अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी।
जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थे उससे ऊपर की ओर लगभग डेढ़ सौ गज पर एक घाट और था। वहाँ से होकर उसपर से चिरगाँव की हाट के लिए आन-जानेवाले लोग निकला करते थे। उनको कभी ज्यादा रात भी हो जाती थी; परंतु मनुष्यभक्षी सिंह के भयानक समाचारों के संध्या के उपरांत के आवागमन को बंद कर दिया था।
अँधेरा हो जाने पर मुझे आलस्य मालूम पड़ा। मैं सो गया। शर्मा जी पहरा देते रहे। शर्मा जी की बंदूक लगभग आधी रात गए चली - 'धाँय'। उधर से शब्द हुआ, 'ओ मताई, मर गओ!' मैं घबराकर उठ बैठा। कलेजा धक-धक करने लगा। टॉर्च जलाकर देखा तो एक आदमी सफेद रजाई ओढ़े हमारे गड्ढे की ओर आ रहा है। विश्वास हो गया कि मरा नहीं है; किंतु संदेह था, शायद घायल न हो। अनेक प्रश्न कर डाले। उसने कहा, 'बहुत बचे।'
हम लोग दुनाली से छर्रा न चलाने की शपथ सी बहुत पहले ले चुके थे। अब छर्रा कारतूस की पेटी में न रखने का निश्चय कर लिया।