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खजुराहो की दो मूर्तियाँ

16 मई 2022

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चंद्रमा थोड़ा ही चढ़ा था। बरगद की पेड़ की छाया में चाँदनी आँखमिचौली खेल रही थी। किरणें उन श्रमिकों की देहों पर बरगद के पत्तों से उलझती-बिदकती सी पड़ रहीं थीं। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई अधलेटा। खजुराहो के निवासियों और मंदिरों में चहल-पहल थी।

जो बैठा था, उससे एक श्रमिक ने कहा, 'बीसल, महोबे से जो कारीगर आज आया है, कहता था कि मंदिर के गर्भगृह के चारों ओर दीवार में बारीक जाली का काम किया जाए तो कैसा रहे?'

बीसल बोला, 'कठिन नहीं है। कोमल जाति के पत्थर में बारीक-से-बारीक जाली छेदी जा सकती है; परंतु अपने यहाँ प्रथा नहीं है।'

'हाँ, मंदिर में देखी तो हमने भी नहीं है, परंतु महोबेवाले ने क्यों कहा? मंत्री ने कहा होगा।'

'मंत्री ने कहा हो या न कहा हो, मुल्तान से जो कारीगर लौटे हैं वे जाली, बेलबूट और पत्तियों के काम को ही बहुत कुछ समझने लगे हैं। उस काम में परिश्रम अधिक है, पर मन की उड़ान के लिए अवकाश कम है; और फिर गुरु लोगों ने जो नाप-तौल, आकार-प्रकार मंदिरों के बनाने और सजाने के लिए सतयुग से निश्चित कर रखे हैं, उनकी अवहेलना कैसे की जा सकती है! पत्थर में जालियाँ और बेलबूटे लगाने में विवेक ही कितना लगाना पड़ता है!'

'बहुत सीधी भी नहीं है। उसमें जो पच्चीकारी की जाती है, वह तो बहुत परिश्रम लेती है।'

बीसल की बात आक्षेप करनेवाले की समझ में नहीं आई। बीसल पढ़ा-लिखा था और अन्य शिल्पी उसको गुरु मानते थे। गूढ़ बात को समझ न पाने पर 'हाँ' मिलाने और स्थगित अवसर की ताक में लगे रहने की कुछ परंपरा-सी थी। पर उस श्रमिक ने फिर नम्रता से पूछा, 'बीसल, आदर्श का मूर्त करना क्या?'

उत्तर मिला, 'अपने वहाँ आँखों के सामने नित्य आनेवाले स्त्री-पुरुषों की आकृति को पत्थर पर या पत्र पर नहीं उतारते; श्रद्धा, भक्ति, वासना, लालसा, मोह, विशालता के भावों को हृदय में मथकर फिर उनको लक्षणों के अनुसार सुंदरता की लचकों और लोचों में बिठलाते हैं। मेरा प्रयोजन इसी से था।'

'पर... पर गर्भगृह के चारों ओर जालीदार पत्थर लगा देने से तो गुरुओं की बतलाई गई परिपाटी का बिगाड़ कहाँ होता है! निषेध तो सुना नहीं है; परंतु तुम हम सबसे बहुत अधिक पढ़े-लिखे और जानकार हो, यदि हो तो बतलाओ?'

'यह तो सोचो कि गर्भगृह में स्थित देवता को कुछ समय के लिए विश्राम भी मिलना चाहिए या वह जाली में निरंतर देखता ही रहे!'

गर्भगृह के द्वार के पट खुलने और बंद होने का समय तय था। यह बात प्रश्न करनेवाले को मालूम थी और तुरंत ध्यान में आ गई। उसने हामी भी भर दी। परंतु उसके भीतर किसी ने कहा, 'देवता तो सर्वदा और सर्वत्र सजग रहता है और मंदिर के भीतर तथा बाहर स्त्री-पुरुष के नंगे व अश्लील प्रतिबिंब हैं। क्या देवता उनको न देखता होगा?' और आगे सोचने का साहस उसमें न था। बीसल ने भी कुछ सोचा।

परंपराजन्य श्रद्धा और अंधभक्ति भी मन के भीतर की ठेस को पूरे प्रकार से न दबा सकी - न तो उस शिल्पी की और कम-से-कम थोड़े से अंशों में, न बीसल की।

