मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भी प्राप्य थे। विष्णुगुप्त चाणक्य ने तो इनका जिक्र किया ही है। अकबर के युग में भी ये प्राप्य थे और आज से लगभग सौ वर्ष पहले तक इनकी उपस्थिति के प्रमाण मिलते हैं। अब तो इनका शिकार खेलने के लिए हमारे यहाँ के साधनसंपन्न शिकारियों को हिमालय की तराई और असम के जंगलों में जाना पड़ता है।
अब भी विंध्यखंड के जंगलों में जो कुछ है, कुतूहल के लिए बहुत है। बंगाल का नाहर अपने बल-विक्रम और सौंदर्य के लिए विख्यात है; परंतु मंडला, बालाघाट और बिलासपुर के जंगलों में उससे भी बड़े शेर पाए जाते हैं। शिकार संबंधी एक पुरानी पुस्तक में मैंने बारह फीट की लंबाईवाले शेरों का हाल पढ़ा है। अब भी दस-ग्यारह फीट की लंबाई वाले दुष्प्राप्य नहीं हैं। बड़े-बड़े भालू, अरे भैंसे, काले रंग के तेंदुए और जंगली कुत्ते इन जंगलों में बहुतायत से पाए जाते हैं।
बिलासपुर जिले में एक साधन के सहारे हम लोग कई मित्र एक दिन जा पहुँचे। रात को छकड़े किराए पर किए। दूसरे दिन, 'नानबीरा' नामक गाँव में पहुँचना था। सवेरा होने पर मार्ग में 'सरगबुंदिया' नाम का गाँव मिला। इस गाँव का नाम सरगबुंदिया - स्वर्गबिंदु क्यों पड़ा, मुझको इस बात की खोज करने का मोह हुआ। गाँव में दो पोखर थे। दोनों में लोग नहाते थे और उसका पानी भी पीते ते। आस पास पानी का और कोई ठिकाना न था। कम-से-कम, गरमियों की ऋतु में, मुझको नहीं दिखलाई पड़ा। गाँव खासा था और पानी के केवल दो पोखर। मैंने सोचा, स्वर्ग की ये दो बूँदें इस गाँव को सरगबुंदिया की संज्ञा प्रदान कर रही हैं।
सरगबुंदिया में अपना भोजन और उसका पानी पीकर हम लोग संध्या के पहले नानबीरा पहुँच गए। जंगलों, पहाड़ों से घिरा हुआ नानबीरा बड़ा गाँव है। वहाँ एक स्कूल भी है। ईस्टर की छुट्टियों के कारण स्कूल बंद था। हम लोगों के पास बिलासपुर जिला बोर्ड के एक कर्मचारी - श्री मानिकम् थे। उनकी कृपा से स्कूल में ठहरने की सुविधा मिल गई। जब हम लोग स्कूल के अहाते में पहुँचे, कुछ लड़के खेल रहे थे। लड़के संकोच में आकर वहाँ से खिसकने को हुए। मैंने रोक लिया। थोड़ी सी बातचीत की।
मैंने पूछा, 'तुम लोगों ने शेर देखा है?'
उत्तर मिला, 'हाँ।'
'भालू, तेंदुआ, भेड़िया?'
'सब देखे हैं।'
'तुम लोग मांस खाते हो?'
'हाँ।'
'किस-किस का?'
इस पर लड़के एक-दूसरे का मुँह ताककर हँसने लगे।
मैंने अनुरोध किया, 'सकुचो मत। बतलाओ?'
एक लड़का बोला, 'ये लोग चूहा और कौआ भी भी खाते हैं। हम लोग नहीं खाते।'
'चूहा और कौआ!' मुझको आश्चर्य हुआ।
मैंने प्रश्न किया, 'तुम लोग कौन, जो चूहा और कौआ नहीं खाते?'
