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रक्षा

16 मई 2022

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मुहम्मदशाह औरंगजेब का परपोता और बहादुरशाह का पोता था। 1719 में सितंबर में गद्दी पर बैठा था। सवाई राजा जयसिंह के प्रयत्न पर मुहम्मदशाह ने गद्दी पर बैठने के छह वर्ष बाद जजिया मनसूख कर दिया। निजाम वजीर हुआ और उसने विदेशियों की प्रेरणा से, क्योंकि औरंगजेब के बाद भी इनमें कट्टरपन के आदर्शों की श्रद्धा बाकी थी और यहाँ के हिंदू मुसलमानों के प्रति सहानुभूति नहीं रखते थे, जजिया फिर जारी करवाने की कोशिश की। राजा जयसिंह इत्यादि के हिंदुस्तानी दल के विरोध के कारण जजिया की नीति व्यवहार में नहीं लाई जा सकी - एक छदाम भी वसूल नहीं किया जा सका होगा। विदेशी दल ने अपनी बान छोड़ दी हो, सो नहीं हुआ। वह किसी अच्छे युग के आने की प्रतीक्षा में था। हिंदुस्तानी दल इतना मजबूत बन चुका था कि निजाम को मुँह की खानी पड़ी। कोकीजू ने उसके विरुद्ध इतने षड्यंत्र तैयार किए कि निजाम को परेशान होकर वजीर पद त्यागना पड़ा और 'दक्खिन' की सूबेदारी तथा अपने लिए नई सल्तनत स्थापित करने की महत्वाकांक्षा लेकर एक बड़ी सेना के साथ वह दक्षिण चला गया। परंतु संतुलन बनाए रखने के लिए मुहम्मदशाह ने विदेशी दल के दूसरे मुखिया कमरुद्दीन को वजीर बना दिया। कोकीजू को तरह देनी पड़ी। औरंगजेबी सवारों इत्यादि में ही नहीं - बहुत से रोजगारियों में भी, और अधिक गरमागरमी के साथ। दिल्ली के बहुसंख्यक जूताफरोश और कसाई इनमें प्रमुख थे। रोजगार में श्रम और लगन के कारण इनके पास काफी धन हो गया था। संगठित भी थे। धर्म के बाहरी रूपों का नियमानुसार अनुशीलन करते-करते, विदेशी दल की राजनीतिक वृत्तियों के आवरण में, उनका मन छिपे बारूदखानों की तरह का हो गया था। बादशाह मुहम्मदशाह और उसके दरबार की रंगरेलियों, मजहब की तरफ से लापरवाही और कठमुल्लों के अपमानों ने उस बारूदखाने के बारूद को काफी सूखा रख छोड़ा था। केवल एक चिनगारी की जरूरत थी।

शाही जुमा (जामा) मसजिद के पेश इमाम की जगह खाली हुई। वजीर ने विदेशी दल के एक कट्टर मुल्ला को नियुक्त कराने की कोशिश की। परंतु वह सफल न हो सका।

हिंदुस्तानी दल का एक मुल्ला राजा शुभकर्ण की मारफत हाफिज खिदमतगार खाँ के पास पहुँचा। हाफिज ने रौशनुद्दौला को पकड़ा। रौशनद्दौला और सवाई जयसिंह ने कोकीजू को। बिना खर्च किए वह मुल्ला पेश इमाम मुकर्रर हो गया।

वजीर को दुहरी चोट लगी - अपना आदमी पेश इमाम न बन सका और जो कुछ हाथ लगने वाला था, न लगा। इतने प्रभावशाली स्थान में अपने आदमी का न रख पाना आगे चलकर बहुत हानि पहुँचा सकता है, उसे यह खटक रहा था।

विदेशी दल को बड़ी ठेस लगी। अब तो हिंदू पेश इमाम की नियुक्ति में भी हाथ डालने लगे हैं! ये ही लोग तो बादशाह को बिगाड़े हुए हैं - ये ही उसे सुरा और सुंदरी के जाल में फाँसे हुए हैं! उसे मस्त रखकर बादशाह के कर्तव्यों का पालन नहीं करने देते! हमें पनपने न देंगे! दीन को खतरे में धकेल रहे हैं और पठानों को बुद्धू बनाए हुए हैं।

उनके विचार में जजिया के कारण हिंदू और मुसलमान के बीच एक बड़ी राजनीतिक पहचान थी, वह भी खत्म कर दी गई। महत्वपूर्ण भेद का एकमात्र साधन गायब हो गया। कयामत आने में कसर ही क्या रह गई!

दीन को संकट में पड़ा देखने की वृत्तिवाले कुछ इसी प्रकार सोचते थे। जनता का संपर्क प्राप्त न होने के कारण शासन निकृष्ट हो ही गया था, इस प्रकार के लोगों का उद्वेग पुष्ट और विस्तृत होता चला गया।

उस दिन संध्या होने में थोड़ी ही देर थी। हवा बहुत मंद थी। यमुना की धार तेज थी। अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें उसके साथ मचल-मचलकर खेल रही थीं - किरणों को मानो प्रवाह की उस गति की कोई परवाह ही न हो। सूर्य के ऊपर क्षितिज में रीने-झीने बादल थे। लगता था जैसे तपे हुए सोने के कण समेटे मुसकरा रहे हों। जाड़ा जा रहा था। गरमी आ रही थी। फिर भी साँझ के समय ठंडक थी - वसंत के फूलों की सुगंधि से बसी हुई ठंडक। दिल्ली नगर के बड़े मार्गों पर आने जानेवालों का घना बिखरा ताँता था। धूल उड़ रही थी। सुगंधि उसके कणों को भी नहीं भूल रही थी। 'शाबान' का महीना था। शबरात का त्योहार आने वाला था।

सूर्यास्त हो चुका था। त्योहार के आने की खुशी में जगह-जगह दिए जला दिए गए थे - जैसे दीपावली के अवसर पर हिंदू करते आए हैं। लड़के उस त्योहार की अगवानी में अग्रसर थे। मुसलमान और हिंदू लड़के दोनों मिलकर सादुल्लाखाँ के चौक में पटाखे छुड़ा रहे थे। हवा कुछ तेज हुई। पटाखों की चिनगारियाँ इधर-उधर उड़ने लगीं।

जूताफरोशों की दुकानें दोनों तरफ थीं, दूर-दूर तक। दुकानें बड़ी-बड़ी थीं और छोटी भी।

एक दुकानदार ने छोकरों को डाँटा, 'अरे ओ बदमाशों! दुकान से जरा हटकर। गंधक के धुएँ की बू से हमारी दुकान भर गई है और दिमाग फटा जा रहा है। इसके सिवाय दुकान में आग लगने का भी डर है।' दुकानदार दुकान में ही बैठा रहा।

'ओहो!' एक हिंदू बालक ने मुँह बिचकाकर चुनौती दी, 'जूतों के दुकान में आग कैसे लग जाएगी?'