मंदिर बन चुका था। कालंजर से चंदेल नरेश गंड का मंत्री देखने के लिए आया। निरीक्षण के उपरांत उसने बीसल और उसके सहयोगी शिल्पियों और श्रमिकों की सराहना की, पुरस्कार बाँटे।

दूर-दूर के नर-नारी उत्सव देखने के लिए आए थे। अश्लील मूर्तियों को देखकर थोड़े-बहुतों ने नाक-भौंह सिकोड़ी। उनके विचार ने सांत्वना दी - शिवजी को ठगने के लिए कामदेव ने जो जाल फैलाया था, उसकी प्रतिमाएँ ही तो मूर्तियाँ हैं और शिव जैसे अडिग, निश्चल और स्थिर रहे, उसके प्रतीक मंदिर के भीतर हैं।

यह सांत्वना कहीं खुले रूप में, कहीं मन-ही-मन खजुराहो के उन मंदिरों के निकट आने वाले सभी जनों के भीतर उभार पा रही थी। वसंत पंचमी से लेकर चैत्र की अमावस्या तक यह उत्सव कम-बढ़ रूप में चलता रहा।

एक दिन बीसल के उस सहयोगी ने कहा, 'गुरु, बहुत से लोग कहते हैं कि यह संसार निस्सार है, केवल माया है; परंतु बाह्य भाग की इन मूर्तियों को देखकर जिनको पत्थर से हमीं लोगों ने गढ़ा है, यह बात तो मन में नहीं रमती। लगता है जैसे वासना का फूल ही सब कुछ हो, जैसे इस प्रकार का जीवन ही सुखदायक हो।'

बीसल बोला, 'भाई, इन मूर्तियों की अश्लीलता मोहक नहीं है। इनका सुडौलापन ही आकर्षक है। माया अश्लील और वीभत्स है; माया रचनेवाला सुडौल है। सुडौलपने का स्मरण रखो और वीभत्स को मन में न बसने दो। बस!'

'माया को रचनेवाला सुडौल! समझा नहीं?'

'इन मूर्तियों की अश्लीलता को मोह का रूप देनेवाला उनका सुडौलपन ही है न! अंग-उपांग उनके बेडौल कर दो, फिर वे सब पैशाचिक और भयावनी हो जाएँगी। पुष्पधन्वा का काम मोहमय है, परंतु वह स्वयं सुंदर और सुरूप है।'

बीसल के सहयोगी का मन नहीं भरा; परंतु किसी कुंठा ने उसकी जिज्ञासा का दमन कर दिया। फिर भी वह दूसरे रूप में प्रकट हुई।

'संसार में कितनी दुर्बलता है! अपनी आँखों के सामने कितने जर्जर और अस्थि-पंजरवाले नर-नारी नित्य आते-जाते हैं - कितने वृद्ध और रोगग्रस्त! जीवन की निस्सारता का क्या यही वास्तविक रूप नहीं?'

'उसके अनंतर अवसान का? मृत्यु का?'

'हाँ, मैं भी यही कहना चाहता था।'

'परंतु समय तो बाल्य, मध्याह्न, अपराह्न, अस्त और रात्रि में बँटा हुआ है। उसके एक ही अंग पर सबसे अधिक ध्यान क्यों लगाया जाए ?'

'कामवासना के भिन्न-भिन्न दृश्य रूपों के साथ ही, उनकी बराबरी यदि जर्जर और अस्थि-पंजर नर-नारियों की कुछ मूर्तियाँ भी रखी जाएँ तो कैसा रहे?' लोग स्मरण रखेंगे कि किसी दिन यह अवस्था भी सुडौल देह की हो जाएगी, इसलिए बहुत पहले से ही उसका सामना करने के लिए जीवन को सुधरे हुए रूप में चलाया जाए।'

बीसल विचार करने लगा। कुछ क्षण बाद बोला, 'बनाऊँगा। बनाकर मंत्री महाशय के सामने रखूँगा। यदि उन्होंने मान लिया तो जैसा तुमने कहा है, उसी भाँति उनको रखवा दिया जाएगा। साथ-साथ और बराबरी पर तो वे मूर्तियाँ न रह सकेंगी, परंतु उनके ठीक नीचे रख दी जाएँगी। लोग सहज ही उनको निरख सकेंगे।'

