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दबे पाँव (अध्याय 2 )

16 मई 2022

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हिंदी में कुछ-न-कुछ लिखने की लत पुरानी है। सन् 1909 में छपा हुआ मेरा एक नाटक सरकार को नापसंद आया। जब्त हो गया और मैं पुलिस के रगड़े में आया। परंतु रंगमंच पर अभिनय करने पर अभिनय करने का शौक था और नाटक लिखने का भी; उपन्यास तो मेरे पथ में बहुत देर में आए। चार-पाँच नाटक 1908 में लिखे थे। कई वर्षों के बाद उनको दुबारा पढ़ा। मैंने अपने से पूछा, 'ये किसके लिखे?' बड़ी ग्लानी हुई। मैंने उन सबको फाड़कर पानी में फेंक दिया। बंदूक सँभालने पर पुरानी कामनाएँ फिर जाग्रत हुईं। जंगल और पहाड़ों के भ्रमण ने विवश किया। अनेक प्रकार के स्त्री-पुरुष वकालती पेशे में मेरे अनुभव में आते रहे। उनकी ढाल-पुरुष वकालती पेशे में मेरे अनुभव में आते रहे। उनकी चाल-ढाल एक बँधे हुए ढाँचे की थी। कुछ थोड़े ही ऐसे मिले जिनको झूठ और छल-कपट से घिन हो। परंतु जंगलों, पहाड़ों और देहातों में जो नमूने मिले, वे बिलकुल दूसरे और एक-दूसरे से भिन्न। सच्चाई स्पष्ट और उनका झूठ भी उतना ही साफ। यह बात नहीं कि गूढ़ और रहस्यमय लोग न मिले हों - काफी संख्या में मिले और नगरवालों से कहीं अधिक गहरे। उनकी तह तक पहुँचने में आश्चर्य होता - अन्वेषण, विश्लेषण और संश्लेषण के विद्यार्थी को परम संतोष। मुझको यह सब बंदूक की ओट में मिला। शायद वैसे भी मिलता, और लोगों को यों ही प्राप्त हो जाता है; परंतु मुझको शायद इसी तरीके से लिखा बदा है।

मैं काम करते-करते प्रत्येक शनिवार की संध्या की बाट जोहा करता था। जो कुछ भी सवारी मिली, अपने मित्र श्री अयोध्याप्रसाद शर्मा को लेकर शनिवार की शाम को चल दिया; रविवार जंगल में बिताया और सोमवार को सवेरे काम पर वापस।

इस क्रम में सबसे पहले मुझको कई प्रकार के हिरन मिले।

झाँसी से चौबीस-पच्चीस मील दूर एक मित्र की बारात में शामिल होना था। जिस दिन टीका था उसी दिन झाँसी की कचहरी में अनिवार्य काम था। दूसरे दिन छुट्टी थी। काम चार बजे खत्म हुआ। और कोई सवारी न थी, एक ताँगा किराए पर किया। थोड़े से कपड़े लिये, गरमी की ऋतु थी-वैसे भी मैं साथ में बहुत कम कपड़े लेकर बाहर जाता हूँ - .12 बोर की दुनाली बंदूक ली पचास कारतूस। तेजी से भी जाते-जाते लगभग नौ बजे रात को गाँव जब करीब एक मील रह गया, पहुँचा। इस जगह पहूज नदी का रपटा मिला। रपटे के एक किनारे खुसफुस करते हुए बहुत से आदमी दिखलाई पड़े। उनको गिन नहीं सका; परंतु बीस से ऊपर लगे। ताँगेवाला डरा। मैंने उसको उत्साहित किया और तुरंत दुनाली में दो कारतूस डालकर तैयार हो गया।

