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दबे पाँव (अध्याय 7)

16 मई 2022

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चीतलों के बाद मुझको पहला तेंदुआ सहज ही मिल गया। विंध्यखंड में जिसको 'तेंदुआ' कहते थे, उसकी छोटी छरेरी जाति को कहीं-कहीं 'चीता' का नाम दिया गया है। हिमाचल में शायद इसी को 'बाघ' कहते हैं।

तेंदुए की खबर पाकर मैं एक शनिवार को झाँसी से चौबीस मील दूर 'पाँडोरी' नामक गाँव में पहुँचा। पाँडोरी से तेंदुआ का स्थान लगभग दो मील दूर था। बेतहाशा जल्दी करके सात बजे शाम तक उस स्थान पर एक परिचित के साथ पहुँच गया। काँटों का एक गड्ढा बनवाया और बकरा बाँधकर बैठ गया।

तेंदुआ दबे पाँव आया। मेरे साथी बोले, 'तेंदुआ आ गया।' तेंदुआ मूर्ख नहीं था। मेरे साथी के शब्दों के साथ ही कूदकर चल दिया। हम लोग बुद्धू बने रह गए।

फिर मैं एक योजना बनाकर दूसरे दिन दुपहरी में बैठा।

जहाँ तेंदुआ की चुल थी वहाँ टौरियाँ थीं। टौरियों की तिकोन पर एक मैदान था। मैदान से कुछ घटकर एक गड़रिया अपनी भेड़-बकरियाँ चरा रहा था। मैंने गड़रिए को अपनी योजना सुनाई। गड़रिए को हफ्ते में कम-से-कम एक बकरी भेंट करनी पड़ती थी। वह मेरी योजना का हर्ष के साथ साझीदार बन गया। योजना के अनुसार काम हुआ।

गड़रिया तेंदुए की चुल के नीचेवाले मैदान में अपनी भेड़-बकरियों को चराते-चराते ले आया। मैंने एक बड़ी चट्टान के नीचे खूँटी गड़वाई। चट्टान के ऊपर और इर्द-गिर्द काफी आड़ थी। सामने खुला हुआ था। मैंने वहाँ एक छेददार ओट बना थी और मैं इस ओटवाली चट्टान पर जाकर बैठ गया। गड़रिया भेड़-बकरियों को चराते-चराते बकरे को खूँटी से बाँधकर बाकी को दूर हटा ले गया। गड़रिया ओझल हुआ था कि खूँटी से बाँधकर बाकी को दूर हटा ले गया।

गड़रिया भेड़-बकरियों को चराते-चराते बकरे को खूँटी से बाँधकर बाकी को दूर हटा ले गया। गड़रिया ओझल हुआ था कि खूँटी से बँधा बकरा मिमियाया। बकरे का पैर रस्सी से बँधा था। वह भागने के लिए उझल रहा था और 'में-में' का शोर कर रहा था। मेरा कलेजा धकधका रहा था। तेंदुआ चुल के बाहर आया। उस समय घड़ी में ठीक बारह बजे थे। जाडों के दिन थे। धूप कड़ी न थी। मैंने बंदूक सँभाली।

तेंदुआ तपाक के साथ बकरे पर आया। जंगली तेंदुए को उस दिन मैंने पहली बार देखा था। पीली-मटमैली भूमि पर गहरे काले, बड़े और छोटे धब्बे। बड़ी-बड़ी मूँछें, चौड़े पंजे और बहुत लचीली देह। तेंदुए को देखते ही बकरे ने सिर नीचा कर लिया। मिमियाना और उछल-कूद सब बंद।

तेंदुआ बकरे पर चढ़ गया। वह छलाँग भरकर उसे जीवित ही उठा ले जाना चाहता था; परंतु खूँटी और रस्सी मजबूत थी। मेरे पास उस समय .275 बोरवाली राइफल थी। मैंने उसके अगले कंधे का निशाना साधा; परंतु उसकी लचीली देह गति के कारण चंचल थी, इसलिए निशाना जोड़ने में दो-चार क्षण लग गए। मेरी बगल में नीचे हटकर एक शिकारी बैठा था। मुझको बिलंब करते देखकर उसकी आँख में क्षोभ आ गया। उसने एक क्षुब्ध संकेत दिया; मानो कह रहा हो, क्या कर रहे हो? क्यों देर लगा रहे हो?