'एक और छुड़ा लेने दीजिए। अच्छा लग रहा है। एक-दो पटाखों से कहीं दुकान में धुआँ भरते सुना है! हिंदू लड़के से कम उम्र के एक मुसलमान बच्चे ने घिघियाते स्वर और शरारत भरी आँखों से कहा।'

हिंदू और मुसलमान बालकों ने धड़ाम-धड़ाम दो पटाखे छुड़ा दिए। दुकानदार ने रूमाल से नाक दबोच ली और त्योरी सिकोड़ ली। दो छोकरे वहाँ और सिमट आए। उन्होंने भी पटाखे छोड़े। वे सब दस-दस, बारह-बारह साल के होंगे। दुकानदार के मन में आया, सबों के कान मल दूँ; परंतु था असंभव। सोचा की छोकरों की आँधी जल्दी किसी दूसरी दिशा में रुख फेर लेगी, रह गया। कुछ लड़के और इकट्ठे हुए - हिंदू-मुसलमान घुले-मिले से। वहाँ से जरा दूर हटकर पटाखे छोड़ने लगे। पास ही एक झकोला चारपाई पर, जूतों की एक दुकान के पास, एक बुड्ढा तसबीह (माला) लिए मन-ही-मन कुछ जाप कर रहा था। उसके ओठ बिरबिरा रहे थे, स्वर नहीं फूट रहा था। लड़कों के हो हल्ले के मारे परेशान होकर बूड्ढे ने माला चारपाई के एक कोने पर रख दी और चिल्लाकर कहा, 'कमबख्तो! क्यों जमीन सिर पर उठाए फिरते हो? आता हूँ एक-एक की गरदन न मरोड़ी तो बात काहे की!'

बड़े मियाँ को चारपाई से उठते देखकर हिंदू लड़के जरा पीछे हटे, परंतु मुसलमान लड़के डटे रहे। इनमें से एक ने अपने साथी हिंदू बालक से धीरे से कहा, 'अमाँ, भागते क्यों हो? हाजीजी दाढ़ी हिलाकर अभी जहाँ के तहाँ बैठे जाते हैं।'

बड़े मियाँ ने यह आदर वाक्य सुन लिया। लपके। छोकरे जरा दूर भागकर फिर खड़े हो गए। बड़े मियाँ ने कुढ़कर कहा, 'ससुरों! भाग गए, नहीं तो कान उखाड़े बगैर न मानता।'

लड़कों ने शोर किया और बीच रास्ते में पटाखे छोड़े। बुड्ढा फिर अपनी झकुलिया पर जा बैठा और माला के गुरिए फेरने लगा।

उसी समय किले की ओर से एक पालकी आती हुई दिखलाई पड़ी। चार-पाँच सिपाही उसकी अगल-बगल थे। सिपाही 'हटो, बचो' कहते हुए पालकी के साथ तेज चाल से चले आ रहे थे।

'अब देखूँ,' हाजी क्षुब्ध स्वर में बोला, 'इन सिपाहियों के पास पटाखे छुड़ाओ - इतने बेभाव पिटोगे कि याद करोगे।'

एक हिंदू बालक ने जवाब दिया, 'अभी लीजिए, हाजीजी। देखूँ, सिपाही हम लोगों को कैसे छूते हैं! मुसमान बालकों ने अपने साथी हिंदू बालक का संकेत में समर्थन किया और कहा, 'एक नही, चार छह छुड़ाएँगे, अभी लीजिए।'

हाजी ने भर्राए स्वर में निवारण किया, 'ऐसा मत करियो रे, किसी बड़े आदमी की सवारी है।'

'होगी,' हिंदू बालक ने उत्तेजित होकर कहा, 'शबरात के पटाखों को कोई नहीं रोक सकता।'

'मरो शैतानों,' हाजी ने क्रुद्ध स्वर में दुआ दी और आँखें मूँदकर माला फेरने लगा।

पालकी के पास आते-आते छोकरों ने एक-दो-तीन पटाखे फोड़ दिए। पालकी की चाल धीमी पड़ गई। एक हिंदू बालक पालकीरक्षक सिपाहियों के सामने पड़ गया। सिपाही ने उसकी पीठ पर धौल जमा दी। बालक चीखा। अन्य बालकों ने रौरा मचाया। पालकी की गति और धीमी पड़ी। सिपाहियों ने और कई बालकों पर तमाचे जड़े। हाजी ने चारपाई पर बैठे-बैठे मना किया। लड़कों को बचाने के लिए दो-तीन दुकानदार उतर आए। सिपाहियों को मना कर दूर से ही बीच-बचाव करने लगे। इतने में एक हिंदू ने सुर्रू और बिछुए में आग लगाई और पालकी के पास छोड़ दिया। बिछुआ फिरकी खाकर उचटा। उसके बड़े-बड़े परे पालकी में बैठे हुए रईस के दरबारी लिबास पर जा पड़े।

पालकी में बैठा रईस राजा शुभकर्ण था। वह इस समय हाफिज खिदमतगार खाँ की हवेली से लौट रहा था। बादशाह के बख्शे हुए लिबास पर हाफिज की दुआ भी थोड़ी ही देर पहले पाई थी। उसी लिबास पर बिछुए के परे ने चमककर छेद कर दिया। चिनगारी उसके शरीर को भी छू गई। उसने तुरंत गदेली से मलकर बुझाया और देह के उस अंग को रगड़ा। छेद बड़ा न था और न देह का अंग ज्यादा जला ही था; परंतु जिस कपड़े में छेद हो गया था, वह बादशाह का बख्शा हुआ था और उसका पहननेवाला पालकी में बैठा हुआ राजा था। लड़कों की बदमाशी सही ही कैसे जा सकती थी। शुभकर्ण को क्रोध आ गया। पालकी खड़ी हो गई। सिपाहियों से उसने कहा, 'सालों के दाँत तोड़ दो! शाहंशाह के बख्शे हुए सिरोपाव में आग लगा दी है!'

