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मेंढकी का ब्याह

16 मई 2022

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उन ज़िलों में त्राहि-त्राहि मच रही थी। आषाढ़ चला गया, सावन निकलने को हुआ, परन्तु पानी की बूँद नहीं। आकाश में बादल कभी-कभी छिटपुट होकर इधर-उधर बह जाते। आशा थी कि पानी बरसेगा, क्योंकि गाँववालों ने कुछ पत्रों में पढ़ा था कि कलकत्ता-मद्रास की तरफ़ ज़ोर की वर्षा हुई है। लगते आसाढ़ थोड़ा-सा बरसा भी था। आगे भी बरसेगा, इसी आशा में अनाज बो दिया गया था। अनाज जम निकला, फिर हरियाकर सूखने लगा। यदि चार-छः दिन और न बरसा, तो सब समाप्त। यह आशंका उन ज़िलों के गाँवों में घर करने लगी थी। लोग व्याकुल थे।

गाँवों में समानों की कमी न थी। टोने टोटके, धूप-दीप, सभी-कुछ किया, लेकिन कुछ न हुआ। एक गाँव का पुराना चतुर नावता बड़ी सूझ-बूझ का था। अधाई पर उसने बैठक करवायी। कहाँ क्या किया गया है, थोड़ी देर इस पर चर्चा चली। नावते ने अवसर पाकर कहा- “इन्द्र वर्षा के देवता है, उन्हें प्रसन्न करना पड़ेगा।”

“सभी तरह के उपाय कर लिए गए हैं। कोई गाँव ऐसा नहीं है, जहाँ कुछ न कुछ न किया गया हो। पर अभी तक हुआ कुछ भी नहीं है।”

बहुत-से लोगों ने तरह-तरह से कहा और उन गाँवों के नाम लिए, होम-हवन, सत्यनारायण कथा, बकरों-मुर्ग़ों का बलिदान, इत्यादि किसी-किसी ने फिर सुझाए; परन्तु नावते की एक नई सूझ अन्त में सबको माननी पड़ी।

नावते ने कहा- “बरसात में ही मेंढक क्यों इतना बोलते हैं? क्यों इतने बढ़ जाते हैं? कभी किसी ने सोचा? इन्द्र वर्षा के देवता हैं, सब जानते हैं। पानी की झड़ी के साथ मेंढक बरसते हैं, सो क्यों? कोई किरानी कह देगा कि मेंढक नहीं बरसते। बिलकुल ग़लत। मैंने ख़ुद बरसते देखा है। बड़ी जांद या किसी बड़े बर्तन को बरसात में खुली जगह रख के देख लो। साँझ के समय रख दी, सवेरे बर्तन में छोटे-छोटे मेंढक मिल जाएँगे। बात यह है कि इन्द्र देवता को मेंढक बहुत प्यारे हैं। वे जो रट लगाते हैं, तो इन्द्र का जय-जयकार करते हैं।”

अथाई पर बैठे लोग मुँह ताक रहे थे कि नावते जी अन्त में क्या कहते हैं। नावता अन्त में बहुत आश्वासन के साथ बोला – “मेंढक-मेंढकी का ब्याह करा दो। पानी न बरसे, तो मेरी नाक काट डालना।”

मेंढक-मेढकी का ब्याह! कुछ के ओंठों पर हँसी झलकने को हुई, परन्तु अनुभवी नावते की गम्भीर शक्ल देखकर हँसी उभर न पायी। एक ने पूछा – “कैसे क्या होगा उसमें? मेंढकी के ब्याह की विधि तो बतलाओ, दादा।”

नावते ने विधि बतलायी – “वैसे ही करो मेंढक-मेढकी का ब्याह, जैसे अपने यहाँ लड़के-लड़की का होता है। सगाई, फलदान, सगुन, तिलक, आतिशबाज़ी, भावर, ज्योनार, सब धूम-धाम के साथ हो, तभी इन्द्रदेव प्रसन्न होंगे।”

लोगों ने आकाश की ओर देखा। तारे टिमटिमा रहे थे। बादल का धब्बा भी वहाँ न था। पानी न बरसा तो मर मिटेंगे। ढोरों-बैलों का क्या होगा? बढ़ी हुई निराशा ने उन सबको भयभीत कर दिया। लोगों ने नावते की बात स्वीकार कर ली।