मैंने तुरंत लिबलिबी दबाई। धड़ाके के साथ ही तेंदुआ सिमटा और बिजली की कौंध की तेजी के साथ अपनी चुल में चला गया। मेरा साथी शिकारी चट्टान से उतरकर बकरे के पास गया। बकरा बिलकुल बच गया था।

मेरे साथी ने कहा, 'गोली चूक गई।'

मुझे विश्वास था कि नहीं चूकी; परंतु मैंने कहा, 'शायद चूक गई हो।'

इसके बाद उस स्थान पर गड़रिया भी दौड़ता हुआ आया। उसको अपने बकरे की चिंता थी। जब उसने देखा कि बकरा सही-सलामत है तब उसने चैन की साँस ली। तेंदुआ मरा हो या न मरा हो, बकरा तो बच गया।

मैं भी अपने आसन से उतरा।

मैंने ठौर को टटोला। रक्त की एक बूँद दिखलाई पड़ी। साथी से कहा, 'तेंदुए पर गोली पड़ गई है।'

चुल की ओर जरा और आगे बढ़े। खून का फव्वारा-सा लगा चला गया था। परंतु तेंदुआ चुल में घुस गया था। घायल तेंदआ बड़ी खतरनाक चीज है। गाँव के कुछ लोग आ गए और वे चुल में घुस पड़ने की चाह प्रकट करने लगे। मैंने रोक दिया।

दो घंटे के बाद लड़का चुल में घुस गया। तेंदुआ मर चुका था। परंतु उसके स्थान तक पहुँचने के लिए हिम्मत चाहिए थी, वह उस लड़के में काफी थी। लड़का तेंदुए को चुल के बाहर घसीट लाया।

गोली कंधे के जोड़ से जरा नीचे पड़ी थी, नहीं तो तेंदुआ ठौर पर न जा पाता। खाल छिलवाने पर उसके शरीर का निरीक्षण किया। जान पड़ता था जैसे लोहे के तारों से गँसा हुआ हो।

तेंदुआ बड़ा बहादुर, चालाक, तेज और कसवाला जानवर होता है। शेर की अपेक्षा कहीं अधिक फुरतीला और हिंसक।

इसी स्थान पर कुछ महीने बाद मैं फिर आया। अँधेरी रात में उसी खूँटीवाले स्थान पर खूँटी ठुँकवाकर बकरा बँधवाया। बकरा बाँधनेवाले ने उसकी गरदन में रस्सी बाँधी। मैंने मना किया, रस्सी किसी एक अगली टाँग में बाँधी जाती है। गरदन की रस्सी तो यों ही बकरे की जान उसी के झटको से ले लेगी।

रात में, उन दिनों, मुझको राइफल चलान का अभ्यास न था। दुनाली लाया था। दुनाली में कारतूस डालकर घोड़े चढ़ा लिये। थोड़ी दूर बंदूक को हाथों मे साधे रहा। भोजन कुछ अधिक कर आया था, इसलिए साँस भर रही थी। बंदूक को जाँघों पर रख लिया।

बंदूक को जाँघों पर रखा था कि तेंदुआ तड़ाक से आया। बकरे पर झपटा। मैंने बंदूक उठाई; परंतु सीधी न कर पाई थी कि तेंदुए एक झटके में रस्सी को तोड़ दिया और पलक मारते बकरे को उठा ले गया। बंदूक चलाने की नौबत ही न आ पाई। मैं लज्जा में डूबकर रह गया। अछताता-पछताता उस ठौर से नीचे उतरा।

मेरा दोष कम था, उस रस्सी का दोष ज्यादा। परंतु मैंने सारी जिम्मेदारी रस्सी की कमजोरी और बकरे को बाँधनेवाले के अविवेक पर डाली। जब गाँव में पहुँचा तब मैंने अपने बचाव में यही दलील पेश की। गाँववालों को लोग बहुत सीधा समझते हैं। मेरी दलील उनके मन में बिलकुल घर नहीं कर रही थी। वे लोग शरारत के साथ व्यंग्य करने लगे।