उन लोगों ने कोई रोक-टोक नहीं की। ताँगा निकल गया। मैं जब बारात में पहुँचा, बड़ी धूमधाम देखी। इतनी रोशनी कि आँखें चौंधियाने लगीं। दूल्हा जेवरों से लदा हुआ था और अनेक बाराती सोने और मोतियों से अपने कंठ सजाए हुए थे। बारात में कम-से-कम पचास बंदूकें थीं और पुलिस की एक पूरी गारद। रक्षा के पूरे उपकरण थे। मैंने सोचा, 'यदि मैं डाकू होता तो केवल दो संगियों को लेकर सारी बारात लूट लेता। इस मरकरी रोशनी में बारातवाले बंदूकचियों की चकाचौंध खाई हुई आँखें कुछ भी न कर पातीं। मैं अंधेरे में ओट लेकर, चार-पाँच कारतूस दागकर सारी बारात को भगा देता।'

जैसे ही यह कल्पना मन में आई, मुझे पहूज नदी के रपटे पर मिले हुए उन बंदूकवालों का स्मरण हो आया।

बारात के नायक मेरे मित्र हिंदी स्कूल के मेरे छूटपन के सहपाठी थे। मैं उनको अलग ले गया। आपस में काफी बेतकल्लुफी थी।

मैंने पूछा, 'इतनी बंदूकों और पुलिस गारद की जरूरत क्यों पडी?'

'तुम्हें मालूम नहीं? मजबूतसिंह डाकू चालीस-पचास आदमियों का गिरोह लिये यहीं कहीं आसपास है। रखवाली के लिए ये सब बंदूकवाले और पुलिस के सिपाही आए हैं।' उन्होंने उत्तर दिया।

'जी हाँ, खूब रखवाली होगी! मजबूत सिंह थोड़ी सी आड़ लेकर इस प्रचंड रोशनी में इकट्ठे समूह पर जब गोली चलावेगा तब दस-बीस आदमी कुछ देर में ढेर हो जाएँगे और बाकी भगदड़ में शामिल होकर हवा हो जाएँगे। पुलिस कुछ नहीं कर सकेगी।'

'क्या किया जाय?'

'दूल्हा का सब गहना उतारकर एक बक्स में रक्खो, और इन पुरुष गुंडों ने जो सजावट की है उसको भी हटाकर बक्स में रखवा दो। इस काम को सावधानी के साथ चुपचाप करो। मैं डाकुओं को देख आया हूँ। अभी लगभग एक मील की दूरी पर हैं। थोड़ी देर में पास की पहाड़ी में आ छिपेंगे और मौका पाकर छापा मारेंगे।'

'गहने वाले बक्स का क्या होगा?'

'बारात का डेरा इस पहाड़ी के नीचेवाले पेड़ों की छाया में है। यहीं पर बक्स रख दो। डाकू धोखे में आएँगे। मैं एक आदमी को साथ लेकर यहीं रह जाऊँगा, तिलक-टीके में नहीं जाऊँगा। तुम बंदूकवालों के कई दस्ते बनाओ। कुछ को बारात से अलग अँधेरे-अँधेरे में आगे चलने दो, कुछ को बारात के अगल-बगल और कुछ को बिलकुल पीछे।'

मेरे मित्र मान गए। उन्होंने मेरे कहने के अनुसार काम किया। बारात टीके के लिए चल दी।

मैंने डेरे में बक्स रखा। मेरा साथी चिरगाँव का करामात था। वह मेरा शिकारी साथी था। उसके पास .12 बोर की इकनाली बंदूक थी। हमलोगों के साथ और कोई न था।

डेरा क्या, छाया के लिए एक पाल था। उसके अगल-बगल कनात या आड़-ओट कुछ न थी। बड़े-बड़े पेड़ अवश्य थे। पास ही पहाड़ी थी। हम लोगों के पास रोशनीवाला हंडा था। मैंने करामत से उस हड़े को हटवाकर पहाड़ी की तली में रखवा दिया। पाल के नीचे अँधेरा हो गया और पहाड़ी पर उजेला।

मैं और करामत फर्श पर औंधे लेट गए। बंदूकें भरकर छतिया लीं। मेरा रुख पहाड़ी की

इस लेटाई-लाइंगलोड-को लिये हुए बहुत विलंब न हुआ होगा कि पहाड़ी में लोगों के इकट्ठे होने की आहट मिली। मैंने करामत को संकेत किया और चुप पड़े रहने के लिए धीरे से कहा।