चन्दा किया गया। आस-पास के गाँवों में भी सूचना भेजी गई। कुतूहल उमगा और भय ने भी अपना काम किया। यदि नावते के सुझाव को ठुकरा दिया, तो सम्भव है, इन्द्रदेव और भी नाराज़ हो जाएँ? फिर? फिर क्या होगा? चौपट! सब तरफ़ बंटाधार! आस-पास के गाँवों ने भी मान लिया। काफ़ी चन्दा थोड़े ही समय में हो गया।

नावते ने एक जोड़ी मेंढक भी कहीं से पकड़कर रख लिए । एक मेंढक था, एक मेंढकी। ब्राह्मणों की कमी नहीं थी। ब्याह की घूम-धाम का मज़ा और ऊपर से दान-दक्षिणा। गाँव के दो भले आदमी मेंढक-मेढकी के पिता भी बन गए। मुहूर्त शोधा गया- जल्दी का मुहूर्त! बाजे-गाजे के साथ फलदान, सगुन की रस्में अदा की गईं। दोनों के घर दावत-पंगत हुई। मेंढक-मेंढकी नावते के ही पास थे। वही उन्हें खिला-पिला रहा था। अन्यत्र हटाकर उनके मरने-जीने की जोखिम कौन ले?

तिलक-भावर का भी दिन आया। पानी के एक बर्तन में मेंढकी उस घर में रख दी गई, जिसके स्वामी को कन्यादान करना था। उसने सोचा- “हो सकता है, पानी बरस पड़े। कन्यादान का पुण्य तो मिलेगा ही।”

मेंढक दूल्हा पालकी में बिठलाया गया। रखा गया बांधकर। उछल कर कहीं चल देता, तो सारा कार-बार ठप हो जाता। आतिशबाज़ी भी की गई, और बड़े पैमाने पर। एक तो, आतिशबाज़ी के बिना ब्याह क्या? दूसरे, अगर पिछले साल किसी ने आतिशबाज़ी पर एक रुपया फूँका था, तो इस साल कम से कम सवा का धुआँ तो उड़ाना ही चाहिए।

तिलक हुआ। जैसे ही मेंढक के माथे पर चन्दन लगाने के लिए ब्राह्मण ने हाथ बढ़ाया कि मेंढक उछला। ब्राह्मण डर के मारे पीछे हट गया। ख़ैरियत हुई कि मेंढक एक पक्के डोरे से बर्तन में बंधा था, नहीं तो उसकी पकड़-धकड़ में मुहूर्त चूक जाता। कुछ लोग मेंढक की उछल-कूद पर हँस पड़े। कुछ ने ब्राह्मण को फटकारा- “डरते हो? दक्षिणा मिलेगी, पण्डित जी! करो तिलक।”

पण्डित जी ने साहस बटोरकर मेंढक के ऊपर चन्दन छिड़क दिया। फिर पड़ी भावर। एक पट्ट पर मेंढक बांधा गया, दूसरे पर मेंढकी। दोनों ने टर्र-टर्र शुरू की। नावता बोला – “ये एक-दूसरे से ब्याह करने की चर्चा कर रहे हैं।”

ब्राह्मणों ने भावरें पढ़ीं और पढ़वायीं। फिर दावत-पंगत हुई। मेंढकी की विदाई हुई। मेंढक के पिता जी को दहेज भी मिला। मनुष्यों के विवाह में दहेज दिया जाए, तो मेंढक-मेंढकी के विवाह में ही क्यों हाथ सिकोड़ा जाए? पानी बरसे या न बरसे, मेंढक के पिता जी बहरहाल कुछ से कुछ तो हो ही गए। नावता दादा की अंटी में भी रकम पहुँची और इन्द्रदेव ने भी कृपा की।

बादल आए, छाए और गड़गड़ाए, फिर बरसा मूसलाधार। लोग हर्ष मग्न हो गए। नावते की धाक बैठ गई, कहता फिर रहा था – “मेरी बात ख़ाली तो नहीं गई! इन्द्रदेव प्रसन्न हो गए न।”