फिर क्या था, सिपाहियों ने बिना किसी भेदभाव के कई हिंदू-मुसलमान बालकों को, जो उनके घेरे में से भागकर नहीं निकल पाए थे, मरम्मत शुरू कर दी।

उन लड़कों की मारपीट में, शाबान के महीने का और आनेवाली शबरात का अपमान होता हुआ समझकर कई जूताफरोश दुकानें छोड़-छोड़कर शुभकर्ण से प्रतिवाद करने और उन बालकों को बचाने के लिए दौड़ पड़े। उन लोगों के दौड़ पड़ने और प्रतिवाद करने पर भी सिपाहियों के हाथ नहीं रुके।

क्षुब्ध स्वर में शुभकर्ण चिल्लाया, 'आप लोगों को शरम आनी चाहिए। इन छोकरों को इतना आवारा कर दिया है। क्या इन लौंडों को आप यही तालीम देते रहते हैं? इन बेहूदों ने हमारा दरबारी लिबास जला दिया है!'

एक दुकान से दूसरी दुकान की रोशनी लहरा-लहराकर सड़क पर खड़े उन लोगों की छाया को हिला-डुला रही थी; मानो एक छाया दूसरी से गुँथ जाना चाहती हो।

'उसमें पैबंद लगवा लीजिएगा,' एक दुकानदार जरा दूर से बोला, 'जरा-जरा से बच्चों को इस तरह तो नहीं पीटा जाता। क्या ये सिपाही इन बच्चों को मार डालने के लिए तैनात किए गए हैं?'

भीड़ के लोगों में से कुछ ने ताका, देखें पालकी में कौन है। राजा शुभकर्ण को पहचान लिया।

एक सिपाही ने फटकारा - 'चुप रहो, बेहया कहीं के!'

'ओ हो हो!' दुकानदारों की भीड़ में से एक बौखलाया - 'जवानों से मुकाबला पड़े तब तुम्हारी हया और बहादुरी की जाँच हो।'

शुभकर्ण को पहचानते ही भीड़ में गरमी आ गई थी।

शुभकर्ण और उसके सिपाही और भी उत्तजित हो गए। बीच-बचाव के लिए दुकानदारों के आने पर कुछ बच्चे सिपाहियों के घेरे से निकल भागे। उन्होंने सिपाहियों पर धूल फेंकी। अब आया सिपाहियों को बहुत तैश। एक सिपाही के कुछ अधिक निकट एक बालक आ गया था। सिपाही पकड़ने के लिए झपटा। कुछ दुकानदार बीच में आ गए। सिपाही ने एक दुकानदार की हिलती हुई दाढ़ी पकड़कर उसके मुँह पर तमाचा जड़ दिया। दूसरे दुकानदार उस सिपाही से चिपट गए। सिपाही हथियारबंद था। परंतु हथियार का उपयोग नहीं कर पा रहा था। दुकानदारों की भीड़ बढ़ी। वे सिपाहियों पर टूट पड़े। एक सिपाही के अंग-अंग पर मार पड़ी और भीड़ ने उसके हथियार छीन लिए। सिपाही गाली-गलौज कर रहे थे। दुकानदारों का हुल्लड़ और भी अधिक उत्साह और उद्वेग के साथ जवाब दे रहा था। शुभकर्ण की पालकी के कहार अधीर हो उठे, घबरा गए। शुभकर्ण ने भी देखा कि और अधिक ठहरने में कुशल नहीं। कहारों को चल पड़ने का आदेश दिया। वे तो चाहते ही थे। दौड़ पड़े। सिपाही भी हाथ-पैर चलाते, कुटते-पिटते जान छुड़ाकर वहाँ से भागे। वे अपने हथियार बचा ले गए। चला एक भी नहीं पाया, क्योंकि भीड़ बहुत बढ़ गई थी। भीड़ ने ताने मारते हुए थोड़ी दूर तक पीछा किया, फिर लौट पड़ी।

शुभकर्ण की हवेली जौहरी बाजार के पीछे थी। रात हो ही गई थी, हवेली पर पहुँचते-पहुँचते देर लग गई। झगड़े का समाचार वहाँ पहले ही आ गया था। उसके सिपाही - संख्या उनकी थोड़ी ही थी - लड़ने के लिए तैयार हो गए थे; परंतु हवेली को अरक्षित नहीं छोड़ सकते थे। शुभकर्ण की प्रतीक्षा में थे। उन्हें देखकर शुभकर्ण के भीतर अपमान की स्मृति और भी नुकीली हो गई। वह क्रोध के मारे काँप रहा था। सिपाहियों में हिंदू-मुसलमान दोनों थे। जब उन्होंने अपने उन साथियों की दुर्गति का ब्योरा उन्हीं की जुबानी सुना और उनका फटा हाल देखा तो बहुत उत्तेजित हुए।

जैसे ही शुभकर्ण हवेली के भीतर पहुँचा, वे सब उसके पास इकट्ठे हो गए। चुप थे, परंतु साँसों की फुफकारें और चेहरों की सुकड़ने काफी बोल रही थीं।

'इन हरामजादे जूताफरोसों को सजा दूँगा,' शुभकर्ण ने चिल्लाकर कहा।

जिस सिपाही के हथियार छीन गए थे उसका गला रुद्ध था, बदन सूजा हुआ और माथे की नसें तनी हुईं। कठिनाई के साथ उसने अपने स्वामी का भाव प्रतिध्वनित किया - 'मैं मुँह दिखलाने लायक नहीं रहा।'

शुभकर्ण ने आवेश के साथ आदेश दिया, 'कभी नहीं। अभी जाकर उन बदमाशों को चुन-चुनकर सजा दो। जितने सिपाही चाहो, साथ ले जाओ। जितनों को पकड़ सको, पकड़ो और कोतवाल साहब के हवाले कर दो। कल उनकी पीठ तुड़वाऊँगा।'

राजा के हथियारबंद सिपाही तुरंत चौक सादुल्लाखाँ की ओर दौड़ पड़े। सिपाहियों के मन में बदला लेने की भावना थी ही, अपने स्वामी के आदेश का और उसके अनेक अर्थों का पूरी तरह से पालन करने का संकल्प कर लिया। दूरदर्शिता और समझ-बूझ गाँठ में रह ही कहाँ सकती थी।

छोकरे अब भी टोलियाँ बाँधे इधर-उधर घूम रहे थे। पटाखे बहुत कम छुड़ाए जा रहे थे। दुकानदार गर्वोन्मत थे और दो-दो चार-चार के समूहों में बँटकर अपने किए और न किए की शूरता का बखान कर रहे थे।

शुभकर्ण के सिपाहियों की उस छोटी सी भीड़ के आते ही छोकरे नौ दो ग्यारह हो गए। केवल एक बच्चा सिपाहियों की भीड़ में बींध गया। बच्चा हिंदू का था।

'यही है, यही तो है। मारो साले को!'