'हाँ, बाबू साहब, तेंदुआ जरा बहुत ज्यादा फुरतीला जानवर होता है।'

'बहुत से शिकारियों को उससे डर लग जाता है। हाथ कुंद हो जाता है; बंदूक चल नहीं पाती।'

'अरे साहब, होता ही रहता है। गड़रिए के बहुत से बकरे तेंदुआयों भी पकड़ ले जाता है। एक और न सही।'

परंतु सबसे ज्यादा चुस्त व्यंग्य एक बहुत सीधे दिखनेवाले का था। उसने एक कहानी ही कह डाली। बोला, 'कुछ दिन हुए एक अँगरेज जंट तेंदुए का शिकार खेलने आए। काँटों का एक छोटा सा परकोटा बनाकर उसके भीतर बैठ गए। चपरासी को भी साथ बिठला दिया। बकरा उस परकोटे के बाहर थोड़ी ही दूर खूँटी से बँधा था, जितनी दूर आप बँधवाकर बैठे थे। तीन तेंदुए एक साथ आ गए। साहब ने बंदूक छोड़कर अपनी पतलून सँभाली। तेंदुए मजे में बकरे को मारकर, वहीं खाकर डकार लेते चले गए। साहब ने पतलून संभाली। बंदूक चपरासी के कंधे पर रक्खी और डेरे पर चल दिए। डेरे पर पहुँचकर चपरासी से बोले, 'काँटों की ऐसी बुरी आड़ सामने आ गई थी कि ठीक-ठीक दिखलाई ही नहीं पड़ता था।' चपरासी नासमझ था। उसने कहा, 'साहब, आप तो असल में डर गए।' जंट ने बिचारे चपरासी को ठोंक डाला। बाबू साहब, बड़े आदमियों की बात कौन कहे! '

मुझको हँसी आ गई। उन लोगों ने कहकहे लगाए। उनकी कहानी और कहकहे का निशाना मैं ही था। रस्सी की कमजोरीवाली बात उनके मन में जरा भी जगह न पा सकी। मैं उनसे कह भी क्या सकता था! परंतु उस दिन की चूक ह्दय में छुरी की तरह चुभ गई।

शीघ्र ही कुछ दिनों बाद मैं एक छुट्टी में उसी गाँव में गया। तेंदुए के उत्पाद का समाचार मुझको झाँसी में मिलता रहता था। अब की बार मैं निश्चय करके चला था-गाँववालों को ठिठोली करने का अवसर न दूँगा। प्रबल रस्सी और गहरे गड़े हुए मजबूत खूँटे से बकरे को बँधवाऊँगा। करामत साथ था।

हम दोनों पहाड़ी के नीचे-नीचे गाँव की ओर रास्ते चले जा रहे थे। हमारे आगे-आगे सौ-डेढ़ सौ डग के अंतर पर गाँव के ढोर अपनी सारों को लौट रहे थे। सूर्यास्त नहीं हुआ था।

रास्ते के ठीक ऊपर एक चौड़ी-चकली चट्टान पर, जो रास्ते के तल से लगभग पंद्रह ऊँची थी, मैंने कुछ गोल-मटोल पदार्थ तेंदुए के सिवाय और कुछ न था। जाते हुए ढोरों को ताक रहा था। सोचता होगा, एकाध पिछड़ जाय तो दे मारूँ। जब मैं उसके बिलकुल निकट पहुँच गया तब उसने मुझको देखा। वह दुबक गया। पीछे न खिसक पाया। दुनाली में उस समय हिरनमार छर्रे के कारतूस थे। कारतूस बदलने का मौका नहीं था। मैंने तुरंत एक नाल उसपर खाली कर दी। तेंदुआ छर्रे के धक्के से पीछे उचटा और अदृश्य हो गया। मैंने इनते पास से बंदूक चलाई थी कि तेंदुआ जरा सी उचाट मारकर मेरे ऊपर आ कूदता तो कुछ पलों में ही मेरा ढेर हो जाता। परंतु करारी चोट खाकर भी तेंदुआ पीछे कैसे चला गया।