पानी बरसा और इतना बरसा कि रुकने का नाम न ले रहा था। नाले चढ़े, नदियों में बाढ़ें आयीं। पोखरे और तालाब उमड़ उठे। कुछ तालाबों के बांध टूट गए। खेतों में पानी भर गया। सड़कें कट गईं। गाँवों में पानी तरंगें लेने लगा। जनता और उसके ढोर डूबने-उतराने लगे। बहुत से तो मर भी गए। सम्पति की भारी हानि हो गई। आठ-दस दिन के भीतर ही भीषण बर्बादी हुई। इन्द्रदेव के बहुत हाथ-पैर जोड़े। वह न माने, न माने। लोग कह रहे थे कि इससे तो वह सूखा ही अच्छा था।

फिर नावते की शरण पकड़ी गई अब क्या हो? उसका नुस्ख़ा तैयार था। बोला – “कोई बात नहीं। सरकार ने तलाक़-क़ानून पास कर दिया है। मेंढक-मेंढकी की तलाक़ कराए देता हूँ। पानी बन्द हो जाएगा।”

“पर मेंढको का वह जोड़ा कहाँ मिलेगा?” – लोगों ने प्रश्न किया।

नावते का उत्तर उसकी जेब में ही था। उसने चट से कहा – “मेरे पास है।”

“कहाँ से आया? कैसे?” – प्रश्न हुआ।

उत्तर था – “मेंढक के पिता के घर से दोनों को ले आया था। जानता था कि शायद अटक न जाए।”

पानी बरसते में ही तलाक़ की कार्रवाई जल्दी-जल्दी की गई। तलाक़ की क्रिया के निभाने में न तो अधिक समय लगना था और न कुछ वैसा ख़र्चा। मेंढक-मेंढकी दोनों छोड़ दिए गए। दोनों उछलकर इधर-उधर हो गए।

परन्तु पानी का बरसना बंद न हुआ। बाढ़ पर बाढ़ और जनता के कष्टों का वारापार नहीं।

गाँव छोड़-छोड़कर लोग इधर-उधर भाग रहे थे। एक-दो के मन में आया कि नावता मिल जाए, तो उसका सर फोड़ डालें। परन्तु नावता कहीं नौ-दो-ग्यारह हो गया।

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रचनाएँ
वृंदावन लाल वर्मा की रोचक कहानियाँ
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इन्हे बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये 19 साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’(1908) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति दल’(1909) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था। ये प्रेम को जीवन का सबसे आवश्यक अंग मानने के साथ जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक भी थे। इन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूंजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी। इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं।
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मेंढकी का ब्याह

16 मई 2022
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खजुराहो की दो मूर्तियाँ

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चंद्रमा थोड़ा ही चढ़ा था। बरगद की पेड़ की छाया में चाँदनी आँखमिचौली खेल रही थी। किरणें उन श्रमिकों की देहों पर बरगद के पत्तों से उलझती-बिदकती सी पड़ रहीं थीं। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई अधलेटा। खजु

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'इंशा! इंशा!!' बादशाह जहाँगीर ने इधर-उधर देखकर भरे दरबार में जरा ऊँचे स्वर में अपने भतीजे को पुकारा। अलमबरदार ने बड़े अदब के साथ बतलाया कि शाहजादा शिकार खेलने चले गए हैं। 'शाहजादा - इंशा के लिए! जहाँग

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रज्जब कसाई अपना रोजगार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रकम। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुर

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जब महमूद गजनवी (सन 1025-26 में) सोमनाथ का मंदिर नष्ट-भ्रष्ट करके लौटा तब उसे कच्छ से होकर जाना पड़ा। गुजरात का राजा भीमदेव उसका पीछा किए चल रहा था। ज्यों-ज्यों करके महमूद गजनवी कच्छ के पार हुआ। वह सिं

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मुहम्मदशाह औरंगजेब का परपोता और बहादुरशाह का पोता था। 1719 में सितंबर में गद्दी पर बैठा था। सवाई राजा जयसिंह के प्रयत्न पर मुहम्मदशाह ने गद्दी पर बैठने के छह वर्ष बाद जजिया मनसूख कर दिया। निजाम वजीर ह

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दो सौ वर्ष के लगभग हो गए, जब पूना में रामशास्त्री नाम के एक महापुरुष थे। न महल, न नौकर-चाकर, न कोई संपत्ति। फिर भी इस युग के कितने बड़े मानव! भारतीय संस्कृति की परंपरा में जो उत्कृष्ट समझे जाते रहे है

