गए। झाड़ी शुरू हो गई थी, परंतु घनी न थी।
निदान, वह कुत्ता एक छोटी सी झाड़ी के पास जा ठिठका। हम लोग उसके पास पहुँच गए। वह झाड़ी मेरे सामने थी। दाईं और चार-पाँच कदम के अंतर पर मेरे मित्र दुनाली बंदूक लिए खड़े हो गए। एक कुत्ते को एक छोकरा साफे के छोर से बाँधे हुए बाईं ओर चार-पाँच कदम के फासले पर ओर दूसरी उसके बराबर खड़ा हो गया। मेरे मित्र दाईं ओर से हटकर जरा और सामने आए।
उस दूसरे आवारा कुत्ते ने झाड़ी में मुँह डाला। सूँघा और फूँ-फाँ की। मैंने समझा, झाड़ी में खरगोश होगा।
परंतु उस झाड़ी में से कूदकर निकला एक मझोला सुअर। वह सीधा मेरे ऊपर आया।
मैं 30 बोर का राइफल लिए था। भरी हुई थी; परंतु नाल पर ताला पड़ा था। मेरे मित्र बंदूक नहीं चला सकते थे। चलाने पर गोली या तो मुझपर पड़ती या उन दो छोकरों में से एक पर। मैं भी नही चला सकता था। मेरी गोली या तो उन मित्र पर पड़ती या किसी छोकरे पर।
उन दोनों छोकरों के मुँह से निकला, 'ओ मताई, खा लओ!' और वे बिना किणसी प्रत्यक्ष कारण के पोंदों के बल धम्म से गिरे। उसी क्षण सुअर मेरे ऊपर आया। क्षण के एक खंड में मैं समझ गया कि आज हड्डी पसली टूटी।
और तो कुछ कर नहीं सकती थी। मैंने सुअर के आक्रमण को बंदूक की नाल पर झेला। कंधों और हाथों को काफी कड़ा करके मैंने सुअर के आक्रमण को झेला था; परंतु उसने मेरी दाहिनी टाँग को दो छिद्दे दे ही तो दिए। ये छिद्दे घुटने के नीचे पड़े थे।
सुअर अपना थोड़ा सा परिचय देकर भागा। मैंने अपना परिचय देने के लिए उसका पीछा किया; परंतु मैं दस-पद्रंह डग से आगे न जा सका। पैर भारी हो गया और जूतों में खून भर आया। खिसियाकर रह जाना पड़ा। पैर की हड्डी टूटने से तो बच गई, परंतु मैं घायल इतना हो गया था कि लँगड़ाते-लँगड़ाते चलना भी दुष्कर हो गया।
इस स्थान से बेतवा का किनारा लगभग एक मील था। हम लोगों ने उस रात नदी के एक बीहड़ घाट पर ठहरने की सोची थी। पैर में गरमी थी, इसलिए घाट पर पहुँचने में कोई बाधा नहीं जान पड़ी। घाट पर पहुँचे तो देखा कि वहाँ बिस्तर-विस्तर कुछ नहीं। जिस गाँव में डेरा डाला था वह इस घाट के लगभग ढाई मील दूर था। परंतु ऊपर की ओर हम लोगों ने, बेतवा की ढी में, एक ठीहा और बना रखा था। सोचा, बिस्तर वहाँ रख दिए होंगे। अभी अँधेरा नहीं हुआ था, इसलिए हम लोग उस ठीहे की ओर चल पड़े। वह इस घाट से डेढ मील की दूरी पर था। पैर लँगड़ाने लगा था; परंतु मन को आशा में उलझाए हुए वहाँ पहुँच गया।
देखें तो बिस्तर वहाँ भी नहीं। घाट पर बिस्तर रखने के लिए जो शिकारी नियुक्त था, वह या तो भूल गया था या भ्रम में था कि शायद हम लोग गाँव को लौट आवें; क्योंकि सुअर की टक्कर का समाचार गाँव में पहुँच गया था।
मेरा पैर सूज गया था और घाव में पीड़ा थी। घाट पर बिना बिस्तरों के ठहर नहीं सकते थे। मेरे मित्र चिंतित थे। बोले, 'आप गड्डे में बैठिए, मैं गाँव से बिस्तर और भोजन लेकर आता हूँ।'
मैंने कहा, 'न, मैं भी चलता हूँ। घाव को गरम पानी से धोकर प्याज का सेंक करेंगे।'
हम दोनों गाँव की ओर चल दिए। मैं कभी मित्र का और कभी बंदूक का सहारा लेता हुआ गाँव में नौ-दस बजे तक पहुँच गया। रात को घी में भूने हुए प्याज का सेंक दिया। कुछ दिनों में घाव अच्छा हो गया। उसमें पीप नहीं पड़ी। परंतु उसके थोड़े से निशान अब भी मौजूद हैं। सुअर की चोट का घाव विषैला नहीं होता है, गाँववालों ने यह मुझको उसी रात बतलाई थी। परंतु शिकार में ऐसी चोटों का लग जाना एक साधारण बात है।