पहाड़ी में वे लोग जल्दी जमा हो गए। आश्चर्य करते होंगे कि किस बेढंगे ने पहाड़ी के पड़ोस में रोशनी का हंडा रख दिया।

डेरे में सुनसान प्रतीत करके उन्होंने एक मूर्खता की। आग जलाकर तंबाकू पीने लगे। हंडे की रोशनी और तंबाकू के लिए की हुई आग के प्रकाश में वे मेरी पहचान में आ गए। मैंने उनसे कहीं बढ़कर ज्यादा मूर्खता की।

मैं चिल्लाया, 'यहाँ है सब गहना! है तुममें से किसी की छाती में बाल, जो आकर इसको उठाए? उठाओ सिर और किया मैंने गोली से चकनाचूर।'

करामत ने धीरे से मेरी प्रताड़ना की। बोला, 'बड़े भैया, ऐसी चुनौती नहीं दी जाती।'

मैं अपने घमंड और बड़े बोल पर मन में सहमा; परंतु बात मुँह से निकल चुकी थी। अब तो उसका निभाना ही बाकी रह गया था। उसी समय करामत की ओर से एक बिच्छू मेरी तरफ आया। करामत ने धीरे से मुझको सावधान किया।

मैंने कहा, 'होगा! इतनी बेवकूफी के बाद अब मैं बिच्छू से बचने के लिए बैठ नहीं सकता।' बिच्छू मेरे कंधे के पास से आगे बढ़ा। मैं चुपचाप पड़ा था। वह धीरे-धीरे मेरी कुहनी के पास आ गया। शायद न काटता; परंतु यदि डंक मार देता तो एक हाथ बेकार हो जाता और यदि डाकू मेरे शेखी का जवाब देते तो मैं अपने घमंड के समर्थन में एक हाथ भी न उठा पाता। मैंने एक हाथ में बंदूक सँभाली और दूसरे हाथ में मुट्ठी से बिच्छू को खत्म कर दिया।

अब डाकुओं से भिड़ जाने के लिए पूरी साँस मिल गई। परंतु चोरों, बटमारों और लुटेरों में इतना साहस कहाँ होता है, जो इस प्रकार की चुनौती को स्वीकार करते।

वे धीरे-धीरे खिसक गए

पौ फटने के समय बारात लौटी। तब तक हम दोनों उसी लेटाई में अपनी पसलियों का भुरकस करते रहे।

बारात में मेरे कई शिकारी मित्र भी थे। एक लँगड़ा दढ़ियल शिकार का लती भी। उसके पास बंदूक न थी; परंतु खाने को हिरन चाहता था। साथ हो लिया।

चलते ही, थोड़ी देर बाद, हिरनों के झुंड-के-झुंड मिले। हिरन सब मिलाकर सौ के ऊपर होंगे। बड़े-बड़े सींगवाले कर छाल सब झुंडों में दस-बारह से कम न थे। उदय होते हुए सूर्य की कोमल किरणें उनकी चिकनी-चमकती हुई देहों पर रिपट रही थीं। आँखें बड़ी-बड़ी। इन्हीं की उपमा तो कवियों ने अपनी कामिनियों को दी हैं। गोली न चलाने का मोह उत्पन्न हुआ। परंतु किसानों की खेती का भरपूर नुकसान भी तो ये ही करते हैं। मोह को छोड़ दिया। अब केवल चुनाव का सवाल सामने था-इनमें से किसको निशाना बनाऊँ?