बीसल और उसके सहयोगी शिल्पी मनुष्य देह के सारे अंगों से परिचित थे, उसके निरे ढाँचे से भी। उत्सव की समाप्ति के पहले ही उन लोगों ने बड़े श्रम और कौशल के साथ एक वृद्ध और वृद्धा की मूर्तियाँ बनाईं। मूर्तियों की हड्डी पसलियों पर पत्थर में ही खाल उढ़ाई; सिर पर गंज, आँखों में अभिव्यक्ति विहीनता - सब राई-रत्ती स्पष्ट और सम्यक।

बीसल और उसके सहयोगियों ने उन मूर्तियों को शिव मंदिर के बाह्य कक्ष में अश्लील मूर्तियों के नीचे जा रखा। जनता ने देखा और मंत्रियों ने भी।

अस्थि-पंजर की मूर्तियों को देखते ही मंत्री को एक धक्का-सा लगा। अंत में इस देह का यह होगा! बार-बार यह भाव मंत्री के मन में उठा। फिर उसकी आँख उत्सव के प्रमोदों में मग्न, रंग-बिरंगे वस्त्र पहने हुए हँसते-खेलते नर-नारियों पर घूमी। क्या ये सब इन मूर्तियों को देखकर इसी प्रकार को अपने मानस में अंकित कर सकेंगे? अंकित करने के बाद फिर? मंत्री के मन में प्रश्न उठे। उसकी दृष्टि अश्लील मूर्तियों की ओर गई। ये प्रसून परिमल के उन्माद हैं, प्रमाद हैं और कदाचित् प्रलाप - ये भी अवहेलना, उपेक्षा और ग्लानि दे सकती हैं; संभव है विरक्ति भी - मंत्री ने सोचा। क्या दोनों को एक ही स्थान पर रहने दिया जाए? एक के प्रभाव का मर्दन दूसरी मूर्ति करेगी? अथवा दोनों प्रकार की मूर्तियाँ परस्पर सहयोग से एक ही परिणाम पर मानव को पहुँचाते रहने का क्रम स्थापित करेंगी विरक्ति पर? मंत्री का विवेक निर्णय न कर सका। उत्सव के उल्लास के साथ आँख मिचौली सी खेलती हुई जनता के एक भाग ने भी उन मूर्तियों को नेत्रों से टटोला।

किसी ने क्षण के एक अंश में अश्लील मूर्तियों पर आँख को घुमाकर हड्डी-पसलीवाली मूर्तियों पर देर तक ध्यान को ठहराया। ओठ बिदराए और चल दिया। कोई दोनों प्रकार पर एक साथ दृष्टि डालता हुआ आगे बढ़ गया - ध्यान उसका एक पत्थर पर भी स्थिर न हुआ। कुछ लोग मंत्री के व्यक्तित्व और व्यक्तित्व को ढकेलनेवाले वस्त्रों और आभूषणों को देखते रहे। एक सुंदरी वहाँ होकर निकली। अश्लील मूर्तियों को देखते ही उसका चेहरा लाल हो गया। बीसल को देखकर वह लजाई। अस्थि-पंजरवाली मूर्तियों पर जैसी ही उसकी आँख गई, वह काँप गई और फिर भ्रू संकुचित करके वहाँ से तुरंत चली गई।

बीसल ने यह सब परखा।

मंत्री कोई भी निर्णय न कर सका।

उसने बीसल से कहा, 'तुम्हारी छेनी-हथौड़ी के सूक्ष्म शिल्प पर सारे पुरुषकार न्योछावर हैं। तुम इन दो मूर्तियों को जहाँ चाहो रखो, तुम्हारे ही निर्णय पर छोड़ता हूँ।'

मंत्री चला गया। बीसल निश्चय-अनिश्चय के द्वंद्व में झूलने लगा।

बीसल के मन में किसी ने कहा, 'तुम्हारी दोनों कृतियों में शिल्प कौशल की पराकाष्ठा है। दोनों एक ही जीवन के भिन्न भिन्न रूप हैं... परंतु....' किसी ने भीतर-ही-भीतर टोका।

'पर क्या सौंदर्य अश्लीलता से अलग नहीं किया जा सकता? क्या सुरूप की रेखाएँ, लोचें, लचकें वीभत्स की बाहुओं में भर देनी चाहिए?'