सुअर के शिकार के लोभ में एक बार जरा कड़ी चोट खाई थी।
अगोट पर बैठे-बैठे जब थक गया तो गाँव को लौटा। साथ में गाँव का पथ-प्रदर्शक था। रात काली अँधेरी थी और मार्ग जंगली पगडंडी का।
पथ-प्रदर्शक जरा आगे निकल गया। पगडंडी एक जगह बंद सी जान पड़ी। मैं समझा, आगे दूबा है और वह उसी में लुप्त हो गई है; पर वह निकला एक भरका। लगभग चौदह फीट गहरा। मैं धड़ाम से उसमें गिरा। बंदूक हाथ में लिए था। उसके बल जा सधा, नहें तो दाहिना हाथ तो टूट ही जाता जिससे लिखना सीखा था।
हाथ तो बच गया, परंतु जबड़े का धक्का कान पर लगा। वह एक कष्टदायक फोड़े के रूप में परिवर्तित हो गया। सात महीने के लिए काम और शिकार दोनों छोड़ने पड़े। इसमें से दो महीने चीर-फाड़ के सिलसिले में लखनऊ में बिताए।
जब स्वस्थ हो गया तो फिर ध्यान में सुअर आया।
सुअर का शिकार जितना 'बहुजनहिताय बहुजनसुखाय' है उतना ही मनोरंजन और सनसनी देनेवाला भी होता है। उसके शिकार का संकट ही कदाचित मन को बढ़ावा देता है।
मैंने सुअर के सताए हुए बहुत से लोगों को देखा है किसी की जाँघ फाड़ डाली गई थी, किसी का हाथ तोड़ दिया गया था और किसी की आँतें बाहर निकाल दी गई थीं। कई तो मार भी डाले गए थे।
बेचारा मंटोला को फटी जाँघों का इलाज कराने के लिए तीन महीने अस्पताल में रहा था।
गाँव के लोग सुअर की सीध और संकट को जानते हैं, इसलिए उससे बहुत सावधान रहते हैं। ज्वार के खेत में जब अकेला सुअर आता है तब वह रखवाले की ललकार का उत्तर ढिठाई के साथ उसके पास आकर देता है। रखवाला उसके ऊपर जलते हुए कंडे और सुलगते हुए लक्कड़ फेंककर भागते-भागते जान छुटाता है।
जब सनसनाती हुई दुपहरी में मैं एक ग्रामीण के साथ पहाड़ पर चढ़ते-चढ़ते एक सुअर को पड़ा पा गया, तब ग्रामीण घबराकर पेड़ पर चढ़ गया। मैंने राइफल चलाई। सुअर लुढ़कता-पुढ़कता पहाड़ के नीचे गया; परंतु एक जगह सहारा पाकर ठहर गया और फिर मुझसे बदला लेने के लिए पहाड़ पर चढ़ा। इतना घायल होते हुए भी; परंतु मेरे पास राइफल और कारतूस। उसको मार खाकर फिर वापस जाना पड़ा।
एक बार तो सुअर घायल होकर लगभग सौ गज से मेरे ऊपर दौड़ आया था।
करामत मियाँ को हिरन का शिकार खेलते-खेलते सुअर मिल गया। बंदूक कारतूसी तो थी, पर थी एकनाली। सुअर पर दाग दी। सुअर घायल हुआ और आया करामत के ऊपर। बंदूक फेंककर एक पेड़ का सहारा पकड़ना पड़ा, तब प्राण बचे।
एक ठाकुर की तो गड्ढे में लाश ही पड़ी मिली थी। थोड़ी दूर पर सुअर भी मरा मिला। ठाकुर रात के पहले ही काँटेदार गड्ढे में जा बैठा। बंदूक टोपीदार थी। निशाना जोड़ पर नहीं बैठा। लोगों ने बंदूक चने की आवाज सुनी। सवेरे गड्ढे के भीतर ठाकुर को जगह-जगह फटा हुआ पाया गया और सुअर के खुरखुंद के चिह्न।
घायल सुअर का पीछा शिकारी कुत्ते बहुत अच्छा करते हैं। एक डाँग में मेरे एक साथी ने सुअर को घायल किया। उसके पास कुत्ते थे तो छोटे-छोटे, पर वे थे सीखे हुए। उसने घायल सुअर के ऊपर कुत्तों को छोड़ा। कुत्तों ने लगभग आधा मील पछिया कर सुअर को जा पकड़ा।