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कुछ समय हुआ एक दिन काशी से रायकृष्ण दास और चिरगाँव से मैथिलीशरण गुप्त साथ-साथ झाँसी आए। उनको देवगढ़ की मूर्ति कला देखनी थी - और मुझको दिखलानी थी। देवगढ़ पहुँचने के लिए झाँसी-बंबई लाइन पर जालौन स्टेशन

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हिंदी में कुछ-न-कुछ लिखने की लत पुरानी है। सन् 1909 में छपा हुआ मेरा एक नाटक सरकार को नापसंद आया। जब्त हो गया और मैं पुलिस के रगड़े में आया। परंतु रंगमंच पर अभिनय करने पर अभिनय करने का शौक था और नाटक

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दबे पाँव (अध्याय 3)

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चिंकारे का शिकार करछाल के शिकार से भी अधिक कष्टसाध्य है। चिंकारा बहुत ही सावधान जानवर होता है। उसे संकट का संदेह हुआ कि फुसकारी मारी और छलाँग मारकर गया। हिरन संकट से छुटकारा पाने के लिए दूर भागकर दम ल

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दबे पाँव (अध्याय 4)

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एक जगह जमकर बैठने का शिकार काफी कष्टदायक होता है। झाँखड़ या पत्थरों के चारों ओर ओट बना लेते हैं और उसके भीतर जानवरों को अगोट पर शिकारी बैठ जाते हैं-ऐसे ठौर पर, जहाँ होकर जानवर प्रायः निकलते हों। उनके

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दबे पाँव (अध्याय 5)

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हिरन वर्ग के जानवरों के लिए ढूका या ढुकाई का शिकार भी अच्छा समझा जाता है। इस शिकार में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पेट के बल रेंगते हुए भी चलना पड़ता है; पहेल ही कहा जा चुका है। कुछ लोग बंदूक के घोड़

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दबे पाँव (अध्याय 6 )

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चीतल (स्वर्णमृग) हिरन वर्ग का पशु समझा जाता है। परंतु इसके सींग फंसेदार होते हैं। यह बहुत ही सुंदर होता है। इतना सुंदर कि कभी-कभी शिकारी इसके भयानक हानि पहुँचानेवाले कृत्यों को भूल जाता है। इसकी खाल प

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दबे पाँव (अध्याय 7)

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चीतलों के बाद मुझको पहला तेंदुआ सहज ही मिल गया। विंध्यखंड में जिसको 'तेंदुआ' कहते थे, उसकी छोटी छरेरी जाति को कहीं-कहीं 'चीता' का नाम दिया गया है। हिमाचल में शायद इसी को 'बाघ' कहते हैं। तेंदुए की खबर

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दबे पाँव (अध्याय 8)

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खेती को नुकसान पहुँचानेवाले जानवरों से सुअर चीतल और हिरन से कहीं आगे है। मनुष्यों के शरीर को चीरने-फाड़ने में वह तेंदुए से कम नहीं है। सुअर की खीसों से मारे जानेवालों की संख्या तेंदुए की दाढ़ों और नाख

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दबे पाँव (अध्याय 9)

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मैं संध्या के पहले ही बेतवा किनारे ढीवाले गड्ढे में जा बैठा। राइफल में पाँच कारतूस डाल लिए। कुछ नीचे रख लिए। रातभर बैठने के लिए आया था, इसलिए ओढ़ना-बिछौना गड्ढे में था। अँधेरा हुआ ही था कि एक छोटी सी

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दबे पाँव (अध्याय 10)

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एक बार जाड़ों में पहाड़ की हँकाई की ठहरी। लगान लग गए। मैं पहाड़ की तली में बैठ गया और शर्मा जी चोटी पर। बीच में अन्य मित्र लगान पर लग गए। हँकाई होते ही पहले साँभर हड़बड़ाकर निकल भागे। हँकाई में पहले

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दबे पाँव (अध्याय 11)

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साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं। जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग मे

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दबे पाँव (अध्याय 12)

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एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर

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दबे पाँव (अध्याय 13)

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अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी। जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थ

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मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर

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मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भ

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दबे पाँव (अध्याय 16)

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एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया। मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होक

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दबे पाँव (अध्याय 17)

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जंगली कुत्ते का मैंने शिकार तो नहीं किया है, परंतु उसको देखा है। जिन्होंने इसके कृत्यों को देखा है वे इस छोटे से जानवर के नाम पर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। रंग इसका गहरा बादामी होता है, इसलिए शायद इस