बीसल ने सोचा, 'तो क्या तांत्रिक भ्रम में है?'

एक क्षण उपरांत वह एक निर्णय पर पहुँचा हो या न पहुँचा हो, परंतु बहुजन उनकी बातों को मानते हैं। उनकी अंतर्निहित वासनाओं को संतोष देने के लिए हम लोगों ने शिल्प का उपयोग किया है। हम कर भी क्या सकते थे?

अश्लील मूर्तियों के वीभत्स से ध्यान हटाकर बीसल ने उनके अंग-सौंदर्य और रचना-कौशल पर जमाया, फिर अस्थि-पंजरवाली मूर्तियों को देखा।

बीसल ने जर्जरता की उन मूर्तियों को मंदिर से हटा दिया। मंदिर के कुछ दूर एक घेरे में खंडित, अनगढ़ और अस्वीकृत मूर्तियों का संग्रह था। उन्हीं में बीसल ने उन दोनों मूर्तियों को रख दिया। उनकी रचना पर उसको हर्ष था और रचना के परिणाम पर विषाद।

'क्या जीवन यह नहीं है? और क्या वह भी जीवन नहीं है? यदि जीवन का अंत इन हड्डी-पसलियों में ही है और उसका विकास उन मूर्तियों में ही, तो फिर जीवन के किस अंग की मूर्तियाँ बनाया करूँ?'

किसी ने बीसल के भीतर से उत्तर दिया, 'पसीना बहाते और हँसते-खेलते हुए यदि भ्रम से अस्थि-पंजर भी बनाओ तो चाहे तांत्रिक कुछ कहें और चाहे श्रमण-श्रावक कुछ, तो बुरा भी क्या है?'

खजुराहों के मंदिर समूह के निकट ही हड्डी-पसलियों और झुर्रीदार काल वाली वे दोनों मूर्तियाँ एक घेरे में रखी हुई हैं। खजुराहो के मेले में सम्मिलित होने वाले लोग इनको भी देखते हैं; परंतु क्या वे कुछ वैसा ही सोचते होंगे जैसा बीसल ने सोचा था?

Krishna Tripathi

Krishna Tripathi

बहुत बढ़िया , हमारी भी रचनाओं पर जरा ध्यान दीजियेगा

16 मई 2022

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रचनाएँ
वृंदावन लाल वर्मा की रोचक कहानियाँ
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इन्हे बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये 19 साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’(1908) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति दल’(1909) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था। ये प्रेम को जीवन का सबसे आवश्यक अंग मानने के साथ जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक भी थे। इन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूंजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी। इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं।
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मेंढकी का ब्याह

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खजुराहो की दो मूर्तियाँ

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'इंशा! इंशा!!' बादशाह जहाँगीर ने इधर-उधर देखकर भरे दरबार में जरा ऊँचे स्वर में अपने भतीजे को पुकारा। अलमबरदार ने बड़े अदब के साथ बतलाया कि शाहजादा शिकार खेलने चले गए हैं। 'शाहजादा - इंशा के लिए! जहाँग

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रज्जब कसाई अपना रोजगार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रकम। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुर

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थोड़ी दूर और

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जब महमूद गजनवी (सन 1025-26 में) सोमनाथ का मंदिर नष्ट-भ्रष्ट करके लौटा तब उसे कच्छ से होकर जाना पड़ा। गुजरात का राजा भीमदेव उसका पीछा किए चल रहा था। ज्यों-ज्यों करके महमूद गजनवी कच्छ के पार हुआ। वह सिं

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रक्षा

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मुहम्मदशाह औरंगजेब का परपोता और बहादुरशाह का पोता था। 1719 में सितंबर में गद्दी पर बैठा था। सवाई राजा जयसिंह के प्रयत्न पर मुहम्मदशाह ने गद्दी पर बैठने के छह वर्ष बाद जजिया मनसूख कर दिया। निजाम वजीर ह

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रामशास्त्री की निस्पृहता

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दो सौ वर्ष के लगभग हो गए, जब पूना में रामशास्त्री नाम के एक महापुरुष थे। न महल, न नौकर-चाकर, न कोई संपत्ति। फिर भी इस युग के कितने बड़े मानव! भारतीय संस्कृति की परंपरा में जो उत्कृष्ट समझे जाते रहे है