'मुसलमान।' उस लड़के ने उत्तर दिया।
'और ये लोग कौन हैं, जिन्हें चूहा और कौआ भी हजम है?' मैंने पूछा।
लड़के ने हँसकर उन लोगों की जाति बतलाई।
मैंने कहा, 'तब तो तुम्हारे घरों में भी चूहे और जंगलों में कौए होंगे ही नहीं।'
बाकी लड़के भी वार्तालाप में भाग लेने लगे।
एक हिंदु बालक बोला, 'चूहे तो बहुत हैं, पर जंगलों में कौए बहुत नहीं हैं।'
मुझे झाँसी जिले के कौओं की याद आ गई। कुआर के महीने में नगरों और कस्बों में तो इनकी काँव-काँव के मारे नाको दम आ ही जाता है, जंगलों में इनके झुंड़ों के मारे संध्या बेसुरे कोलाहाल के मारे बेचैन सी हो जाती है। एक झुंड में ही सैकड़ों-हजारों। बगीचों के फलों और खेतों के अनाज को नष्ट करने में ये तोतों को भी मात दे देते हैं। मैंने सोचा, या तो नानबीरा हमारे यहाँ पहुँच जाएँ या हमारे यहाँ के कौए नानबीरा की ओर पधार जाएँ तो निष्कृत मिले। परंतु इसस प्रकार तो समस्या हल होती नहीं।
रात के जागे और दिन के थके थे, इसलिए रात भर मजे में सोए।
सवेरे लगभग सौ गोंड, कोल और बैगा हम लोगों के पास आ गए। शिकार उनका जीवन और मनोरंजन है। खेती कम और जंगल अधिक सहारा है।
उनके केश सुंदर और कंघी किए हुए। शरीर दृढ़ मांसल, रग-पुट्ठे वाले- और चिकने। छोटी धोती, लँगोट या जाँघिया कसे हुए। किसी किसी के हाथ में चाँदी के चूड़े। अधिकांश तीर कमान कसे हुए। बहुतेरों के कंधे पर तेज धारवाली कुल्हाड़ी - वे उसे 'टँगिया' कहते थे। कुछ के हाथ में लाठियाँ और छोटे बरछे। उनमें से थोड़े से ढोल और ताशे भी लिए थे।
उनके बीच में एक मटका रखा हुआ था। मटके में महुए की शराब थी। वे थोड़ी-थोड़ी चुल्लुओं पी रहे थे। मेरे मन में आया, इनको एक व्याख्यान देकर सुधार की भावना जाग्रत करूँ। तुरंत भीतर मैंने कुछ टटोला। मैं व्याख्यान देनेवाला कौन? यदि इनको अधिक भोजन, अधिक पैसे, अधिक शिक्षा, अधिक कपड़े, दवा-दारू और अच्छी दिशा दे सकूँ तो इनका देशवासी कहलाने की पात्रता रख सकता हूँ, नहीं तो ये जैसे हैं मुझसे अच्छे हैं। चेहरे पर सहज मुस्कान है; भाव इनका सीधा, सरल, निर्भीकता से भरा हुआ है। हम इनसे कुछ ले सकते हैं, दे इन्हें क्या सकते हैं?
सुधार की भावना को ताक में रखकर मैं उनके बीच में पहुँच गया। जाग्रत मानव के सब हर्ष, समग्र ओज उनमें मौजूद थे- कठिनाइयों और पीड़ाओं, विपत्तियों और दुःखों से लड़ जाने का मनोबल उनमें प्रतीत होता है।
शहर के अधकचरे, अधबुझे हम लोग श्रद्धा के मारे झुक गए।
उनके अगुआ से शिकार के कार्यक्रम पर बातचीत होने लगी। उसने हाँके के लिए एक विशेष पहाड़ को चुना। आशा की गई कि शेर और भालू मिलेंगे।
हम लोग पहाड़ की ओर चल दिए। लगान लगानेवाले ने बंदूकवालों को यथास्थान खड़ा कर दिया। मैं अपने एक मित्र के साथ ऐसे स्थान पर खड़ा किया गया जहाँ महीने-डेढ़ महीने पहले एक अँगरेज स्त्री को शेर ने हाँके से निकलकर चबा डाला था। जगह-जगह पेड़ों पर मचान बँधी हुई थी। शेर के शिकार का अनुभव नहीं था, इसलिए हम लोग मचान पर नहीं गए, नीचे ही खड़े रहे। पहाड़ की तली में थे। पहाड़ पर से हँकाई होती आ रही थी।
ढोल, ताशों और कई प्रकार के वाद्यों का तुमुल नाद होता चला आ रहा था। हम लोग प्रतीक्षा की धुकधुकी में खड़े थे अपने-अपने स्थानों पर। मेरे अन्य मित्रों की भी यही अवस्था रही होगी।
इस हँकाई में एक सुअर के सिवाय और कुछ नहीं निकला। यह सुअर हमारे लगान के सामने उँचाई पर से निकला। 'धाँय-धाँय!' हम दोनों ने एक साथ बंदूकें चलाईं। सुअर के अगले जोड़ पर दोनों गोलियाँ पड़ी। दोनों मे केवल दो इंच का अतर था। हाँकेवाले उत्सुकता के साथ हम लोगों के पास आए। सुअर को पाकर वे बहुत प्रसन्न हुए।
