भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है।
भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-बच्छियों का तो यह शत्रु होता ही है, मनुष्य के बच्चों को भी उठा ले जाता है। किसान स्त्रियाँ खेतों में काम करने के समय झोंपड़ों में बच्चों को छोड़ जाती हैं। भेड़िया मौका पाकर उनको उठा ले जाता है। जब वे साथ में बच्चों को डलियों में रखकर ले जाती हैं और मेड़ पर, पेड़ के नीचे बच्चों को छोड़ जाती हैं तब लौटने पर डलियों को खाली पाती हैं। मालूम हो जाता है कि भेड़िया उठा ले गया।
यह गड़रिया के छप्पर फाड़कर भेड़-बकरियों को दाब ले जाता है। इतना ही होता तो भी कोई बात थी, परंतु दस-पाँच को तो वहीं मारकर डाल जाता है। मैंने झाँसी के पास के ही एक गाँव में कुछ समय हा तब देखा था।
भेड़-बकरियों के चरते हुए बगर में से एकाध का मुँह में दाबकर उठा ले जाना साधरण बात है; परंतु कभी-कभी दो भेड़िए एक बकरी को कान पकड़कर भगा ले जाते हैं। एक कान एक भेड़िया मुँह में दाबता है और दूसरे को दूसरा। बकरी बेचारी गुमसुम घिसटती हुई चली जाती है।
भेड़िया खिलाड़ी जानवर है। कभी-कभी मनुष्य के बच्चे को पाल भी लेता है।
भेड़िये का पाला हुआ एक बच्चा मैंने स्वयं देखा है। वह भेड़िए के साथ ओरछा के जंगल में कोहनियों के बल फिर रहा था। एक ताँगेवाले को मिला। भेड़िये को ताँगेवाले ने पत्थरों की मार से भगा दिया और बच्चे को पकड़ लिया। ताँगेवाला इस बच्चे को ताँगे पर बिठलाकर घुमाता रहता था। बच्चा कच्चा गोश्त खाता था। न तो वह किसी प्रकार की मानव भाषा बोल सकता था और न समझ सकता था। इस बच्चे को पकड़े हुए ताँगेवाले को थोड़े ही दिन हुए थे कि अकस्मात् यह ताँगा मुझको बैठन के लिए मिल गया। वह बच्चा ताँगे में बैठा था। बिलकुल नंग-धडंग। लगभग सात-आठ वर्ष का होगा। जाड़े के दिन थे। मैंने ताँगेवाले को डाँटा, 'बच्चे को ऐसा उघाड़ा क्यो लिए फिरते हो? ठंड लग जाएगी, मर जाएगा।'
ताँगेवाले ने उत्तर दिया, 'यह कपड़ा पहनता ही नहीं। एक कुरता पहनाया तो इसने दाँतों और हाथों से फाड़-फूड़कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए।'
फिर उसने भेड़िये से बच्चे को छुटा लाने का ब्योरेवार वर्णन सुनाया।
रात थी। मैंने ताँगे को सड़क लैंप की रोशनी के निकट खड़ा करवाया और बच्चे को बारीकी के साथ देखा। बच्चे को यह अवलोकन पसंद नहीं आया। उसने अपने छोटे-छोटे सुंदर दाँत मुझको दिखलाए और आश्वासन दे का प्रयत्न किया कि यदि अवलोकन आगे बढ़ा तो काट खाऊँगा।
