साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं।
जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग में पहुँच जाते हैं तब रोज-गुरायँ तो इनके साथ हिल-मिलकर चरने लगते हैं। रोज-गुरायँ मनुष्य से, अन्य जानवरों की अपेक्षा, कम छड़कता है। वह जंगल के भीतर नहीं रहता। प्रायः जंगल के प्रवेश के निकट ही मिल जाता है। इनके झुंड के झुंड होते हैं। मैंने पचास-पचास तक के झुंड देखे हैं। इनका नर जब पूरा बढ़ जाता है तब उसका रंग नीला हो जाता है। गले में घंटियाँ सी और पूँछ छोटी। सींग भी बड़े नहीं होते। यह बड़ा मजबूत होता है और दौड़ाने में बहुत तेज। कोई-कोई इसके बच्चों को पालते हैं और सवारी का काम लेते हैं - गाड़ी में जोतकर।
परंतु नाले और खाई-खड्डों को देखते ही उसको अपने पुरखों की याद आ जाती है और फिर यह नाथ, डोर, रस्सी हाँकने वाले और गाड़ी सवारी किसी की परवाह नहीं करता। बेभाव छलाँग मारता है। चाहे गाड़ी में बैठनेवाला बचे या मरे, इसकी कोई चिंता इसको नहीं रहती।
झाँसी के एक गुसाईंजी ने रोज के बच्चों की जोड़ी पाली और बड़े होने पर उनको गाड़ी में जोता। जब तक वे सीधे रास्तों पर चलाए गए तब तक उन्होंने अपनी तेज दौड़ से सबको संतोष दिया; परंतु एक दिन जब देहाती मार्ग में एक नाला और बगल में खड्ड मिला तब उनको अपनेपन की याद आ गई। विकट छलाँग भरी। गाड़ी लौट गई। गाड़ीवान घायल हो गया और गुसाईंजी को प्राणों से ही हाथ धोने पड़े।
जब तक इसके जोड़, सिर या गरदन पर गोली नहीं पड़ती तब तक घायल होने पर भी यह हाथ नहीं आता।
इस पशु में एक विलक्षणता है। यह मौका पाकर दिन में भी खेतों में घुस आता है और रात तो इन सब जानवरों की है ही।
झुंड में नर होते हुए भी अग्रणी साधारण तौर पर मादा होती है। बहुत सावधान और बड़ी तेज।
रोज-गुरायँ के चमड़े को गाँववाले परहे बनाने के काम में लाते हैं।
साँभर खुरीवाले जंगली जानवरों में सबसे अधिक सावधान है। जरा सा खुटका पाते ही ठौर छोड़कर भागता है। यह प्रायः दस-दस पंद्रह-पद्रह के झुंड में रहता है; परंतु नर अकेला भी पाया जाता है। यह जंगल के अत्यंत बीहड़ और छिपे हुए स्थानों को ढूँढ़ता है। अधिकतर लंबी घासवाले नालों और घनी झोरों में रहता है।
सिर और गरदन को खुजलाने के लिए इसको जहाँ सलैया के पेड़ मिल जाते हैं, वहाँ अधिक ठहरता है। सलैया की गोंद की सुगंधि इसके लंब फंसोंवाले सींगों की रगड़ से आस पास के वातावरण को महका देती है।
साँभर खेतों पर आधी राते के पहले बहुत कम आता है। जब आता है, बहुत धीरे-धीरे बहुत चुपके-चुपके। यह बड़ी-बड़ी बिरवाइयों को कूद-फाँद जाता है। शरीर के लंबे बालों के कारण, सुअर की तरह, इसको भी काँटों की परवाह नहीं होती। प्रायः कँटीली बिरवाइयों में इसके टूटे हुए बाल चिपके मिलते हैं। इसके खुर लंबे होते हैं और पैर बहुत लचीले। सहज ही पहाड़ों पर चढ़ जाता है।
इसका अगला धड़ बड़ा, पिछला हलका, पूँछ छोटी और आवाज रेंक सी तीखी, मोटी और ठपदार होती है। कान घंटे की तरह गोल और बड़े। ये इतने बड़े तेज होते हैं कि ढुकाई का शिकार तो इनका बहुत ही श्रमसाध्य और कठिन है।
साँभर में सूँघने की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह तीस-चालीस गज से असाधारण गंध को पाकर तुरंत मुरककर चला जाता है।