मैं भी दौड़ता-दौड़ता पीछे गया। जब निकट पहुँचा तो देखा कि कुछ कुत्ते उसकी पूँछ पकड़े हुए हैं, कुछ दोनों तरफ से उसके पेट से चिपटे हुए हैं और एक कान पकड़े हुए उसकी पीठ पर जमा हुआ है। वे सब एक झोर में थे। मैं झोर में उतरा। साथी ने मना किया, 'उसके पास मत जाओ। बहुत क्रोध में है। टुकड़े कर देगा।'
मैं न माना। .30 बोर की राइफल जो हाथ में थी।
मैं आठ-दस कदम के अंतर पर जाकर खड़ा हो गया। सुअर की आँखों में से आग बरस रही थी। बिलकुल लहूलुहान था।
सुअर ने एक 'हुर्र' करके मेरी ओर झपट लगाने का प्रयास किया; परंतु आधे दर्जन से ज्यादा कुत्ते उसपर चिपटे थे। वह आगे न बढ़ सका। मैंने भी सोचा, इसको ज्यादा मौका न देना चाहिए। जैसे ही मैंने बंदूक के कंधे से जोड़ा, झोर के ऊपर से मेरे साथी ने पुकार लगाई, 'बंदूक मत चलाना। कहीं किसी कुत्ते को गोली न लग जाय।'
मैं सुअर के दूसरे प्रयास के प्रतीक्षा नहीं कर सकता था - और न वहाँ से हट सकता था। वहाँ पहुँचने से कुत्तों को ढाढ़स मिल गया था, मेरे हटने से शायद वे अनुत्साहित हो जाते - अथवा सुअर कुत्तों से छूटकर मेरे ऊपर आ कूदता; तो निशाना बाँधने का भी अवसर न मिलता। मैंने उसके सिर पर गोली छोड़ दी। सुअर तुरंत समाप्त हो गया। परंतु उसकी दूसरी और चिपका हुआ एक कुत्ता भी ढेर हो गया; क्योंकि गोली सुअर को फोड़कर निकल गई थी।
कुत्ते के मालिक से मैंने क्षमा माँग ली।
सुअर जिस प्रकार खेती का विनाश करता है, वह मैंने अपनी आँखों से देखा है।
वह सावधानी के साथ ज्वार के खेत में घुसता है। अपने नीचे पेड़ को दबाता हुआ आगे बढ़ता है। पेड़ तड़ाक से टूटता है। भुट्टा उसके मुँह में आ जाता है और एक भुट्टे से भूख को प्रज्वलित करके फिर वह आगे बढ़ता है। रखवाले की झंझट की आहट लेता है और फिर अपनी विनाशकारी क्रिया को जारी करता है। रखवाले ने हल्ला-गुल्ला किया तो या तो उसपर दौड़ पड़ा या उसी जगह घड़ी-आध घड़ी के लिए चुप हो गया। सुविधा पाकर फिर वही सत्यानास।
जिस खेत में सुअरों का बगर झुंड घुस जाए, उसमें तो सब चौपट ही हो जाता है।
चनें गेहूँ, मसूर इत्यादि के खेतों को तो वह ऐसा कर देता है जैसे किसी ने घास-फूस के ढेर लगा दिए हों। किसान ढबुओं में या आग के सहारे पड़े-पड़े रात भर चिल्लाते रहते हैं, तब कुछ बचा पाते हैं। शकरकंद, ईख और आलू का तो वह ऐसा भक्षण करता है कि यदि उसका पूरा बस चले तो नाम-निशान तक न रहने दे।
मेरी आलू की खेती को तो उसने ऐसा नष्ट किया था। कि एक सेर आलू भी खाने के लिए न छोड़े। कुछ दिन रखवाली करते-करवाते एक रात चूक हो गई। वही रात सुअर का अवसर बन गई। सेवेरे जो खेत को देखा तो ऐसा दृश्य जैसे किसी ने भोंड़ेपन के साथ हल चलाए हों।
मक्का के खेत को भी वह बिछाकर ही रहता है। यों तो चिड़ियाँ भी इसको चुगते-चुगते नहीं अघातीं; परंतु सुअर नाशकारी भय के मारे मक्का की खेती ही छोड़ दी गई है। मक्का की खेती करना मनो विपद् को सिर पर बुलाना है। कई जगह ईख की भी खेती छोड़ दी गई है।
मनुष्य जाति के प्रारंभिक विकास काल में सुअर कितना भयंकर रहा होगा, इसका अनुमान किया जा सकता है। मारे डर के इसको देव, दानव और अवतार तक की पदवी मिल गई। अवतार का प्रयोग जरूर सुंदर ढंग से किय गया है; पर वह विकास के मध्य भाग की बात ही रही होगी।
सुअर का शिकार घोड़े की सवारी पर बरछे से भी होता है और यह बहुत सनसनी देनेवाला होता है। परंतु भूमि पहाड़ी और बहुत ऊबड़-खाबड़ नहीं होनी चाहिए।