एक बहुत पुराना, बड़े सींगवाला एक झुंड का नायक था। उसको एक ही गोली से समाप्त कर दिया। बाकी भाग गए।

परंतु यह निशाने पर बहुत देर में था।

हिरन का शिकार काफी श्रम और सावधानी चाहता है। कभी निहुरकर चलना पड़ता है, कभी दर्जनों गज पेट के बल, कभी घुटने के बल और कभी-कभी गोद में बंदूक रखकर पीठ के बल घिसटना भी पड़ता है।

उस हिरन को लेकर करामत इत्यादि पहूज नदी के किनारे पहुँचे। एक भरके में की छाया के नीचे जा बैठे। नदी के उस पार से यह स्थान दिखलाई पड़ता था। नदी में धार पतली थी। पाट भी चौड़ा न था।

हम लोग रात भर के जागे थे। मैं एक पत्थर के सहारे टिक गया। बाकी लोग रूमाल या साफे से मुँह ढककर सो गए। इनमें लँगड़ा दढ़ियल भी था। करामत बैठा-बैठा बीड़ी पीने लगा।

इतने में उस पार एक देहाती दिखलाई पड़ा। उसने वहीं से पुकार लगाई, 'आग है, आग? तंबाखू पीना है।'

करामत ने शरारत की। व्यंग्य के स्वर में उत्तर दिया, 'हओ, है आग हमाए पास। आओ इतै, हम देवें आग।'

देहाती ने समझा, डाकुओं का गिरोह है; वह उलटे पाँव भागा।

परंतु उसके भागने का सही कारण उस समय मेरी समझ में नहीं आया था। थोड़ी ही देर में एक और आदमी नदी के उसी किनारे पर आया। वह कुछ क्षण खड़ा रहा। फिर धीरे-धीरे हम लोगों के पास आया। आकर बैठ गया। उसमें और करामत में बातचीत होने लगी।

आगंतुक ने कहा, 'हिरन तो बढ़िया मारा।'

करामत ने शेखी बघारी, 'हम लोगों का निशाना चूकता थोड़े ही है!'

'आप कहाँ से आ रहे हैं?'

'जहाँ से मन चाहा।'

'कहाँ जाएँगे?'

'जहाँ सींग समावें।'

'और लोग भी साथ हैं?'

'और लोग भी साथ हैं?'

'ज्यादा सवाल करने से गड़बड़ हो जाएगी।'

अब मुझको संदेह हुआ, करामत कोई अभिनय कर रहा है।

आगंतुक जाने को हुआ। उसी समय लँगड़े दढ़ियल ने अपने मुँह पर से साफे के छोर को हटाया। आगंतुक के अचरज का ठिकाना न रहा।

यकायक उसके मुँह से निकला, 'ओफ! आप लोग बहुत बच गए। थोड़ी ही देर में न जाने क्या से क्या हो जाता!'

लँगड़े दढ़ियल ने आगंतुक का अभिवादन किया, 'मामा, राम-राम!'

लँगड़ा आगंतुक का भानजा था।

करामत हँसकर बोला, 'क्यों, क्या हो गया?'

आगंतुक ने उत्तर दिया, 'हो तो कुछ नहीं गया, पर हो जाता। मैं पुलिसमैन हूँ। यहाँ आस-पास हथियारबंद पुलिस लगी हुई है। मजबूत सिंह डाकू के गिरोह की खबर लगी थी कि यहीं कहीं है। आप लोगों पर उसी गिरोह के होने का संदेह था। आप अपने जवाब से खुद डाकू बन बैठे। यदि मेरा भानजा साथ में न होता तो मैं अपने अफसर से जाकर कहता कि डाकुओं के गिरोह का एक खंड इसी भरके में है। गोली चलती।'

मैं पत्थर का सहारा छोड़कर बैठ गया।

मैंने कहा, 'और हम लोग समझते की हमको डाकुओं ने घर लिया। दुतरफा गोली चलती और मौतें होती।'

आगंतुक ने करामत को फटकार लगाई, 'आप लोग बारात में आए हैं, आपको साफ कहना चाहिए था। आपकी इस भद्दी गलती के कारण न जाने कितनी जानें जातीं।'

मैंने भी करामत को एक नरम-गरम व्याख्यान दिया।

बुंदेलखंड में डाकू जंगलों, पहाड़ों और भरकों का ही सहारा पकड़ते हैं और वहीं शिकारियों का भी भ्रमण होता है। ऐसी दशा में बिना पहचान वाले लोग किसी भ्रम को मन में बसा लेवें तो कोई अचरज नहीं।

और फिर रातवाली शेखी की तौल में यह शेखी तो बिलकुल ही पोच थी। निरुद्देश्य और बेकार।