होली की छुट्टियों में भरतपुरा गया। दुर्जन ने संध्या के पहले ही नदी के एक टापू पर एक बड़े साँभर के चिह्नों का पता दिया। कठजामुन के काफी झुरमुट उन चिह्नों के पास थे। मैं दुर्जन के पास एक झुरमुट में सूर्यास्त के पहले जा बैठा। दिन में भरतपुरावाले मेरे मित्र ने जंगल में केसर-चंदन और इत्र-पान से होली मनाई थी। खस के इत्र का उनको बहुत शौक था। उन्होंने मेरे कपड़ों में पोत दिया। उन्हीं कपड़ों को पहने मैं कठजामुन के झुरमुट में दुर्जन के साथ बैठा था।
लगभग आठ बजे साँभर आहट लेता हुआ धीरे-धीरे मेरे स्थान की ओर आया। जब पच्चीस-तीस गज की दूरी पर आ गया होगा, उसने नथने फुफकारे। खस की गंध ने उसको अपने शत्रु की उपस्थिति बतला दी। उसने जोर के साथ अपनी बोली में आश्चर्य या भय प्रकट किया और भाग गया।
दुर्जन उस समय पैर लंबे किए बैठा-बैठा सो रहा था। जैसे ही साँभर ने आवाज लगाई, दुर्जन चौंक पड़ा। उसके पैर उठ गए और मेरी कनपटी से जा टकराए। मुझको बहुत हँसी आई। मैंने कहा, 'दुर्जन, तुम्हारी नींद के खुर्राट ने साँभर को भगा दिया।'
दुर्जन बहुत सहमा; परंतु थोड़ी ही देर में बोला, 'बाबू साब, काए खों लच्छिन लगाउत! तुमार अतर ने भगाओ साँभर खो।'
यह अगोट पर या हँकाई में सहज ही हाथ चढ़ जाता है। इसकी खाल पकाई जाने पर बहुत मुलायम और लोचदार होती है। जूते, टाँगों के टोकरे, दस्ताने, बास्कट इत्यादि बनाए जाते हैं। परंतु पानी में इसका चमड़ा लीचड़ हो जाता है। साँभर कठोर ठंड में भी रात को डुबकियाँ लगाता है; ठंडे कीचड़ में लोट लगाता है। यह जंगल से निकलकर नदी की पूरी धार को पार करके खेतों में पहुँच जात है। लौट आता है और जानवरों से दो घंटे पहले। चार बजे के बाद फिर यह खेतों में नहीं ठहरता।
जब सरूर पर होता है, तब एक नर दूसरे से बेतरह सींग खटखटाता है। यह लड़ाई मादा के पीछे या झुंड का अगुआ बनने की प्रतिद्वंदिवता में होती है। कभी कभी इतनी खटाखट होती है कि आस पास का जंगल गूँज उठता है।
साँभर पानी पीने के लिए सुनसान जंगल में दिन में ही बाहर निकल पड़ता है। वैसे इनका पानी पीने का समय संध्या के उपरांत जररा रात बीते है।
एक दिन गरमियों में मैं नदी के किनारे एक-दूसरे गड्ढे में दो-तीन घंटे दिन जा बैठा। 'गढ़ कुंडार' पूरा नहीं हो पाया था। झाँसी में बहुत कम समय मिलता था। छुट्टियों में शिकार के लिए जंगल की राह पकड़ लेता था; परंतु लिखने की सामाग्री साथ ले जाता था। उस दिन गड्ढे में पड़ा 'गढ़ कुंडार' लिख रहा था; क्योंकि सूर्यास्त के लिए काफी समय था। साथ में करामत था। मैंने उसको आहट लेते रहने के लिए कह दिया था।
सूर्यास्त होने को आ रहा था। मैं अपनी धुन में मस्त था। करामत आहट लेते-लेते और जानवरों की बाट जोहते-जोहते अलसा उठा था कि साँभरों का एक झुंड गड्ढे से पद्रंह-बीस डग की दूरी पर आया। करामत ने मुझको संकेत किया। मैंने उनको देखा। वे सब एक ही स्थान पर पानी पीने के लिए परस्पर कुश्तम-कुश्ता कर रहे थे। करामत ने बंदूक चलाने के लिए इशारा किया। साँभर मुझको इतने मोहक लग रहे थे कि मैं बंदूक न चला सका। इनकार कर दिया। जब साँभर पानी पीकर वहाँ से धीरे-धीरे चल दिए तब मैं अपनी निष्क्रियता पर थोड़ा पछताया।
साँभर जब जंगल के सुनसान को चीरता हुआ बोलता है तब जंगल की महिमा पर मुहर सी लगती है।