'मैं नहीं था, मैं नहीं था,' बच्चे ने बिलखते हुए कहा, 'पटाखे छुड़ाने वाले तो भाग गए, मैं तो तमाशा देख रहा था।'

भीड़ चाहे सिपाहियों की हो, चाहे जनता की, जब उत्तेजित हो जाती है तो उसके भीतर की आग बाहर लपटें फेंकने लगती है। सिपाहियों ने एक न सुनी। उस बच्चे को कुछ ही क्षण में इतना पीटा, इतना पीटा कि वह मृतप्राय हो गया। फिर भी उसका पिटना बंद न हुआ।

टूटी सी खटिया पर वह हाजी अब भी बैठा था। माला अब भी फेर रहा था। उससे बालक का पिटना और क्रंदन न देखा गया। तुरंत माला एक तरफ रखकर नंगे पाँव दौड़ा आया। और पिटते बच्चे से लिपट गया। उसकी दाढ़ी और हाथों ने बच्चे को छिपा लिया।

सिपाही क्रोध में पागल हो चुके थे। बुद्धि नष्ट हो चुकी थी। एक सिपाही ने तलवार खींचकर वार किया। हाजी पर हाथ पूरा बैठा। वह तुरंत मर गया। बच्चा उसकी लाश के नीचे सिसक रहा था।

खून बहाने के बाद अधिकांश व्यक्ति अपना क्रोध पी जाते हैं। सिपाहियों ने देखा, जरूरत से ज्यादा आगे बढ़ गए। जोश पर ठंडक का दौर आया। उधर कुछ जूताफरोश हथियार लेकर उन पर आ टूटने के लिए दौड़े आ रहे थे। सिपाही अविलंब शुभकर्ण की हवेली की ओर भागे - जूताफरोशों के मुकाबले में थे भी थोड़े। उन लोगों ने सिपाहियों का पीछा नहीं किया। भागते हुए सिपाहियों की परछाइयाँ दुकानों के शमादानों की लहराती रोशनी में अधिक चंचल लग रही थीं। उन्हें हाजी की देखभाल की अधिक चिता न थी।

शुभकर्ण के क्रोध ने हाजी के वध की बात सुनकर ठंडक पाई, इतनी कि कलेजा जरा नीचे को धसक आया। राजा को सन्नाटे में देखकर सिपाही बोला, 'हुजूर, उसी ने हमारे हथियार छिनवाए थे।'

ऐसे दंगे के अवसर पर लोगों की स्मृति इधर-उधर हो जाती है। राजा को केवल एक बात कोंच रही थी। बोला, 'मगर वह हाजी था।'

'नहीं, हुजूर वह पाजी था।' सिपाही ने कहा। वह पछतावे की मुद्रा में नहीं था। और फिर जो कुछ किया, मालिक के हुक्म से ही तो किया। सिपाही हाँफ रहा था।

शुभकर्ण ने कुछ सोचकर कहा, 'तलवार का खून पोंछ डालो। अगर कोई पूछे तो इनकार कर देना, न मालूम किसने मारा। कोई पहचान तो नहीं पाया होगा?'

'नहीं सरकार।'

'दिल्ली में रोज ऐसे ही दंगे-फसाद होते रहते और जब तब आदमी आदमी रास्तों पर कट मरते हैं। समझ गए?' शुभकर्ण को उस समय यही समाधान सूझा।।

सिपाहियों ने सिर हिलाकर हामी भरी। शुभकर्ण ने एक सुझाव और दिया, 'तुम लोग हथियारों से लैस अपनी-अपनी जगह कमर कसकर तैयार रहो। मैं खाना-वाना खाकर खाँ साहब नवाब शेर अफगन के पास जाऊँगा। कोई बड़ी बात नहीं, कुछ हुआ तो मामला ठंडा हो जाएगा। डर की कोई बात नहीं।' परंतु उसके मन में उठ रहा था कि बहुत बड़ी बात हो गई है, मामला शायद देर में शांत हो पावे।'

उसकी पत्नी देवकी को बहुत कुछ हाल मालूम हो गया था। खाना खिलाते समय उसने कहा, 'बात जरा आगे बढ़ गई है,' और वह शुभकर्ण को पैनी दृष्टि से देखने लगी। थोड़ी सी कातर भी थी।

शुभकर्ण के मन में भी 'बात जरा बढ़ सी गई है' बार-बार उठ रहा था और वह सोच रहा था कि कोई-न-कोई कठिनाई आएगी। उसका हल निकालने में व्यस्त था। हल निकालने के लिए उसकी कल्पना जहाँ से चली थी उसी स्थान पर जा पहुँची। बोला, 'हो, परंतु मेरे सिपाहियों का दोष नहीं है।'

'जो होनहार है वह तो होकर ही रहता है। सिपाहियों को चौक की तरफ न भेजते तो अच्छा होता।'

शुभकर्ण जो कुछ अपने मिलनेवालों से कहता, वह देवकी से कहा, 'फिर क्या करता? वह सब यों ही पी जाता?'

'नहीं तो, अपमान बहुत हुआ है। ऐसे अवसर पर सब बेकाबू हो जाते हैं। क्या करना चाहिए था, यह तो अब सोच-विचार की बात नहीं है। क्या करना चाहिए, इसे जल्दी तय करना पड़ेगा!'

'खाना खाकर अभी नवाब शेर अफगन के पास जाता हूँ। वहीं सबकुछ तय होगा।'

शुभकर्ण ने कठिनाई से थोड़ा सा खा पाया। भोजन के उपरांत पान चबाया और जल्दी-जल्दी में हुक्का पीकर शेर अफगन की हवेली पर जाने के लिए तैयार हो गया। थोड़े से अंगरक्षक लेकर वह पैदल गया। साथ में जली हुई दरबारी खिलअत लिए था।

शेर अफगन से मिलने में देर नहीं लगी। अभिवादन किया, फिर आँखों से दो बड़े-बड़े आँसू टपकाए और वह पोशाक शेर अफगन के सामने रख दी।

'हुजूर, बड़ी तौहीन हुई, बहुत जिल्लत,' शुभकर्ण का गला काँप रहा था।

'क्या हुआ, राजा साहब?' शेर अफगन ने मूँछ पर उँगली फेरते हुए एक आँख तरेरकर प्रश्न किया।

शुभकर्ण साँस और स्वर नहीं साध पा रहा था। शेर अफगन को आश्चर्य हो रहा था। उसने दोहराया, 'क्या हुआ? क्या हुआ, राजा साहब?'