उस लँगड़े दढ़ियल की उपस्थिति ने वरदान का काम किया, नहीं तो मैं, करामत मियाँ और शायद मेरे अन्य साथी भी उस दिन ढेर हो जाते।

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रचनाएँ
वृंदावन लाल वर्मा की रोचक कहानियाँ
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इन्हे बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये 19 साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’(1908) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति दल’(1909) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था। ये प्रेम को जीवन का सबसे आवश्यक अंग मानने के साथ जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक भी थे। इन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूंजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी। इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं।
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मेंढकी का ब्याह

16 मई 2022
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उन ज़िलों में त्राहि-त्राहि मच रही थी। आषाढ़ चला गया, सावन निकलने को हुआ, परन्तु पानी की बूँद नहीं। आकाश में बादल कभी-कभी छिटपुट होकर इधर-उधर बह जाते। आशा थी कि पानी बरसेगा, क्योंकि गाँववालों ने कुछ पत

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खजुराहो की दो मूर्तियाँ

16 मई 2022
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चंद्रमा थोड़ा ही चढ़ा था। बरगद की पेड़ की छाया में चाँदनी आँखमिचौली खेल रही थी। किरणें उन श्रमिकों की देहों पर बरगद के पत्तों से उलझती-बिदकती सी पड़ रहीं थीं। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई अधलेटा। खजु

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जहाँगीर की सनक

16 मई 2022
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'इंशा! इंशा!!' बादशाह जहाँगीर ने इधर-उधर देखकर भरे दरबार में जरा ऊँचे स्वर में अपने भतीजे को पुकारा। अलमबरदार ने बड़े अदब के साथ बतलाया कि शाहजादा शिकार खेलने चले गए हैं। 'शाहजादा - इंशा के लिए! जहाँग

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शरणागत

16 मई 2022
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रज्जब कसाई अपना रोजगार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रकम। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुर

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थोड़ी दूर और

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जब महमूद गजनवी (सन 1025-26 में) सोमनाथ का मंदिर नष्ट-भ्रष्ट करके लौटा तब उसे कच्छ से होकर जाना पड़ा। गुजरात का राजा भीमदेव उसका पीछा किए चल रहा था। ज्यों-ज्यों करके महमूद गजनवी कच्छ के पार हुआ। वह सिं

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रक्षा

16 मई 2022
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मुहम्मदशाह औरंगजेब का परपोता और बहादुरशाह का पोता था। 1719 में सितंबर में गद्दी पर बैठा था। सवाई राजा जयसिंह के प्रयत्न पर मुहम्मदशाह ने गद्दी पर बैठने के छह वर्ष बाद जजिया मनसूख कर दिया। निजाम वजीर ह

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रामशास्त्री की निस्पृहता

16 मई 2022
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दो सौ वर्ष के लगभग हो गए, जब पूना में रामशास्त्री नाम के एक महापुरुष थे। न महल, न नौकर-चाकर, न कोई संपत्ति। फिर भी इस युग के कितने बड़े मानव! भारतीय संस्कृति की परंपरा में जो उत्कृष्ट समझे जाते रहे है

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दबे पाँव (अध्याय 1)

16 मई 2022
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कुछ समय हुआ एक दिन काशी से रायकृष्ण दास और चिरगाँव से मैथिलीशरण गुप्त साथ-साथ झाँसी आए। उनको देवगढ़ की मूर्ति कला देखनी थी - और मुझको दिखलानी थी। देवगढ़ पहुँचने के लिए झाँसी-बंबई लाइन पर जालौन स्टेशन

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दबे पाँव (अध्याय 2 )

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दबे पाँव (अध्याय 3)

16 मई 2022
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चिंकारे का शिकार करछाल के शिकार से भी अधिक कष्टसाध्य है। चिंकारा बहुत ही सावधान जानवर होता है। उसे संकट का संदेह हुआ कि फुसकारी मारी और छलाँग मारकर गया। हिरन संकट से छुटकारा पाने के लिए दूर भागकर दम ल