साँभर से बारहसिंगा छोटा होता है। उसके सींग साँभर के सींगों से भी अधिक सुंदर होते हैं। सिर पर सींगों का झाड़-सा जान पड़ता है। मंडला जिले के कान्हाकिसली नामक जंगल का मैंने थोड़ा सा भ्रमण किया है। कान्हाकिसली जंगल में शिकार खेलने की अनुमति नहीं मिलती। मुझको इस जंगल में शिकार नहीं खेलना था, खेल ही नहीं सकता था। परंतु उसकी बड़ाई बहुत सुनी थी, इसलिए कुछ मित्रों के साथ भ्रमण के लिए गया था।
हम लोगों के पहुँचने के पूर्व हॉलैंड की एक कंपनी जंगली जानवरों का चित्रपट बनाने के लिए अपनी मशीनों के साथ काफी समय तक ठहरी रही थी।
हम लोगों ने साज, सरही और सागौन के विशाल समूह तो उस जंगल में देखे ही, विंध्याचल-सतपुड़ा की विकट सम-विषम ऊँचाइयों को देखकर श्रद्धा में डूब जाना पड़ा था। और जिस मार्ग पर जाएँ उसी पर शेरों, जंगली भैसों इत्यादि के पदचिह्न दिखलाई पड़े।
उस जंगल में एक पथरीली ऊँचाई का नाम है श्रवण पहाड़ी। वही श्रवण, जिसकी कथा पुराण में प्रसिद्ध है, जिसको दशरथ ने भ्रमवश अपने बाण से वेध डाला था और इस अनजाने किए हुए पाप के बदले में भयंकर शाप पाया था। उस श्रवण पहाड़ी के नीचे एक पुराना तालाब था। लोगों ने एक लोक परंपरा बतलाई - उसी श्रवण की यह पहाड़ी है और इसी तालाब के किनारे राजा दशरथ ने अपने तीर से श्रवण का प्राण ले डाला था।
हम लोग तालाब के बंध पर चढ़े। उसमें पानी बिलकुल न था; पर पेडों की छाया में बारहसिंगों का बड़ा भारी झुंड बैठा था। उस जंगल में बंदूक न चलने के कारण और मनुष्यों के अल्प विचरण के कारण जानवर निर्बाध रहते तथा घूमते हैं। हम लोग तालाब के बंध पर कई क्षण खड़े रहे, परंतु बारहसिंगे विचलित नहीं हुए। हम लोगों ने आपस में बातचीत शुरू की तब वे दो-दो, चार-चार करके खड़े हुए। मैंने उनको गिनने की चेष्टा की- एक सौ अठ्ठारह से अधिक थे।
अब यह जानवर अन्य जंगलों में बहुत कम हो गया है।
होशंगाबदा के बाहर इटारसी सड़क पर एक पहाड़ी है। इसकी भीमकाय चट्टानों के भीतरी भाग पर कुछ प्राचीन चित्र हैं। उनमें एक जाति के जानवर का भी अंकन है, जो बारहसिंगा से कहीं बड़ा, परंतु मिलता-जुलता है। अब यह जानवर भारतवर्ष भर में कहीं भी नहीं है।
बारहसिंगा जंगल का सौंदर्य है। इसको बिलकुल न मारा जाए तो शायद कोई हानि नहीं; क्योंकि यह खेती के पासवाले जंगलों में नहीं पाया जाता।
दूसरे जानवर जो खेती को कम नुकसान पहुँचाते सुने गए हैं। चौसिंगा वन बेड़ और कोटरी है।
चौसिंगा कुछ बड़ा होता है और कोटरी एवं वन भेड़ लगभग एक ही डील-डौल के होते हैं। चौसिंगा के माथे के पिछले तथा अगले भाग पर दो-दो सींग होते हैं। पिछले भाग पर जरा लंबे और अगले भाग पर कुछ छोटे। रंग गहरा खरा। वन भेड़ इससे मिलती-जुलती है। इन दोनों की रक्षा इनकी फुरती और सावधानी में है। चिंकारे की तरह ये भी जरा से खुटके पर कूदते-फाँदते नजर आते हैं। जरा चूके कि गए।
कोटरी विलक्षण प्रकार का दबा हुआ कूका लगाती है। विंध्यखंड के जंगलों में काफी संख्या में पाई जाती है। जोड़ी के सिवाय इसके झुंड बहुत कम देखे गए हैं। घने-बेगरे दोनों प्रकार के जंगलों में पाई जाती है। कहते हैं, यह शेर के आगे-आगे चलती है। असल बात यह है कि शेर के निकल पड़ने पर जंगल में भगदड़ मच जाती है। जब कोटरी भयभीत होकर बोलती है तब लोग समझते हैं कि वह जंगल को शेर के आगमन की सूचना दे रही है।