शुभकर्ण ने ब्योरे के साथ सब सुनाया। बादशाह से सिरोपाव का पाना, हाफिज खिदमतगार खाँ का प्रसन्न होना, चौक में लड़कों की शरारत। जूताफरोशों की 'बदमाशी' का वर्णन उसने बढ़ा-चढ़ाकर किया। हाजी की मृत्यु का परिच्छेद आगे के लिए दबा लिया।

शेर अफगन तमक गया, 'क्या आपके सिपाही सब नामर्द हैं? क्यों नहीं दस-पाँच जूताफरोशों के सिर धड़ से जुदा कर दिए?'

शुभकर्ण ने हाथ जोड़े - मन की जो पा ली। बोला, 'हुजूर, उस हंगामे में एक सिपाही फँस गया था। उसकी जान पर आ बनी। तलवार का वार हुआ। एक जूताफरोश मारा गया।'

'सिर्फ एक?'

'हुजूर, एक ही। मगर वह...' शुभकर्ण रुका।

'मगर क्या?'

'मगर वह हाजी था, हुजूर।'

'होगा जी। हाजी को क्या सिपाही के हथियार छीनने की सनद मिली थी?'

'हुजूर, वह कुछ बुड्ढा भी था।'

'होगा, क्यों जान छोड़े दे रहे हो? बुड्ढे आदमी ही तो फसाद करवाते हैं।'

शुभकर्ण का मन आनंद की पेंगों पर झूलने लगा; परंतु उसने अपना मुँह ऊँचा नहीं किया - सिर नीचा किए रहा। कुछ क्षणों दोनों चुप रहे। हाजी का मारा जाना कोई मामूली बात नहीं है, था वह परदेसी गुट का, पर खैर - शेर अफगन सोच रहा था।

शुभकर्ण बोला, 'हुजूर, जूताफरोश कुछ ऊधम शायद जरूर करेंगे। कल चौक सादुल्लाखाँ में होकर मुझे अपने काम से फिर गुजरना होगा। सिपाही साथ होंगे। डर तो वैसे कोई बड़ा नहीं है, पर शायद बात बढ़ जाए।'

शेर अफगन ने उसके 'शायद' को अच्छी तरह समझ लिया और कहा, 'राजा साहब, आप भूलते हैं, वे सब बड़े बदमाश हैं। लेकिन हम परवाह नहीं करते। मेरे पास दस हजार असली पठान और राजपूत हैं और रौशनुद्दौला साहब के पास इनसे भी ज्यादा - जाट भी बहुत से। सवाई राजा जयसिंह भी दिल्ली में ही हैं।'

शुभकर्ण चालाक जौहरी था। सिर नीचा किया और दबी जबान से बोला, 'सो तो सरकार हैं ही। कोई शक ही नहीं। लेकिन जूताफरोशों की तादाद बहुत ज्यादा है। सारे चौक के दोनों तरफ ठसाठस भरे हुए हैं और तमाम परदेसी उनके हिमायती हैं। जरा-जरा सी बात पर दुनिया को सिर पर उठा लेने की फितरत रच डालते हैं।'

जरा सा मुसकराकर शेर अफगन ने फिर मूँछों पर हाथ फेरा। कहता गया - 'जूताफरोश हैं क्या चीज? रौशनद्दौला तुर्रेबाज, मैं और मेरे भाई एक लमहे में पचास हजार पठान और राजपूत खड़े कर सकते हैं; जिनके हथियारों की झनझनाहट भर से जूताफरोशों और उनके हिमायतियों के कान बहरे हो जाएँगे। हमारे पास इतनी फौज है कि दिल्ली भर में नहीं समा सकती!'

अब शुभकर्ण अपनी प्रसन्नता की सँभाल न सका। 'बादशाह सलामत और वजीर साहब का रुख क्या होगा, हुजूर?' उसने पूछा।

शेर अफगन ने बिना किसी संकोच के उत्तर दिया, 'जिस ओर रौशनद्दौला का तुर्रा हिल जाएगा उसी तरफ बादशाह सलामत की मर्जी का भी इशारा होगा; मगर इतने बेकाबू क्यों हुआ जा रहे हो, राजा साहब?'

शुभकर्ण ने तुरंत उत्तर देना ठीक नहीं समझा। गरदन और भी नीची कर ली।

शेर अफगन ने सिर ऊँचा किया और सोचा। सोचकर कहा, 'राजा साहब, आप एकाध दिन काम पर मत जाइए। हाफिज खिदमतगार खाँ साहब के पास खबर भेज दूँगा। आप मेरे मकान पर आ जाइए। शायद आपके घर पर कोई बखेड़ा इतनी जल्दी खड़ा हो जाए कि कुमुक पहुँचने में कुछ देर लग जाए और नुकसान हो जाए। उम्मीद है कि मामला यों ही ठंडा हो जाएगा; क्योंकि हम सबकी ताकत किसी से छिपी नहीं है। यों ही ठंड़ा न हुआ तो कोशिश की जाएगी। आप बाहर निकलेंगे तो शायद आग बेकार भड़क उठेगी।'

राजा ने खाँसकर गला साफ किया और उपयुक्त अवसर की बाट में थोड़ी देर चुप बना रहा। वातावरण में ठंडक आने लगी।

शेर अफगन ने कुछ क्षण उपरांत कहा, 'मामला फिजूल ही बढ़ गया।'

'हुजूर!'