मैं इस विचार में डूबता-उतराता गाँव में आया। गांववाले मेरे ऊपर बड़ा स्नेह करते थे। मैंने उनको सुनाया। बंदूक का शब्द उन लोगों ने सुन ही लिया था। जब मैंने घटना का ब्यौरा सुनाया तब वे तो नहीं हँसे, पर मैं हँसता रहा।

मैंने कहा, 'शायद चूक गई हो।'

उन लोगों ने प्रतिवाद किया। इतने में सूर्यास्त हो गया और रात आ गई। रात को और अधिक कुछ नहीं हो सकता था। मैं वहीं बस गया।

सवेरा होते ही तेंदुए की ढूँढ़-खोज हुई। जिस स्थान से मैंने बंदूक चलाई थी, उसके बगल में एक पुखरिया थी। उसमें पानी था। पानी के पास ही खून का बहता लगा हुआ था। हम सबको विश्वास हो गया कि तेंदुआ घायल हो गया है। परंतु उसके साथ ही इसमें भी संदेह न था कि हिरनमार छर्रे की मार खाकर भी उसमें काफी बल बना रहा और यदि उसको धुन बँध जाती तो घायल होते ही वह मेरे ऊपर टूटता और उसका जो फल होता उसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।

करामत और मैं चुल के भीतर घुसे-बंदूकें ताने हुए। वहाँ खून-ही-खून पड़ा था। परंतु तेंदुआ वहाँ न था। चुल के बाहर आकर हम लोगों ने सावधानी के साथ तेंदुए की खोज पहाड़ी के ऊपर की। जहाँ पर मैंने उसके ऊपर बंदूक चलाई थी। वहाँ से कुछ गज के फासले पर तेंदुआ मरा हुआ पड़ा मिला।

तेंदुआ इतना गाँठ-गँठीला और प्रबल पुट्ठोवाला जानवर होता है कि जब तक हिरनमार छर्रे गरदन, सिर या कंधे के जोड़ पर न पड़े, वह शीघ्र नहीं मर सकता और ऐसी हालत में उसका घायल पड़ा रहना ढोरों और मनुष्य़ों के लिए समान संकटजनक है।

तेंदुए के स्वभाव की जानकारी न रखने के कारण मैं कई बार संकट में पड़ा; परंतु मुझे मखौल भी काफी मिला।

एक बार कुछ मित्रों के साथ सारौल गया। सारौल झाँसी के लगभग बाईस मील उत्तर-पूर्व में है। ऊँची पहाड़ियाँ हैं। तेंदुओं और लकड़बग्घों के रहने के लिए उनमें काफी पोलें हैं। थोड़ी दूर पर बीजोर-बाघाट गाँव है। 'बाघाट' महाभारत का 'वाकाट' है; जैसाकि स्व. काशीप्रसादजी जायसवाल ने तय किया है। बाघाट में कई गुफा चित्र (Cave paintings) हैं, जिनकी आयु लगभग पाँच हजार वर्ष कूती जा सकती है। सारौल में भी कुछ है और एक के ऊपर अनेक रखे हुए बड़े-बड़े शिलाखंड भी। पहले मैं इनको ज्वालामुखियों के प्राचीन उपद्रवों की क्रिया समझकर संतोष कर लेता है; परंतु अब मेरा खयाल है कि ये शिलाखंड आदिम मनुष्यों ने अपने किसी महोत्सव के स्मारक में रखे हैं अथवा अपने बड़े लोगों के शवों को इनके नीचे गाड़ा है।

सारौल के पूर्व में पहाड़ियों से घिरा एक तालाब है। एक ओर उसपर चंदेली बंध है। तालाब बड़ा तो नहीं है, पर बहुत ही सुहावना है। जेठ के महीने यह बिलकुल सूख जाता है। इसमें वहाँ के कुछ लोग अस्थायी कुएँ खोदकर गरमियों में भटे-भाजी कर लेते हैं।

