जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं।
अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का करमा नृत्य देखा। उसके कई प्रकार होते हैं। वे सब बारी-बारी से देखने को मिले।
करमा में स्त्री-पुरुष सब शामिल होते हैं। पुरुषों की एक टोली और स्त्रियों की एक टोली। पुरुष टोली एक कतार में और सामने स्त्रियों की टोली भी पाँत में। गायन और नृत्य ढोलकी के वाद्य पर होता है।
गायन सीधा और सरस होता है। गायन का साहित्य किसी प्रेमकथा या जीवन की किसी अवस्था पर मचलता है। मचल-मचलकर ही वे सब गाते हैं और बड़े मोद के साथ नाचते हैं। स्त्रियाँ घूँघट डाले रहती हैं। हम लोगों के समक्ष वे घूँघट ही डाले थीं। जब वे लोग 'बाहरवालों' के सामने न गाते-नाचते होंगे तब शायद घूँघट की आड़ हटा दी जाती हो।
करमा नृत्य में कला और विनोद दोनों हैं। मैंने करमा का अनुकरण शांति निकेतन की एक मंडली में देखा है। करमा स्वास्थ्य और आनंद देनेवाला नृत्य है।
बुंदेलखंड के देहातों में, विशेषकर हमीरपुर जिले के गाँवों में, विवाह के समय स्त्रियों का नृत्य देख है। इस नृत्य में एकरसता होती है। बहुत थकानेवाला और शायद कम विनोद देनेवाला होता है।
देहातों और जंगलों में जो विवाह होते हैं वे वास्तविक उत्सवों का रूप धारण करते हैं।
गोंडों और कोलों में तो विवाह एक बहुत बड़े त्योहार का रूप धारण करता है। इस त्योहार के मनाने में उनको पंडा-पुजारी की बिलकुल जरूरत नहीं पड़ती। गोंडों का सहवर्गी बेगा आता है और भाँवर पड़वा देता है। बेगा अपने को किसी भी ब्राह्मण से कम पवित्र नहीं समझता। और भोजन में चूहे-कौए को भी नहीं छोड़ता।
जब हम लोग 'नानबीरा' से लौटे, मार्ग में भूख लगी। साथ में दाल-चावल था, परंतु पकाने के लिए कोई बरतन न था। साथ में एक बेगा था, उससे मिट्टी का बरतन लाने को कहा। वह पास के एक गाँव से तीन-चार मटकियाँ ले आया। एक में हम लोगों ने पानी भरकर रख लिया और दूसरे में खिचड़ी चढ़ा दी।
एक कहावत है - दो मुल्लों में मुरगी हराम। इधर हम लोग थे पाँच-सात। चूल्हा जल रहा था, तो भी उसमें कोई लकड़ी निकाल-निकालकर फिर खोंस रहा है, कोई जलती हुई आग को बुझाकर फिर उसका रहा है, की हंडी में लकड़ी बार-बार डाल रहा है। मतलब यह कि न चूल्हे को चैन और न हंडी को। फल यह हुआ कि एक घंटे की इस कवायद-परेड के बाद हंडी का पानी जल गया और खिचड़ी में से जलाँध आने लगी। हमारे दलनायक ने व्यवस्था दी - 'उतारो, हंडी को उतारो, खिचड़ी पक गई है।'
हंडी को उतार लिया और चूल्हे को बुझा दिया; क्योंकि हवा चल रही थी, गरमियों के दिन थे और घने जंगल पास लगे थे। डर लगता था कि कहीं जंगल में आग न लग जाए।
खिचड़ी के ठंडे होने के पहले ही आतुरता के साथ महुए इत्यादि के पत्तों की पत्तलें बनाईं। अपनी-अपनी समझ में सुंदर परंतु गोल के सिवाय रेखागणित के किसी भी कोण से होड़ लगानेवाली। पर स्वादिष्ट खिचड़ी के लिए अच्छी आकृतिवाली पत्तलों की अटक ही क्या!
जब खिचड़ी परोसी और मुँह में डाली तब बिलकुल कच्ची। बेगा हम लोगों की झेंप और निराशा पर हँस रहा था। हंडी में काफी खिचड़ी रखी थी। बेगा भूखा था। हम लोगों ने बेगा से कहा कि पानी डालकर, इसको फिर से पकाककर खा लो। उसने बिलकुल नाहीं कर दी। वह हम लोगों का छुआ हुआ पानी तक नहीं पी सकता था इसलिए वह मटके लाया था। उसने एक मटका अलग से भरा। अलग ही अपनी खिचड़ी पकाई औऔर मजे में खा गया।
नगरों में रहनेवाले लोगों का खयाल है कि गाँवों में रहनेवाले लोग अपने बाहर के संसार से अंजान रहते हैं। इससे बढ़कर और कोई भूल नहीं हो सकती।
गाँववालों को अभी तक इतना सताया गया है, उनकी इतनी अहवेलना को गई है कि सिधाई और अज्ञान को उन्होंने अपना आवरण बना लिया है। वे उस आवरण को डाले हुए शत्रु और मित्र, दोनों के समाने एक समान भावना से आते हैं। जब वे समझ लेते हैं कि मित्र के रूप में बाहर से आया मनुष्य उनका वास्तविक मित्र या हितचिंतक है तब वे उस आवरण को हटा देते हैं। उस समय उनका सच्चा स्वरूप दिखलाई पड़ता है। उसकी ठोस बुद्धि, उनका दृढ़ स्वभाव और उनकी तत्परता उस समय पहचानने में आती है।
मैं एक बार एक कंधे पर बंदूक और दूसरे पर अपने थोड़ से बिस्तर लिए जंगल के गड्ढे में बैठने के लिए जा रहा था। गड्ढा दो-ढाई मील की दूरी पर था। मेरे पीछे एक गड़रिया आ रहा था। उसका मार्ग गड्ढे के पास होकर पड़ता था। गड़रिया मुझको पहचानता था। आगे बढ़ा और उसने मेरे बिस्तर अपने कंधे पर टाँगने का अनुरोध किया। मैंने नाहीं की, परंतु उसने बिस्तर छीनकर अपने कंधे पर रख लिया। मैंने सोचा, मैं इसकी क्या सेवा करूँ? मैंने वार्तालाप आरंभ किया। मैंने पूछा, 'कहो भाई, गाँव में क्या हो रहा है?'