'फिर भी भीतर की आवाज कहती है कि अगर अक्ल से काम लिया जाता तो मरने-मारने की नौबत न आती। छोकरों का खिलवाड़ ही तो था, और जमाना पूरे तौर से अभी हाथ में है भी नहीं।' शेर अफगन कह तो गया, परंतु प्रतिक्रिया ने उसे भीतर ही भीतर दुत्कारा।

अब की बार शुभकर्ण के मुँह से 'हुजूर' शब्द काँपते और क्षीण स्वर में निकला। शेर अफगन को तुरंत स्पर्श कर गया। बोला, 'जो कुछ भी हो, अब तो मामले को आँख-से-आँख मिलाकर ही देखना पड़ेगा।'

शुभकर्ण को फिर सहारा मिला। उसने कहा, 'हुजूर, पठान और राजपूत सिपाही का हथियार उसकी मार-मर्यादा की नाक रहा है। छीने हुए हथियार को वापस लेने के लिए सिपाही गए। जूताफरोशों ने फसाद कर दिया। अपने सिपाहियों ने इज्जत बचाने के लिए हथियार उठाया। अचानक एक बिचारा बुड्ढा मारा गया। मेरे दिल में यही बहुत कसक रहा है।'

शेर अफगन के दबे भाव ने पुनः पलटा खाया। गरदन मोड़कर बोला, 'बुरा-भला जो हुआ, सो हुआ। अब जो कोई भी हमारे मातहत की बेइज्जती करने की हिम्मत करेगा, उसे ऐसा सबक सिखलाऊँगा कि कभी न भूल सकेगा।'

'सरकार!' शुभकर्ण ने कुछ निवेदन और कुछ प्रश्न-सा करते हुए कहा।

'बेशक,' शेर अफगन ने दृढ़तापूर्वक ढाँढ़स दी, 'बेशक, चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाए।' शेर अफगन ताव पर आ गया था।

शुभकर्ण बोला, 'हुजूर की पनाह में मेरा बाल भी बाँका नहीं हो सकता, लेकिन घर पर बाल-बच्चे हैं; पर हाँ, जो हाल मेरा होगा वही उनका भी।'

शेर अफगन इस बात पर जरा हिल गया। एक क्षण सोचकर बोला, 'फौरन घर जाइए। शायद वे शैतान गिनती में आप लोगों को कम पाकर कुछ कर बैठें। इसलिए बाल-बच्चों को मेरी हवेली पर ले आइए। आपकी रानी साहब मेरी निज बहिन के बराबर हैं। तब तक सबके सब यहीं बने रहना जब तक मामला रफै-दफै नहीं हो जाता। आजकल नवाब रौशनुद्दौला के यहाँ से मेरी और बहिनें भी आई हुई हैं।'

शुभकर्ण हर्षमग्न होकर तुरंत अपने घर गया। देवकी को समाचार सुनाया।

'जल्दी करो,' उसने देवकी से कहा।

देवकी को संकोच नहीं हुआ। सहमत हो गई। जैसाकि होता है, अपने कीमती समान की चिंता हुई। उसने ऐसा सारा सामान इकट्ठा किया। जो साधारण सा था, उसका भी मोह त्यागना दूभर था। उसे भी इकट्ठा किया। शुभकर्ण को आतुरता थी।

'सड़े-गले पुराने सामान छोड़ो। सबका सब जोड़ने-जमा करने में यह रात तो क्या, कई रातें बीत जाएँगी। इसी घड़ी यदि जूताफरोशों या उनके साथियों ने हमारे ऊपर धावा कर दिया तो कुछ भी नहीं बच सकेगा, प्राणों पर भी बन आएगी।'

देवकी को अच्छा नहीं लगा, परंतु करती क्या। बहुमूल्य सामाग्री ही साथ ले जाने का संकल्प कर सकी। सामान सिपाहियों के सिर पर धीरे-धीरे ही शेर अफगन की हवेली पर भेजा जा सका, क्योंकि थोड़ा न था। साधारण सामान सब छोड़ना पड़ा। देवकी और शुभकर्ण को विश्वास था कि उन्हें वहाँ न पाकर धावा बोलनेवाले उनकी खोज के पीछे पड़ेंगे। न कि सामान के पीछे। शुभकर्ण और देवकी भोर होने के पहले शेर अफगन की हवेली में जा पहुँचे। सिपाहियों ने भी वहीं डेरा डाला। बात छिपी न रही।

शुभकर्ण और देवकी शेर अफगन की हवेली में पहुँच गए और चैन की साँस ली। रौशनुद्दौला की बेगम शबनम शेर अफगन की रिश्तेदार थी। वह वहाँ पहले ही आ गई थी। शबनम और देवकी एक ही कमरे में बैठी हुई थीं। शेर अफगन ने अपनी हवेली में शुभकर्ण, रानी देवकी और उनकी सहवर्गियों के भोजनादि की व्यवस्था कर दी थी।

ब्राह्मण रसोइए और कहार लगा दिए थे। छुआछूत का पूरा जोर था - हिंदुओं के धर्म का अंग ही था। परंतु इसके कारण आपस की घनिष्ठता में कमी नहीं आती थी। खाया उन सबने बहुत कम, परंतु वे सब अति कृतज्ञ थे।

देवकी की आँखे छलछला आईं। कृतज्ञता के दो आँसू उसके गाल पर ढलक आए। केवल मुँह से निकला - 'प्राणों की बाजी लगाकर आप हम लोगों की रक्षा कर रही हैं।' उसने शबनम से कहा, 'बहिन, आपका जस कभी नहीं भूलूँगी।'

शबनम बोली, 'दीदी इसमें जस किस बात का? आप मेरी बड़ी बहिन हैं। हम लोगों ने थोड़ा सा फर्ज अदा किया तो कौन बड़ा काम किया?'

'हम लोगों के लिए नवाब साहब ने अपने को संकट में डाल लिया है।'

'वाह! वाह! यह सब कुछ नहीं है। हम लोग आपस में एक-दूसरे की मदद न करेंगे तो क्या बाहरवाले मदद करने आएँगे?'

'यह सारा ऊधम बाहवालों का किया हुआ है, और न जाने आगे क्या-क्या करेंगे!'

'अगर मैं किसी तरह अपने अब्बाजान के पास पहुँच पाती तो उनके हाथ जोड़ती, उन्हें समझाती, जिद्द करती और अपना गला तक काटकर उनके हाथ में रख देती कि बाज आइए, विलायतियों का साथ छोड़िए और हिंदुस्तानियों को अपना समझिए।'

'प्यारी बहिन, आप किसी और आफत में न पड़ जाना; नवाब साहब तो हम थोड़े से हिंदुओं के लिए पूरी जोखिम सिर पर ले ही चुके हैं।'

'आप बार-बार यह क्यों कहती हैं? थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कि हम लोग किसी ऐसी जगह होते, जहाँ हिंदुओं की बहुतायत होती और थोड़े से हिंदुओं ने शरारत की होती और हम लोग उनके बीच फँस जाते तो आप क्या हाथ पर हाथ धरे बैठी रहतीं? राजा साहब क्या किनारा खींच जाते?'