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कुछ समय हुआ एक दिन काशी से रायकृष्ण दास और चिरगाँव से मैथिलीशरण गुप्त साथ-साथ झाँसी आए। उनको देवगढ़ की मूर्ति कला देखनी थी - और मुझको दिखलानी थी। देवगढ़ पहुँचने के लिए झाँसी-बंबई लाइन पर जालौन स्टेशन

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दबे पाँव (अध्याय 2 )

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हिंदी में कुछ-न-कुछ लिखने की लत पुरानी है। सन् 1909 में छपा हुआ मेरा एक नाटक सरकार को नापसंद आया। जब्त हो गया और मैं पुलिस के रगड़े में आया। परंतु रंगमंच पर अभिनय करने पर अभिनय करने का शौक था और नाटक

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दबे पाँव (अध्याय 3)

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चिंकारे का शिकार करछाल के शिकार से भी अधिक कष्टसाध्य है। चिंकारा बहुत ही सावधान जानवर होता है। उसे संकट का संदेह हुआ कि फुसकारी मारी और छलाँग मारकर गया। हिरन संकट से छुटकारा पाने के लिए दूर भागकर दम ल

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दबे पाँव (अध्याय 4)

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एक जगह जमकर बैठने का शिकार काफी कष्टदायक होता है। झाँखड़ या पत्थरों के चारों ओर ओट बना लेते हैं और उसके भीतर जानवरों को अगोट पर शिकारी बैठ जाते हैं-ऐसे ठौर पर, जहाँ होकर जानवर प्रायः निकलते हों। उनके

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हिरन वर्ग के जानवरों के लिए ढूका या ढुकाई का शिकार भी अच्छा समझा जाता है। इस शिकार में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पेट के बल रेंगते हुए भी चलना पड़ता है; पहेल ही कहा जा चुका है। कुछ लोग बंदूक के घोड़

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दबे पाँव (अध्याय 6 )

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चीतल (स्वर्णमृग) हिरन वर्ग का पशु समझा जाता है। परंतु इसके सींग फंसेदार होते हैं। यह बहुत ही सुंदर होता है। इतना सुंदर कि कभी-कभी शिकारी इसके भयानक हानि पहुँचानेवाले कृत्यों को भूल जाता है। इसकी खाल प

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चीतलों के बाद मुझको पहला तेंदुआ सहज ही मिल गया। विंध्यखंड में जिसको 'तेंदुआ' कहते थे, उसकी छोटी छरेरी जाति को कहीं-कहीं 'चीता' का नाम दिया गया है। हिमाचल में शायद इसी को 'बाघ' कहते हैं। तेंदुए की खबर

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खेती को नुकसान पहुँचानेवाले जानवरों से सुअर चीतल और हिरन से कहीं आगे है। मनुष्यों के शरीर को चीरने-फाड़ने में वह तेंदुए से कम नहीं है। सुअर की खीसों से मारे जानेवालों की संख्या तेंदुए की दाढ़ों और नाख

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मैं संध्या के पहले ही बेतवा किनारे ढीवाले गड्ढे में जा बैठा। राइफल में पाँच कारतूस डाल लिए। कुछ नीचे रख लिए। रातभर बैठने के लिए आया था, इसलिए ओढ़ना-बिछौना गड्ढे में था। अँधेरा हुआ ही था कि एक छोटी सी

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एक बार जाड़ों में पहाड़ की हँकाई की ठहरी। लगान लग गए। मैं पहाड़ की तली में बैठ गया और शर्मा जी चोटी पर। बीच में अन्य मित्र लगान पर लग गए। हँकाई होते ही पहले साँभर हड़बड़ाकर निकल भागे। हँकाई में पहले

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साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं। जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग मे

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एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर

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अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी। जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थ

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मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर

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दबे पाँव (अध्याय 15 )

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मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भ

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दबे पाँव (अध्याय 16)

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एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया। मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होक

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दबे पाँव (अध्याय 17)

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जंगली कुत्ते का मैंने शिकार तो नहीं किया है, परंतु उसको देखा है। जिन्होंने इसके कृत्यों को देखा है वे इस छोटे से जानवर के नाम पर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। रंग इसका गहरा बादामी होता है, इसलिए शायद इस

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दबे पाँव (अध्याय 18)

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भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है। भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-

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दबे पाँव (अध्याय 19)