हम लोग सारौल पहुँचकर इसी तालाब में जा बैठे। साथ में पड़ोस के एक बड़े जमींदार भी आए थे। खाना वे बाँध लाए थे। वह बहुत थोड़ा था। इधर हम थे सबके सब पक्के सात।

खाना सारौल में बनने लगा। वहाँ आते ही खबर मिली थी कि पहाड़ियों में चार-छह तेंदुए हैं और वे रात को सूखे तालाब के उथले खोदे हुए गड्ढों में पानी पीने के लिए आते हैं। इस तरह गड्ढे तालाब में तीन-चार थे। हम सब बँट-बँटाकर इन गड्ढों पर जा बैठे या लेटनी लगा गए। मैं जमींदार साथी सहित एक गड्ढे पर जा बैठा। गड्ढे से दिन में ढेंकली से दिन में ढेंकली द्वारा भाजी-भटो को पानी दिया गया। पानी ऊपर के खदरों में भरा था। भटोहीवाले ने बतलाया कि तेंदुए आठ बजे रात के लगभग खदरों में पानी पीने आते हैं। भटोही में लोटते-पलोटते हैं और पर्याप्त मनोरंजन के उपरांत शिकार की टोह में चल देते हैं-वैसे में यदि कोई हिरन या चीतल आ गया तो उसको समेट-समाटकर चल देते हैं। मैंने सोचा, यहाँ तो तेंदुए भटे-भाजी की ही तरह सुलभ हैं। अपने जमींदार साथी की सलाह ली। देहात में रहते हुए भी वे तेंदुए के विषय में मुझसे बढ़कर अनजान थे। सलाह से तय हुआ कि पानी भरे खदरे से केवल दो-चार हाथ के अंतर पर बैठ जाना हितकर होगा। आड़-ओट का सवाल आया। वहाँ कुछ टूटे-फूटे पुराने-धुराने घड़े पड़े थे। आड़-ओट और स्वरक्षा के लिए इनको बहुत काफी समझा गया। मैंने अपने और पानी भरे खदरे के बीच में इन टूटे हुए घड़ों का एक लंबा सा अटंबर लगाया और बंदूक साधकर तेंदुओं के आने की प्रतीक्षा करने लगा।

मेरी किस्मत प्रबल थी, इसलिए मेरे साथी को मुझसे भी ज्यादा भूख लग आई। वे अपनी बंदूक एक तरफ रखकर भटों की तलाश में चुपचाप हाथ फेंकने लगे।

इतने में साँभर बोला, चीतल कूके और चिड़ियाँ चहकीं। उस सुनसान स्थान में ये ध्वनियाँ मोहकता बरसाने लगीं। जेठ का महीना था, परंतु तालाब में हवा ठंडक को उड़ेल-सी रही थी। रात अँधेरी थी। तारे खुले हुए-से आकाश में चमचमा रहे थे। ऐसा लगता था कि रात भर चाहे भूखे बैठे रहें, परंतु रंग में भंग करनेवाला कोई आसपास न आवे। मेरे जमींदार साथी कुछ और सोच रहे थे - और कुछ कर भी रहे थे। उन्होंने तीन-चार बैगन तोड़े, कमीज की झोली में उनको कसा और कुछ कर भी रहे थे। उन्होंने तीन-चार बैगन तोड़े, कमीज की झोली में उनको कसा और अपने मोरचे पर जा डटे। बंदूक एक तरफ रख ली। पर उनकी सारी कारिस्तानी का पता मुझको तब लगा जब दो तेंदुए मेरे सिर पर आ गए।

तेंदुए पानी पर आए। मेरे और उनके बीच में केवल ढाई-तीन हाथ का अंतर था। मैंने सोचा, आज लिखा गया नाम पक्के शिकारियों में। यह नहीं जानता था कि बंदूक के चलते ही वे दोनों सिर पर सवार होते और कच्चे शिकारियों की सूची तक में नाम लिखे जाने की नौबत न आती। मैंने चलाने के लिए बंदूक उठाई थी कि मेरे साथ ने कड़कड़ाहट के साथ भटे चबाने-मुराने शुरू कर दिए। तेंदुओं ने सुन लिया। उनकी तेज आँखों ने मेरे साथी की डीलडौल को भी देख लिया और वे छलाँग मारकर भाग गए। मैं बच गया और मेरे साथी पकड़े गए। वे इतनी मौज और ओज के साथ भटे चबाए जा रहे थे कि हँसी के मारे नाकों दम आ गया। थोड़ी देर में खाना भी आ गया।