देवकी की आँख का आँसू सूख गया। लाल हो गई। तमककर बोली, 'बहिन, मैं हिंदुओं की मिट्टी खराब कर देती, जो आपको या आपके किसी नातेवाले को छूने के लिए कदम बढ़ाते।'

शबनम देवकी से लिपट गई। बोली, 'दीदी, हम भी तो इनसान हैं। आपके लिए यही खयाल हमारे भी जी में घर किए हुए है। हम आपकी मदद नहीं कर रहे हैं बल्कि हिंदुस्तानी होने के नाते सिर्फ अपना फर्ज अदा कर रहे हैं।'

 

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रचनाएँ
वृंदावन लाल वर्मा की रोचक कहानियाँ
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इन्हे बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये 19 साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’(1908) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति दल’(1909) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था। ये प्रेम को जीवन का सबसे आवश्यक अंग मानने के साथ जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक भी थे। इन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूंजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी। इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं।
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मेंढकी का ब्याह

16 मई 2022
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उन ज़िलों में त्राहि-त्राहि मच रही थी। आषाढ़ चला गया, सावन निकलने को हुआ, परन्तु पानी की बूँद नहीं। आकाश में बादल कभी-कभी छिटपुट होकर इधर-उधर बह जाते। आशा थी कि पानी बरसेगा, क्योंकि गाँववालों ने कुछ पत

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खजुराहो की दो मूर्तियाँ

16 मई 2022
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चंद्रमा थोड़ा ही चढ़ा था। बरगद की पेड़ की छाया में चाँदनी आँखमिचौली खेल रही थी। किरणें उन श्रमिकों की देहों पर बरगद के पत्तों से उलझती-बिदकती सी पड़ रहीं थीं। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई अधलेटा। खजु

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जहाँगीर की सनक

16 मई 2022
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'इंशा! इंशा!!' बादशाह जहाँगीर ने इधर-उधर देखकर भरे दरबार में जरा ऊँचे स्वर में अपने भतीजे को पुकारा। अलमबरदार ने बड़े अदब के साथ बतलाया कि शाहजादा शिकार खेलने चले गए हैं। 'शाहजादा - इंशा के लिए! जहाँग

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शरणागत

16 मई 2022
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रज्जब कसाई अपना रोजगार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रकम। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुर

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थोड़ी दूर और

16 मई 2022
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जब महमूद गजनवी (सन 1025-26 में) सोमनाथ का मंदिर नष्ट-भ्रष्ट करके लौटा तब उसे कच्छ से होकर जाना पड़ा। गुजरात का राजा भीमदेव उसका पीछा किए चल रहा था। ज्यों-ज्यों करके महमूद गजनवी कच्छ के पार हुआ। वह सिं

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रक्षा

16 मई 2022
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मुहम्मदशाह औरंगजेब का परपोता और बहादुरशाह का पोता था। 1719 में सितंबर में गद्दी पर बैठा था। सवाई राजा जयसिंह के प्रयत्न पर मुहम्मदशाह ने गद्दी पर बैठने के छह वर्ष बाद जजिया मनसूख कर दिया। निजाम वजीर ह

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रामशास्त्री की निस्पृहता

16 मई 2022
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दो सौ वर्ष के लगभग हो गए, जब पूना में रामशास्त्री नाम के एक महापुरुष थे। न महल, न नौकर-चाकर, न कोई संपत्ति। फिर भी इस युग के कितने बड़े मानव! भारतीय संस्कृति की परंपरा में जो उत्कृष्ट समझे जाते रहे है

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दबे पाँव (अध्याय 1)

16 मई 2022
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कुछ समय हुआ एक दिन काशी से रायकृष्ण दास और चिरगाँव से मैथिलीशरण गुप्त साथ-साथ झाँसी आए। उनको देवगढ़ की मूर्ति कला देखनी थी - और मुझको दिखलानी थी। देवगढ़ पहुँचने के लिए झाँसी-बंबई लाइन पर जालौन स्टेशन

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दबे पाँव (अध्याय 2 )

16 मई 2022
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हिंदी में कुछ-न-कुछ लिखने की लत पुरानी है। सन् 1909 में छपा हुआ मेरा एक नाटक सरकार को नापसंद आया। जब्त हो गया और मैं पुलिस के रगड़े में आया। परंतु रंगमंच पर अभिनय करने पर अभिनय करने का शौक था और नाटक

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दबे पाँव (अध्याय 3)

16 मई 2022
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चिंकारे का शिकार करछाल के शिकार से भी अधिक कष्टसाध्य है। चिंकारा बहुत ही सावधान जानवर होता है। उसे संकट का संदेह हुआ कि फुसकारी मारी और छलाँग मारकर गया। हिरन संकट से छुटकारा पाने के लिए दूर भागकर दम ल

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दबे पाँव (अध्याय 4)

16 मई 2022
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एक जगह जमकर बैठने का शिकार काफी कष्टदायक होता है। झाँखड़ या पत्थरों के चारों ओर ओट बना लेते हैं और उसके भीतर जानवरों को अगोट पर शिकारी बैठ जाते हैं-ऐसे ठौर पर, जहाँ होकर जानवर प्रायः निकलते हों। उनके

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दबे पाँव (अध्याय 5)

16 मई 2022
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हिरन वर्ग के जानवरों के लिए ढूका या ढुकाई का शिकार भी अच्छा समझा जाता है। इस शिकार में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पेट के बल रेंगते हुए भी चलना पड़ता है; पहेल ही कहा जा चुका है। कुछ लोग बंदूक के घोड़

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दबे पाँव (अध्याय 6 )

16 मई 2022
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चीतल (स्वर्णमृग) हिरन वर्ग का पशु समझा जाता है। परंतु इसके सींग फंसेदार होते हैं। यह बहुत ही सुंदर होता है। इतना सुंदर कि कभी-कभी शिकारी इसके भयानक हानि पहुँचानेवाले कृत्यों को भूल जाता है। इसकी खाल प

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दबे पाँव (अध्याय 7)

16 मई 2022
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चीतलों के बाद मुझको पहला तेंदुआ सहज ही मिल गया। विंध्यखंड में जिसको 'तेंदुआ' कहते थे, उसकी छोटी छरेरी जाति को कहीं-कहीं 'चीता' का नाम दिया गया है। हिमाचल में शायद इसी को 'बाघ' कहते हैं। तेंदुए की खबर