उसने उत्तर दिया, 'और तो सब ठीक है, पर जमींदार जान खाए जाते हैं।'
'क्यों? कैसे?'
'जंगल में भेड़-बकरी नहीं चरने देते। कहते हैं, लगान दो। हम लोगों ने लगान पहले कभी नहीं दिया। हर साल दो कंबल देते चले आए हैं, सो अब भी देने को तैयार हैं; परंतु वे लोग कंबलों के अलावा लगान भी माँगते हैं। हम लोगों ने पहले बेगार कभी नहीं की। अब वे पुलिस और तहसील की बेगार भी कराना चाहते हैं।'
मैंने कहा, 'लड़ाई का जमाना है, इसलिए पुलिस, तहसील जमींदार सभी की बन पडी है। सबके सब अंधे हो गए हैं और आगा-पीछा न देखकर लालच में अंधाधुंध पड़ गए हैं। तो भी मैं कल आकर तुम्हारे जमींदारों को समझाऊँगा। वे लोग मुझको जानते हैं। मेरे समझाने से मान जाएँगे।'
गड़रिए को आश्वासन मिला। अब वह खुला। उसने अपने अभ्यस्त आवरण को हटाया। बोला, 'लड़ाई का क्या हाल चाल है?'
मैंने सोचा, इसको क्या बतलाऊँ। जो लोग भूगोल से थोड़ा सा परिचय रखते हैं, वे ही लड़ाई में भाग लेनेवाले देशों का नाम जानते हैं और वे ही लड़ाई के संबंध की कुछ बातें समझ सकते हैं। मैंने गोल-मटोल उत्तर देने की चेष्टा की।
लड़ाई के प्रारंभिक काल की बात थी, जर्मनी और इंग्लैंड की पैंतरेबाजी चल रही थी; परंतु अभी मुठभेड़ नहीं हुई थी।
मैंने कहा, 'अभी जर्मनी से अँगरेजों की झपटा-झपटी नहीं हुई है। दूसरे देशों में युद्ध हो रहा है। अपने देश से बहुत दूर-दो हजार कोस पर।'
वह मुसकराकर बोला, 'जर्मनी ने पोलैंड को तो जीत लिया है, अब फ्रांस को रौंदने वाला है।'
मैं इस वाक्य को सुनकर दंग रह गया। जंगलों और पहाड़ों में भेड़-बकरी चरानेवाला गड़रिया पोलैंड और फ्रांस के नाम जानता है, और यह भी जानता है कि जर्मनी ने पोलैंड को जीत लिया है और फ्रांस को रौंदना चाहता है। मैंने कुतूहल के साथ पूछा, 'रूस देश का नाम सुना है?'
उसने उत्तर दिया, 'सुना है वहाँ किसानों और मजदूरों की पंचायत का राज है।'
मैंने कहा, 'अपने देश में भी किसानों और मजदूरों का राज होगा। वह दिन जल्दी आ रहा है।'
गड़रिया बिना किसी बनावट के बोला, 'पर अपने यहाँ किसान-मजदूर जमींदारों और साहूकारों का खून बहाकर पंचायत नहीं बनाएँगे।'
'क्यों?'
'क्योंकि हम लोग राक्षस नहीं हैं।'
मुझको तुरंत अपने दरिद्र कहलानेवाले, परंतु महा गौरवमय, देश के उस तपस्वी की याद आ गई, जिसको इग्लैंड के एक मानवद्रोही घमंडी ने 'नंगा फकीर' कहा था, परंतु जिसको उसके देशवाले 'महात्मा' और 'बापू' कहते हैं।
बापू की निर्भीक अहिंसा की नींव देश की वह संस्कृति है, जो इस अनपढ़ गड़रिए के भीतर से उन शब्दों में होकर अनायास निकल पड़ी थी।
मैंने पूछा, 'तुम्हारे गाँव में भी झंडा उठाया गया?'
उसने उत्तर दिया, 'हाँ-हाँ, तिरंगा झंडा। कई बार उठाया गया और हम लोगों ने कई बार गाया 'झंडा ऊँचा रहे हमारा'।'
मैं उस दिन गड्ढे में नहीं बैठा। सीधा उसके गाँव में गया। जमींदारों को समझाया। उन्होंने 'हाँ-हाँ' तो कर दी और कुछ महीनों गड़रियों को तंग भी नहीं किया; परंतु वह प्रथा, वह प्रणाली ऐसी है कि उनकी हाँ-हाँ बहुत दिनों तक नहीं चली।