रात भर मजे में सोए। पौ फटने के पहले जाग पड़े। हाथ-मुँह धोकर बैठे कि तड़का हुआ। पहले पौ फटी। सामने पहाड़ी पर आँख गई तो देखा कि तेंदुआ बैठा है।

झटपट उठकर, पहाड़ी का चक्कर काटकर ऐसे स्थान पर पहुँचे, जहाँ से तेंदुआ बहुत पास पड़ता था। परंतु जब तक वहाँ जाकर खड़े हुए, तेंदुआ सामने की दूसरी पहाड़ी पर जा पहुँचा। दोनों पहाड़ियों के बीच में एक सँकरा मार्ग था। पहाड़ी दूर न थी। राइफल की मार में तेंदुआ था।

सूर्योदय हो रहा था। तेंदुआ बाल-रवि की ओर मुँह किए हुए खड़ा था। मैं उसको देखकर मुग्ध हो गया। राइफल जोड़कर कंधे से नीची कर ली।

तेंदुए ने पूँछ हिलाई, ऊँची की और गरजना शुरू किया। मुझको उस समय वह गरज बड़ी जादू भरी लगी। गरज पहाड़ियों को गुँजा रही थी और लौट-लौटकर कहीं समा रही थी।

मेरे साथी ने धीरे से कहा, 'कैसा आड़ा खड़ा है! पत्थर पर बंदूक साधकर चलाइए, खाँद नहीं छोड़ेगा। वहीं पड़ा हुआ अभी मिल जाएगा।'

परंतु मैं मुग्ध था। बंदूक न चला सका। कई मिनट तक तेंदुए के उस व्यवहार को देखता रहा। भ्रम हुआ कि यह अपनी बोली में सूर्य को नमस्कार कर रहा है।

तेंदुआ वहाँ से चल दिया। मेरे सब साथी मुझसे निराश हुए।

दिन भर लू चलती रही; परंतु मैं शर्माजी और करामत के साथ पहाड़ियों में घूमता रहा। एक पहाड़ी की गुफा के सामने तेंदुए के पंजों के टटके निशान मिले। मैंने बकरा मँगवाया। एक चट्टान पर आड़ बनाकर संध्या के काफी पहले बैठ गया। ऊपर से लू सेंक दे रही थी और नीचे से गरम चट्टान; परंतु शिकार की धुन में कुछ भी न खला।

संध्या का झुटपुटा होते ही तेंदुआ चुल से बाहर निकला। निकलकर बकरे झपटा नहीं, ठमठमा गया। मैंने उसको बकरे पर आने का समय नहीं दिया। छर्रेवाला कारतूस चलाने की गलती नहीं की। गोली का कारतूस चलाया। परंतु जल्दी कर दी। गोली उसके पेट पर पड़ी और पार हो गई। तेंदुआ गिरता-पड़ता जंगल की राह पकड़ गया। सवेरे तलाश किया। लगभग पौने मील पर एक नाले में अधखाया मिला।

दूसरे दिन पास के एक गाँव में एक तेंदुए की खबर मिली। वह घरों में घुसकर बच्छे-बछियों को उठा ले जाता था और गायों तक को मार देता था।

मचान बाँधकर बैठा। बकरा खूँटी से बाँध लिया। पास के एक खेत में गायें बैठी थीं। तेंदुए के आते ही गायें अपने दुश्मन पर टूट पड़ीं। तेंदुआ उनके झुंड के बीच में फँस गया। मचान के पास होते हुए भी बंदूक नहीं चलाई जा सकती थी। शायद किसी गाय को लग जाय। इसलिए मैं रह गया। तेंदुआ भी किसी तरह अपनी जान बचाकर गायों के बीच में से निकल भागा।