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दबे पाँव (अध्याय 4)

16 मई 2022
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एक जगह जमकर बैठने का शिकार काफी कष्टदायक होता है। झाँखड़ या पत्थरों के चारों ओर ओट बना लेते हैं और उसके भीतर जानवरों को अगोट पर शिकारी बैठ जाते हैं-ऐसे ठौर पर, जहाँ होकर जानवर प्रायः निकलते हों। उनके

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दबे पाँव (अध्याय 5)

16 मई 2022
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हिरन वर्ग के जानवरों के लिए ढूका या ढुकाई का शिकार भी अच्छा समझा जाता है। इस शिकार में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पेट के बल रेंगते हुए भी चलना पड़ता है; पहेल ही कहा जा चुका है। कुछ लोग बंदूक के घोड़

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दबे पाँव (अध्याय 6 )

16 मई 2022
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चीतल (स्वर्णमृग) हिरन वर्ग का पशु समझा जाता है। परंतु इसके सींग फंसेदार होते हैं। यह बहुत ही सुंदर होता है। इतना सुंदर कि कभी-कभी शिकारी इसके भयानक हानि पहुँचानेवाले कृत्यों को भूल जाता है। इसकी खाल प

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दबे पाँव (अध्याय 7)

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चीतलों के बाद मुझको पहला तेंदुआ सहज ही मिल गया। विंध्यखंड में जिसको 'तेंदुआ' कहते थे, उसकी छोटी छरेरी जाति को कहीं-कहीं 'चीता' का नाम दिया गया है। हिमाचल में शायद इसी को 'बाघ' कहते हैं। तेंदुए की खबर

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दबे पाँव (अध्याय 8)

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खेती को नुकसान पहुँचानेवाले जानवरों से सुअर चीतल और हिरन से कहीं आगे है। मनुष्यों के शरीर को चीरने-फाड़ने में वह तेंदुए से कम नहीं है। सुअर की खीसों से मारे जानेवालों की संख्या तेंदुए की दाढ़ों और नाख

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दबे पाँव (अध्याय 9)

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मैं संध्या के पहले ही बेतवा किनारे ढीवाले गड्ढे में जा बैठा। राइफल में पाँच कारतूस डाल लिए। कुछ नीचे रख लिए। रातभर बैठने के लिए आया था, इसलिए ओढ़ना-बिछौना गड्ढे में था। अँधेरा हुआ ही था कि एक छोटी सी

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दबे पाँव (अध्याय 10)

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एक बार जाड़ों में पहाड़ की हँकाई की ठहरी। लगान लग गए। मैं पहाड़ की तली में बैठ गया और शर्मा जी चोटी पर। बीच में अन्य मित्र लगान पर लग गए। हँकाई होते ही पहले साँभर हड़बड़ाकर निकल भागे। हँकाई में पहले

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दबे पाँव (अध्याय 11)

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साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं। जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग मे

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दबे पाँव (अध्याय 12)

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एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर

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दबे पाँव (अध्याय 13)

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अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी। जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थ

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दबे पाँव (अध्याय 14)

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मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर

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दबे पाँव (अध्याय 15 )

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मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भ

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दबे पाँव (अध्याय 16)

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एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया। मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होक

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दबे पाँव (अध्याय 17)

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जंगली कुत्ते का मैंने शिकार तो नहीं किया है, परंतु उसको देखा है। जिन्होंने इसके कृत्यों को देखा है वे इस छोटे से जानवर के नाम पर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। रंग इसका गहरा बादामी होता है, इसलिए शायद इस

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दबे पाँव (अध्याय 18)

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भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है। भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-

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दबे पाँव (अध्याय 19)

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भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव क

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दबे पाँव (अध्याय 20)

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जंगल में शेर और तेंदुए से भी अधिक डरावने कुछ जंतु हैं - साँप, बिच्छू और पागल सियार। अजगर का तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि वह काटने के लिए आक्रमण नहीं करता है, भक्षण के लिए पास आता है; और जहाँ तक मैंने द

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दबे पाँव (अध्याय 21)