दूसरी हँकाई के लिए आध मील दूरी पर एक और पहाड़ चुना गया। अब की बार हम लोग अत्यंत असावधानी के साथ खड़े हो गए। किसी किसी ने तो केवल पेड़ की ओट ले ली। हम दोनों ने आम पेड़ के पत्ते तोड़कर आड़ बना ली ऐसी कि उसको खरहा भी तोड़ डालता।
हँकाई होने के थोड़े ही समय बाद एक और बंदूक चली, फिर एक और। सामने से दो बड़े रीछ आते हुए दिखलाई पड़े। मेरी बगल में कुछ फासले पर एक आया। मेरे साथी मित्र की पहली गोली से घायल होकर वह लौटा और वे स्थान छोड़कर उसके पीछे दौड़े। उन्होंने भागते हुए रीछ पर गोलियों की वर्षा कर दी। बारह-तेरह चलाईं; परंतु लगी एक भी नहीं। रीछ परेशान होकर एक पेड़ पर चढ़ा।
वह सीधा ही चढ़ा, बड़ी फुरती के साथ। लोगों का खयाल है कि रीछ उलटा चढ़ता है। यह गलत है। वह उलटा भी चढ़ सकता होगा, परंतु साधारणतया चढ़ता सीधा ही है।
मेरे मित्र ने एक गोली और चलाई। रीछ नीचे आ गिरा।
फिर एक हँकाई और हुई। दूसरे दिन भी हँकाईयाँ हुई; परंतु मिला कुछ नहीं। हाँ रीछों के कुछ अद्भुत किस्से जरूर सुनने को मिले। उनमें से एक विलक्षण था।
एक अँगरेज शेर के शिकार के लिए आया। मचान पर अकेला जा बैठा। नीचे किसी मरे हुए जानवर का गायरा रख लिया था। कुछ रात बीतने पर गायरे के पास एक रीछ आया। रीछ ने गायरे को सूँघा था कि झाड़ी के पीछे छिपे हुए शेर ने रीछ पर तड़प लगाई। रीछ बलबलाता हुआ भागा और पेड़ पर चढ़ गया और मचान की ओर बढ़ा, जहाँ अँगरेज शिकारी बैठा हुआ था। मारे डर के अँगरेज की जो हालत हुई होगी उसका तो अनुमान किया जा सकता है, परंतु ऐसे अप्रत्याशित स्थान पर आदमी को बैठे देखकर रीछ की जो दशा हुई उसका प्रयत्क्ष फल यह हुआ कि वह हड़बड़ाकर नीचे जा गिरा। शेर ने उसको समाप्त कर दिया। ऊपर से जो गोली पड़ी तो शेर उससे समाप्त हो गया।
जंगलों में शेर इत्यादि की जो कहानियाँ सुनने को मिलती हैं। उनमें से अधिकांश का आधार सच होता है; परंतु कुछ नितांत कल्पनाप्रसूत होती हैं।
जंगल के रहनेवाले लोगों में जितने भालू के नाखूनों से घायल होते हैं उतने और किसी से नहीं। इसके नाखून पंजे की गंद्दी से बाहर निकले रहते हैं और बहुत लंबे होते हैं। यह आसानी के साथ पालतु कर लिया जाता है; परंतु जंगली अवस्था में काफी दुःखदायक होता है। शरीर का छोटा, परंतु बाल बड़े-बड़े होने के कारण विहंगम दिखलाई पड़ता है। जड़ों और फलों का प्रेमी होता है। पेड़ों पर चढ़कर आराम के साथ शहद तोड़ खाता है। मधुमक्खियाँ इसका कुछ नहीं बिगाड़ पातीं, क्योंकि काटने के प्रयत्नों में उसके बालों में ही उलझ जाना पड़ता है। किसी की खाल पर जीभ को कसकर फेरे तो खून निकल आवे। कुछ लोगों की कल्पना है कि यह हाथों में लपेटकर, आदमी से चिपटकर थूक से अँधा कर देता है और उसका कचूमर निकाल देता है। इसके थूक में ऐसा कोई विष नहीं होता है, और क्रोध में सभी पशु मुँह से झाग फेंक उठते हैं। चिपट जरूर यह जाता है और नाखूनों से बेतरह चीड़-फाड़ करता है। इसको सुनाई कम पड़ता है। आँख के ऊपर बालों के लटकने के कारण देख भी अच्छी तरह नहीं पाता। जाड़ों में झोरों और लंबी घास वाले मैदानों में पड़ा रहता है। जहाँ कोई असावधान मनुष्य पास तक पहुँचा कि यह जागा और चिपट पड़ा। मनुष्य ने देख नहीं पाया। और भालू ने दूर से ही आहट नहीं ले पाई, फल भालू का घोर और विकट आलिंगन। यदि उस आलिंगन से प्राण न निकले तो कई सप्ताह अस्पताल का सेवन तो करना ही पड़ता है।
गाँवों और नगरों में जिस रीछ का पीछा बच्चे हा हा, हू-हू नहीं अघाते और वह बिलकुल नहीं चिढ़ता, जंगल का तोहफा होते हुए भी प्रकृत्ति में अपने भाईबंदों से बिलकुल अलग पड़ जाता है। इतने सीधे जानवर की ऐसी निंदा! पर वह है यथार्थ।