शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले।
संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं - काफी हँसोड़ भी हैं। शिकार में दो-एक बार मेरे साथ गए। जंगल में तो उन्होंने नहीं गाया, गाने की धुन में तो उनको तबले-तँबूरे की अटक ही नहीं रहती, परंतु शिकार से लौटने पर उन्होंने तानों की वर्षा कर दी।
जब शिकार के मोरचों पर नहीं होते तब बातें भी काफी करते हैं।
एक बार यात्रा करते हुए लौट रहे थे। गाड़ी के पीछे सामान रखा था, बीच में मेरे जूते रखे हुए थे। उस्ताद लखनऊ संबंधी अपने कुछ अनुभव सुना रहे थे।
कहते जाते थे 'एक बार मैं लखनऊ की एक रईसी दावत में फँस गया। खानेवालों के सामने सजा-सजाया बढ़िया खाना, पर थोड़ा-थोड़ा ही। इसपर भी इतना तकल्लुफ कि जो देखो, सो परोसनेवाले से कहे - अजी बस, अजी बस। यही पड़ा रह जावेगा, ज्यादा मत परोसो। मैंने सोचा, इनको तकतल्लुफ में भी मात देना पड़ेगा। मैंने ग्रास उठाया, सूँघा और रख दिया, सूँघा और रख दिया। मेरी कार्रवाई को देखकर लखनऊ के एक साहब ने कहा - 'उस्ताद, आप तो कुछ भी नहीं खा रहे हैं, यह क्या? मैंने जवाब दिया, 'साहब, मैं तो खुशबू से ही पेट भरनेवालों में हूँ।' जब दावत समाप्त हो गई, आँतें कुलबुला उठीं। मैंने बहाना लेकर बाजार का रास्ता पकड़ा और एक दूकान पर जाकर अपने बुंदेलखंडी पेट को डाटकर भरा।'
उस्ताद ने हँसते हुए एक दूसरी कहानी छेड़ी - 'लखनऊ से एक साहब शिकार के सिलसिले में झाँसी आए। विकट बीहड़ जंगल पहुँचे। मुझसे बोले, 'मियाँ, आपकी बंदूक गोली बरसाती है और हमारा मुँह ही गोले छोड़ देता है।' मैं जवाब देने के लिए परेशान हो रहा था कि एक जगह साँभर की लेंड़िया का ढेर दिखलाई दिया। मैंने लखनऊवाले मेहमान से कहा, 'जनाब, जरा उस ढेर को देखिए। हमारे यहाँ के जानवर लोहे की लेंड़ियाँ करते हैं।' मेहमान मारे पसीने के तर हो गए।'
उस्ताद की गप खत्म हुई थी कि गाड़ी के पीछे की तरफ आँख गई। सब सामान, बिस्तरे-विस्तरे गायब। दुपहरी का समय था, परंतु गपशप में सामान का खिसक जाना मालूम ही न पड़ा। सामान के साथ मेरे जूते भी चल दिए थे। सामान और बिस्तरे उस्ताद के ही थे, इसलिए वे सारी गपशप भूल गए।
बेचारे गाड़ी पर से उतरे। काफी लंबी दौड़धूप की। सामान मार्ग में पड़ा मिल गया। मेरे जूते खो गए।
परंतु कभी-कभी ऐसे साथी भी मिल जाते हैं कि त्राहि-त्राहि करनी पड़ती है।
तंदुए या शेर के लिए जो मचान बाँधी जाय, उसपर अकेले बैठना सबसे अच्छा। कोई साथ में बैठे तो पहली शर्त यह है कि बातचीत बिलकुल न करे और दूसरी यह कि खाँसता न हो।
यदि जरा सी भी आहट हो गई तो चाहे मचान पर कोई दिन-रात बैठा रहे, शेर तो आवेगा नहीं; तेंदुआ शायद दुबारा आ जाए, क्योंकि वह बहुत ढीठ होता है।