तेंदुए के बराबर ढीठ शायद ही कोई और जानवर होता हो।

इस घटना के कई महीने बाद मुझको एक तेंदुए की खबर मिली। वह बहुत उपद्रव करने लगा था, और इतना चालाक था कि कई शिकारियों के धोखा दे गया। इन शिकारियों ने उसकी चुल के पास मचान बनाकर बकरे बाँधे थे। वह उन बकरों पर नहीं आया।

मैंने गाँव में ही एक मकान के पीछे बेरी के पेड़ पर मचान बनवाया और संध्या के उपरांत बकरा बँधवाकर मचान पर जा बैठा। रात चाँदनी थी। तेंदुआ एक पहर रात गए आया। उस समय गाँव की चहल-पहल मंद पड़ गई थी।

जैसे ही तेंदुआ बकरे पर आया, मैंने बंदूक चलाई। निशाना खाली गया। तेंदआ भाग गया। मैंने सोचा, अब लौटकर नहीं आवेगा। परंतु सुन रखा था कि ढीठ और निडर होता है, शायद लौट पड़े।

चले हुए कारतूस को नाल से हटाकर उसमें दूसरा कारतूस डालकर सोच ही रहा था कि बैठूँ या डेरे पर जाकर लंबी तानूँ कि तेंदुआ बकरे पर फिर आ गया। उसने बकरे को छू भी न पाया था कि गोली चल गई और तेंदुआ समाप्त हो गया।

एक बार मचान पर मैं शर्माजी के साथ बैठा था। चाँदनी धुँधली थी। जब तक चाँदनी रही, बकरे पर आनेवाले तेंदुए को शर्माजी ने तीन बार निशाना बनाया और तीनों बार गोली चूकी। अँधेरा होने पर तेंदुआ फिर आया। चौथी गोली भी चूक गई। आधा घंटे बाद वह फिर आया। अब की बार शर्माजी ने उसको खत्म कर दिया।

तेंदुआ मरे हुए तेंदुए को खा जाता है। एक बार तेंदुआ घायल होकर एक टोर की ओट में जा पड़ा। रात के कारण उसको उस समय न ढूँढ़ पाया। सवेरे जो देखा तो पेट की तरफ से खा लिया गया था। पास ही धूल में उसका भक्षण करने वाले तेंदुए के पंजो के निशान थे।

तेंदुए को बँधे हुए बकरे पर प्रायः संदेह हो जाता है। यदि बहुत से चरते हुए बकरों में से एक को खूँटी से बाँध लिया जाय तो वह समझता है कि यह बकरा अकस्मात् अटक गया या भटक गया है और वह उसपर झपटने में देर नहीं लगाता। मैंने कई बार इस योजना को प्रयुक्त किया है और कभी विफल नहीं हुआ। परंतु यह साधन सदा सुलभ नहीं होता। प्रायः मचान या हँकाई का सहारा लेना पड़ता है। हँकाई तेंदुए को मारना कई उपकरणों पर निर्भर करता है। हाँकवाले अच्छे हों, जिस लगान पर शिकारी की बैठक हो वह साफ स्थान हो, तेंदुआ उछलता-कूदता न आ रहा है। और शिकारी का हाथ जरा सधा हुआ हो। परंतु मचान के शिकार में इतनी अड़चने नहीं हैं। यदि कोई अड़चन है तो यह कि तेंदुआ आवे और न आवे।

मुझको तो अनेक बार कोरी आँख सवेरा हुआ। परंतु रात भर जागते हुए, प्रतीक्षा करते हुए, असंख्य बड़े-बड़े तारों पर आँख फिसलाते हुए, विलक्षण बोलियों को सुनते हुए और अँगड़ाई हुए भी कुछ प्रमोद मिलता ही है। उस शांत एकांत में मन के न मालूम किन-किन कोनों से क्या-क्या विचार और कल्पनाएँ उठती-बैठती हैं।

मचना पर न बैठकर भूमि पर बाजे-बाजे शिकारी बैठते हैं। आड़-ओट अवश्य बना लेनी पड़ती है। इस प्रकार के शिकार में संकट और ओज दोनों ही एक-सी मात्रा में मिल सकते हैं।