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भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है। भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-

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दबे पाँव (अध्याय 19)

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भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव क

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दबे पाँव (अध्याय 20)

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जंगल में शेर और तेंदुए से भी अधिक डरावने कुछ जंतु हैं - साँप, बिच्छू और पागल सियार। अजगर का तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि वह काटने के लिए आक्रमण नहीं करता है, भक्षण के लिए पास आता है; और जहाँ तक मैंने द

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जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं। अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का क

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दबे पाँव (अध्याय 22)

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शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले। संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं

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शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती

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दबे पाँव (अध्याय 24)

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लौटने पर किसी ने कहा तलवार पास रखनी चाहिए, किसी ने कहा छुरी। तलवार और छुरी का उपयोग शिकार में हो सकता है; परंतु मैं तलवार से छुरी को ज्यादा पसंद करूँगा और छुरी से भी बढ़कर लाठी को, और लाठी से बढ़कर क

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दबे पाँव (अध्याय 25)

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यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती ह

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रिहाई तलवार की धार पर

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बंदा बैरागी और उसके सात सौ सिख साथियों के कत्ल का दिन आ गया। ये सब बंदा के साथ गुरदासपुर से कैद होकर आए थे। बंदा ने स्वयं खून की होली खेली थी, इसलिए उसके मन में किसी भी प्रकार की दया की आशा या प्रार्थ

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सच्चा धर्म

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हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफी संख्या में आ बसे थे; कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम-जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इनमें भी उन्नाव दरवाजे की तरफ मेवाती और बड

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शाहजादे की अग्निपरीक्षा

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दिल्ली का बादशाह जहाँगीर सन 1605 में राजसिंहासन पर बैठा था। उसे दस-बारह साल राज करते-करते हो गए थे। जहाँगीर सूझ-बूझवाला व्यक्ति था; परंतु कभी-कभी दुष्टता का भी बरताव कर डालता था। उसमें सनक भी थी। जहा

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शेरशाह का न्याय

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वह नहा रही थी। ऋतु न गरमी की, न सर्दी की। इसलिए अपने आँगन में निश्चिंतता के साथ नहा रही थी। छोटे से घर की छोटी सी पौर के किवाड़ भीतर से बंद कर लिए थे। घर की दीवारें ऊँची नहीं थीं। घर में कोई था नहीं,

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शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी

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'इस क़ैदी को शाह के सिपुर्द कीजिये ।' अहमदशाह अब्दाली के दूत ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से युद्ध की समाप्ति पर कहा । सन् १७६१ में पानीपत के युद्ध में मराठे हार गये थे। कई सरदारों के साथ मराठों का सरद

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पहले कौन?

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मेवाड़ और मारवाड़ (जोधपुर) में परस्पर बहुत वैर बढ़ गया था। बात लगभग तीन सौ वर्ष पुरानी है। मेवाड़ की सीमा पर जोधपुर राज्य का एक गढ़ था। गढ़ खँडहर हो गया है और खँडहरों का नाम क्या! जोधपुर अपनी आन पर थ

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लुटेरे का विवेक

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बात बारहवीं शताब्दी के अंत की है। मुहम्मद साम दिल्ली का सुल्तान था और भीम द्वितीय गुजरात का राजा। भीम ने लगभग इकसठ वर्ष राज किया। वह सिद्धांत पर चलता था, जिसे सत्रहवीं शताब्दी में छत्रसाल ने यों व्यवह

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इंद्र का अचूक हथियार

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तपस्वी की साधना की जो प्रतिक्रिया हुई, उससे इंद्र का इंद्रासन डगमगाने लगा। तपस्या भंग करने के उपकरण इंद्र के हाथ में थे ही। उसने प्रयुक्त किए। तपस्वी के पास मेनका अप्सरा अपने साज-बाज के साथ जा पहुँची।

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वृंदावनलाल के जीवन के प्रेरक प्रसंग

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सच्चा इतिहास मैं लिखूँगा मनुष्य के जीवन में एकाध घटना ऐसी गुजरती है, जो संवेदनशील मन को झनझना देती है। जिस घटना ने वृंदावनलाल वर्मा के मन को झकझोरकर उन्हें इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया, वह घटना उ

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