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जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं। अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का क

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दबे पाँव (अध्याय 22)

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शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले। संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं

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दबे पाँव (अध्याय 23)

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शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती

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दबे पाँव (अध्याय 24)

16 मई 2022
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लौटने पर किसी ने कहा तलवार पास रखनी चाहिए, किसी ने कहा छुरी। तलवार और छुरी का उपयोग शिकार में हो सकता है; परंतु मैं तलवार से छुरी को ज्यादा पसंद करूँगा और छुरी से भी बढ़कर लाठी को, और लाठी से बढ़कर क

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दबे पाँव (अध्याय 25)

16 मई 2022
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यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती ह

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रिहाई तलवार की धार पर

16 मई 2022
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बंदा बैरागी और उसके सात सौ सिख साथियों के कत्ल का दिन आ गया। ये सब बंदा के साथ गुरदासपुर से कैद होकर आए थे। बंदा ने स्वयं खून की होली खेली थी, इसलिए उसके मन में किसी भी प्रकार की दया की आशा या प्रार्थ

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सच्चा धर्म

16 मई 2022
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हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफी संख्या में आ बसे थे; कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम-जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इनमें भी उन्नाव दरवाजे की तरफ मेवाती और बड

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शाहजादे की अग्निपरीक्षा

16 मई 2022
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दिल्ली का बादशाह जहाँगीर सन 1605 में राजसिंहासन पर बैठा था। उसे दस-बारह साल राज करते-करते हो गए थे। जहाँगीर सूझ-बूझवाला व्यक्ति था; परंतु कभी-कभी दुष्टता का भी बरताव कर डालता था। उसमें सनक भी थी। जहा

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शेरशाह का न्याय

16 मई 2022
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वह नहा रही थी। ऋतु न गरमी की, न सर्दी की। इसलिए अपने आँगन में निश्चिंतता के साथ नहा रही थी। छोटे से घर की छोटी सी पौर के किवाड़ भीतर से बंद कर लिए थे। घर की दीवारें ऊँची नहीं थीं। घर में कोई था नहीं,

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शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी

16 मई 2022
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'इस क़ैदी को शाह के सिपुर्द कीजिये ।' अहमदशाह अब्दाली के दूत ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से युद्ध की समाप्ति पर कहा । सन् १७६१ में पानीपत के युद्ध में मराठे हार गये थे। कई सरदारों के साथ मराठों का सरद

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पहले कौन?

16 मई 2022
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मेवाड़ और मारवाड़ (जोधपुर) में परस्पर बहुत वैर बढ़ गया था। बात लगभग तीन सौ वर्ष पुरानी है। मेवाड़ की सीमा पर जोधपुर राज्य का एक गढ़ था। गढ़ खँडहर हो गया है और खँडहरों का नाम क्या! जोधपुर अपनी आन पर थ

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लुटेरे का विवेक

16 मई 2022
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बात बारहवीं शताब्दी के अंत की है। मुहम्मद साम दिल्ली का सुल्तान था और भीम द्वितीय गुजरात का राजा। भीम ने लगभग इकसठ वर्ष राज किया। वह सिद्धांत पर चलता था, जिसे सत्रहवीं शताब्दी में छत्रसाल ने यों व्यवह

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इंद्र का अचूक हथियार

16 मई 2022
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तपस्वी की साधना की जो प्रतिक्रिया हुई, उससे इंद्र का इंद्रासन डगमगाने लगा। तपस्या भंग करने के उपकरण इंद्र के हाथ में थे ही। उसने प्रयुक्त किए। तपस्वी के पास मेनका अप्सरा अपने साज-बाज के साथ जा पहुँची।

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वृंदावनलाल के जीवन के प्रेरक प्रसंग

16 मई 2022
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सच्चा इतिहास मैं लिखूँगा मनुष्य के जीवन में एकाध घटना ऐसी गुजरती है, जो संवेदनशील मन को झनझना देती है। जिस घटना ने वृंदावनलाल वर्मा के मन को झकझोरकर उन्हें इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया, वह घटना उ

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