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भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव क

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जंगल में शेर और तेंदुए से भी अधिक डरावने कुछ जंतु हैं - साँप, बिच्छू और पागल सियार। अजगर का तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि वह काटने के लिए आक्रमण नहीं करता है, भक्षण के लिए पास आता है; और जहाँ तक मैंने द

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जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं। अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का क

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दबे पाँव (अध्याय 22)

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शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले। संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं

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दबे पाँव (अध्याय 23)

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शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती

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दबे पाँव (अध्याय 24)

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लौटने पर किसी ने कहा तलवार पास रखनी चाहिए, किसी ने कहा छुरी। तलवार और छुरी का उपयोग शिकार में हो सकता है; परंतु मैं तलवार से छुरी को ज्यादा पसंद करूँगा और छुरी से भी बढ़कर लाठी को, और लाठी से बढ़कर क

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दबे पाँव (अध्याय 25)

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यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती ह

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रिहाई तलवार की धार पर

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बंदा बैरागी और उसके सात सौ सिख साथियों के कत्ल का दिन आ गया। ये सब बंदा के साथ गुरदासपुर से कैद होकर आए थे। बंदा ने स्वयं खून की होली खेली थी, इसलिए उसके मन में किसी भी प्रकार की दया की आशा या प्रार्थ

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सच्चा धर्म

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हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफी संख्या में आ बसे थे; कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम-जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इनमें भी उन्नाव दरवाजे की तरफ मेवाती और बड

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शाहजादे की अग्निपरीक्षा

16 मई 2022
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दिल्ली का बादशाह जहाँगीर सन 1605 में राजसिंहासन पर बैठा था। उसे दस-बारह साल राज करते-करते हो गए थे। जहाँगीर सूझ-बूझवाला व्यक्ति था; परंतु कभी-कभी दुष्टता का भी बरताव कर डालता था। उसमें सनक भी थी। जहा

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शेरशाह का न्याय

16 मई 2022
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वह नहा रही थी। ऋतु न गरमी की, न सर्दी की। इसलिए अपने आँगन में निश्चिंतता के साथ नहा रही थी। छोटे से घर की छोटी सी पौर के किवाड़ भीतर से बंद कर लिए थे। घर की दीवारें ऊँची नहीं थीं। घर में कोई था नहीं,

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शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी

16 मई 2022
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'इस क़ैदी को शाह के सिपुर्द कीजिये ।' अहमदशाह अब्दाली के दूत ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से युद्ध की समाप्ति पर कहा । सन् १७६१ में पानीपत के युद्ध में मराठे हार गये थे। कई सरदारों के साथ मराठों का सरद

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पहले कौन?

16 मई 2022
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मेवाड़ और मारवाड़ (जोधपुर) में परस्पर बहुत वैर बढ़ गया था। बात लगभग तीन सौ वर्ष पुरानी है। मेवाड़ की सीमा पर जोधपुर राज्य का एक गढ़ था। गढ़ खँडहर हो गया है और खँडहरों का नाम क्या! जोधपुर अपनी आन पर थ

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लुटेरे का विवेक

16 मई 2022
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बात बारहवीं शताब्दी के अंत की है। मुहम्मद साम दिल्ली का सुल्तान था और भीम द्वितीय गुजरात का राजा। भीम ने लगभग इकसठ वर्ष राज किया। वह सिद्धांत पर चलता था, जिसे सत्रहवीं शताब्दी में छत्रसाल ने यों व्यवह

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इंद्र का अचूक हथियार

16 मई 2022
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तपस्वी की साधना की जो प्रतिक्रिया हुई, उससे इंद्र का इंद्रासन डगमगाने लगा। तपस्या भंग करने के उपकरण इंद्र के हाथ में थे ही। उसने प्रयुक्त किए। तपस्वी के पास मेनका अप्सरा अपने साज-बाज के साथ जा पहुँची।

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वृंदावनलाल के जीवन के प्रेरक प्रसंग

16 मई 2022
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सच्चा इतिहास मैं लिखूँगा मनुष्य के जीवन में एकाध घटना ऐसी गुजरती है, जो संवेदनशील मन को झनझना देती है। जिस घटना ने वृंदावनलाल वर्मा के मन को झकझोरकर उन्हें इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया, वह घटना उ

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