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दबे पाँव (अध्याय 8)

16 मई 2022
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खेती को नुकसान पहुँचानेवाले जानवरों से सुअर चीतल और हिरन से कहीं आगे है। मनुष्यों के शरीर को चीरने-फाड़ने में वह तेंदुए से कम नहीं है। सुअर की खीसों से मारे जानेवालों की संख्या तेंदुए की दाढ़ों और नाख

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दबे पाँव (अध्याय 9)

16 मई 2022
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मैं संध्या के पहले ही बेतवा किनारे ढीवाले गड्ढे में जा बैठा। राइफल में पाँच कारतूस डाल लिए। कुछ नीचे रख लिए। रातभर बैठने के लिए आया था, इसलिए ओढ़ना-बिछौना गड्ढे में था। अँधेरा हुआ ही था कि एक छोटी सी

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दबे पाँव (अध्याय 10)

16 मई 2022
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एक बार जाड़ों में पहाड़ की हँकाई की ठहरी। लगान लग गए। मैं पहाड़ की तली में बैठ गया और शर्मा जी चोटी पर। बीच में अन्य मित्र लगान पर लग गए। हँकाई होते ही पहले साँभर हड़बड़ाकर निकल भागे। हँकाई में पहले

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दबे पाँव (अध्याय 11)

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साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं। जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग मे

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दबे पाँव (अध्याय 12)

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एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर

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दबे पाँव (अध्याय 13)

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अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी। जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थ

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दबे पाँव (अध्याय 14)

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मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर

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दबे पाँव (अध्याय 15 )

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मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भ

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दबे पाँव (अध्याय 16)

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एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया। मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होक

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दबे पाँव (अध्याय 17)

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जंगली कुत्ते का मैंने शिकार तो नहीं किया है, परंतु उसको देखा है। जिन्होंने इसके कृत्यों को देखा है वे इस छोटे से जानवर के नाम पर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। रंग इसका गहरा बादामी होता है, इसलिए शायद इस

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दबे पाँव (अध्याय 18)

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भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है। भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-

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दबे पाँव (अध्याय 19)

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भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव क

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दबे पाँव (अध्याय 20)

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जंगल में शेर और तेंदुए से भी अधिक डरावने कुछ जंतु हैं - साँप, बिच्छू और पागल सियार। अजगर का तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि वह काटने के लिए आक्रमण नहीं करता है, भक्षण के लिए पास आता है; और जहाँ तक मैंने द

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दबे पाँव (अध्याय 21)

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जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं। अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का क

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दबे पाँव (अध्याय 22)

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शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले। संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं

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दबे पाँव (अध्याय 23)

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शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती

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दबे पाँव (अध्याय 24)

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लौटने पर किसी ने कहा तलवार पास रखनी चाहिए, किसी ने कहा छुरी। तलवार और छुरी का उपयोग शिकार में हो सकता है; परंतु मैं तलवार से छुरी को ज्यादा पसंद करूँगा और छुरी से भी बढ़कर लाठी को, और लाठी से बढ़कर क

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दबे पाँव (अध्याय 25)

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यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती ह

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रिहाई तलवार की धार पर

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बंदा बैरागी और उसके सात सौ सिख साथियों के कत्ल का दिन आ गया। ये सब बंदा के साथ गुरदासपुर से कैद होकर आए थे। बंदा ने स्वयं खून की होली खेली थी, इसलिए उसके मन में किसी भी प्रकार की दया की आशा या प्रार्थ

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सच्चा धर्म

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हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफी संख्या में आ बसे थे; कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम-जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इनमें भी उन्नाव दरवाजे की तरफ मेवाती और बड

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शाहजादे की अग्निपरीक्षा

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दिल्ली का बादशाह जहाँगीर सन 1605 में राजसिंहासन पर बैठा था। उसे दस-बारह साल राज करते-करते हो गए थे। जहाँगीर सूझ-बूझवाला व्यक्ति था; परंतु कभी-कभी दुष्टता का भी बरताव कर डालता था। उसमें सनक भी थी। जहा

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शेरशाह का न्याय

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वह नहा रही थी। ऋतु न गरमी की, न सर्दी की। इसलिए अपने आँगन में निश्चिंतता के साथ नहा रही थी। छोटे से घर की छोटी सी पौर के किवाड़ भीतर से बंद कर लिए थे। घर की दीवारें ऊँची नहीं थीं। घर में कोई था नहीं,

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शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी

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'इस क़ैदी को शाह के सिपुर्द कीजिये ।' अहमदशाह अब्दाली के दूत ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से युद्ध की समाप्ति पर कहा । सन् १७६१ में पानीपत के युद्ध में मराठे हार गये थे। कई सरदारों के साथ मराठों का सरद

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पहले कौन?

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मेवाड़ और मारवाड़ (जोधपुर) में परस्पर बहुत वैर बढ़ गया था। बात लगभग तीन सौ वर्ष पुरानी है। मेवाड़ की सीमा पर जोधपुर राज्य का एक गढ़ था। गढ़ खँडहर हो गया है और खँडहरों का नाम क्या! जोधपुर अपनी आन पर थ

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लुटेरे का विवेक

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बात बारहवीं शताब्दी के अंत की है। मुहम्मद साम दिल्ली का सुल्तान था और भीम द्वितीय गुजरात का राजा। भीम ने लगभग इकसठ वर्ष राज किया। वह सिद्धांत पर चलता था, जिसे सत्रहवीं शताब्दी में छत्रसाल ने यों व्यवह

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इंद्र का अचूक हथियार

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तपस्वी की साधना की जो प्रतिक्रिया हुई, उससे इंद्र का इंद्रासन डगमगाने लगा। तपस्या भंग करने के उपकरण इंद्र के हाथ में थे ही। उसने प्रयुक्त किए। तपस्वी के पास मेनका अप्सरा अपने साज-बाज के साथ जा पहुँची।

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वृंदावनलाल के जीवन के प्रेरक प्रसंग

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सच्चा इतिहास मैं लिखूँगा मनुष्य के जीवन में एकाध घटना ऐसी गुजरती है, जो संवेदनशील मन को झनझना देती है। जिस घटना ने वृंदावनलाल वर्मा के मन को झकझोरकर उन्हें इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया, वह घटना उ

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