उन्हीं दिनों मेरे वर्ग के कुछ लोगों ने झाँसी में एक अनाथालय खोला था। सोचा, इसको अनाथालय में रख दूँ। ताँगेवाला तो उस बच्चे से पिंड छुड़ाना ही चाहता था, मैंन बच्चे को अनाथालय में रख दिया। मैं हफ्ते में कई बार उसको देखने के लिए जाता था। उस बच्चे को अँधेरी और मैली-कुचैली जगह बहुत प्रिय थी। उसको मिट्टी में पड़े रहना और पलोटें लगाना बहुत पसंद था। कपड़े पहनना और ओढ़ना तो उसको बहुत कठिनाई से सिखला पाया। उसको कोहनी और घुटने के बल चलना बहुत अच्छा लगता था। अकेले में किलकारियाँ मारता था। अनाथालय के अन्य बालकों के सामने चीख उठता था।
कई वर्षों तक वह भाषा नहीं सीख सका। अनाथालय में एक बैंड था। बैंड की ध्वनियाँ उसको अच्छी लगती थीं। वह उनको ध्यानपूर्वक सुनता था, प्रसन्न होता था और कभी-कभी किसी-किसी ध्वनि की नकल भी कर उठता था।
गंदा इतना रहता था कि कोई भी अन्य बालक उसके पास खड़ा होना तक पसंद नहीं करता था।
पाँच-छह साल बाद उसको कुछ बोलना आया। इतने दिनों में वह कपड़े भी पहनने लगा था।
पता नहीं वह किस दुःखी माता-पिता का बालक था।
एक भेड़िए की चालाकी मैंने अपनी आँखों से देखी है।
एक बार बैलगाड़ी से बाहर गया। लौटते समय संध्या हो गई। संध्या के पहले मैं गाड़ी से उतर पड़ा और गाड़ी के पीछे लगभग दो फलाँग पर रह गया। देखा कि चलते-चलते गाड़ी एक पेड़ के पास ठिठक गई। आस पास खुले हुए खेत थे। न तो कोई डाँग बीहड़ और न अन्य पेड़। सड़क के किनारे केवल एक पेड़ था। पास पहुँचा तो उस पेड़ के नीचे एक भेड़िया पड़ा है और गाड़ीवान तथा एक ग्रामीण उसके पास खड़े हैं। उन्होंने भेड़िए पर एक पत्थर फेंका था। वे समझते थे कि भेड़िया मर गया।
जब गाड़ी पेड़ के पास पहुँची थी, वह छिपने का यत्न कर रहा था। गाड़ीवान गाड़ी खड़ी करके उतरा। एक पत्थर उठाकर मारा और उसपर दौड़ पड़ा। भेड़िया गिर पड़ा और लंबायमान हो गया।
उन लोगों ने भेड़िये को उठाकर गाड़ी पर रख लिया और गाड़ी बढ़ाने को हुए। मैं टहलते हुए चलना चाहता था, इसलिए गाड़ी के पीछे था।
मुझको विश्वास नहीं था कि भेड़िया मर गया। जब उसको गाड़ी पर रखा, उसकी साँस नहीं चल रही थी। परंतु मैंने देखा, उसने अपनी आँखें खोलीं और मुझको देखते ही तुरंत झपकी सी ले ली।
मैंने गाड़ीवान से तुरंत उसको नीचे डाल देने के लिए कहा। नीचे डालते ही उसने फिर साँस साधी। मैं बंदूक तैयार लिए उसके सिर पर खड़ा था।
भेड़िये ने थोड़ी देर में साँस ली और आँखें खोलकर झटपट बंद कर लीं। वह भाग निकलने का अवसर ताक रहा था। वह पत्थर को चोट खाकर भाग न सका था। मरने का मिस करके पेड़ के नीचे पड़ गया था। गाड़ी पर पहुँचने और गाड़ी से नीचे डाले जान के समय भी वह उचाट लेकर भागने का बल प्रतीत नहीं कर रहा था, इसलिए मरने की दशा का बहाना करके चुप्पी साध गया। सोचता होगा कि अकेला रह जाऊँ तो फिर अपने झुंड में जा मिलूँगा।
जैसे ही उसने दुबारा आँखें खोलीं, मैंने उसको समाप्त कर दिया और गाड़ीवान से कहा, 'अब ले जाओ और इनाम के दस रुपये कमा लो।'
गाड़ीवान दूसरे दिन भेड़िये की खाल कचहरी में ले गया। दस रुपये इनाम के गाँठ में किए और एक टोपीदार बंदूक का लाइसेंस भी ले आया।