मैं भी समतल भूमि पर काँटों की आड़ बनाकर कई बार तेंदुए के शिकार के लिए बैठा; परंतु सफल कभी नहीं हुआ। अनुभव निस्सेंदेह विलक्षण प्राप्त हुए।

एक बार एक अच्छी खासी आड़ बनाकर बैठ गया। आड़ के आगे एक पगडंडी थी। पगडंडी से पंद्रह फीट की दूरी पर बकरा बाँध लिया था। आड़ के मध्य में एक छोटा सा छेद बना लिया था, जिसमें होकर बकरे को और बकरे पर आनेवाले को देखा जा सके।

संध्या के पहले ही जा बैठा और सूर्यास्त के पहले तेंदुआ आ गया। परंतु वह बकरे पर नहीं गया। पगडंडी से मेरी ओट के पास से बिलकुल सटकर निकला। बंदूक नीचे रखी हुई थी। उसको उठाने का समय न मिला। तेंदुआ तीन-चार फीट के फासले पर से निकला। कुशल हुई कि मेरी ओर से हवा का रुख तेंदुए की ओर न था। रुख उलटा था। तेंदुआ इतने पास से निकला कि मैं उसकी मूँछों को गिन सकता था। उसकी आँखें प्रचंड थीं और जबड़ा नीचे को जरा लटका हुआ। धरती पर पंजा रखने के समय शब्द होता नहीं है, इसलिए जान न पड़ा कि किस दिशा से आया। मैं टकटकी लगाकर बकरे की ओर देखने लगा। कुछ पलों के बाद तेंदुआ बकरे के पास गया और बराबरी पर खड़ा हो गया। बकरा सिर नवाए था। बिलकुल गुमसुम। मैंने बंदूक सँभाली। देखूँ तो पीछे से यकायक एक डकराती हुई गाय आ रही है। शायद वह बकरे को बचाना चाहती थी; परंतु अपनी रक्षा के लिए सचेत थी। तेंदुआ वहाँ से हट गया। न तो वह गाय पर झपटा और न बकरे से बोला। तेंदुए के चले जाने पर गाय भी भाग गई। मुझकों इस समग्र व्यापार पर विस्मय था। विस्मय में पड़ा था कि बकरे के पास एक लकड़बग्घा आया।

लकड़बग्घे का अगला हिस्सा भारी होता है और पिछला पतला। दुम छोटी। मुँह बहुत बड़े कुत्ते जैसा। इसके शरीर पर धारें होती हैं। शरीर से बहुत दुर्गंधि निकलती है। यह घोड़ों, गधों और कुत्तों का परम शत्रु है; परंतु होता अत्यंत डरपोक है। एक लकड़बग्घा दूसरे लकड़बग्घे को मरी हालत में तो खा ही जाता है, अपने घायल सहवर्गी को भी नहीं छोड़ता। सड़ा-गला मांस, नई पुरानी हड्डियाँ सब चबा जाता है।

मैं इससे पहले अनेक लकड़बग्घे मार चुका था। इस लकड़बग्घे पर अपना कारतूस खराब नहीं करना चाहता था। परंतु हटाता तो किस तरह। आसपास कोई कंकड़-पत्थर भी न था कि फेंककर उसको डरवाता। उधर बकरे की जान खतरे में थी। परंतु उसका बचानेवाला वहीं छिपा था।

वह था तेंदुआ। अपनी घात में बैठा। रात होने पर बकरे पर आता; पर यह घृणास्पद लकड़बग्घा पहले ही आ गया। तेंदुए ने वहीं से छिपे-छिपे एक हलकी घुड़की दी। घुड़की के सुनते ही लकड़बग्घे के होश कूच कर गए। बेतरह भागा। परंतु भागकर भी उसने प्राण न बचा पाए। तेंदुआ उसपर झपटा-वह लकड़बग्घे को उसकी अनधिकार चेष्टा का दंड़ देना चाहता था। लकड़बग्घा थोड़ी ही दूर भाग पाया था कि तेंदुए ने उसको धर दबोचा।

फिर उन दोनों का जिस भाषा में वाद-विवाद हुआ, वह अवर्णनीय है; क्योंकि कवेल ध्वन्यात्मक थी।

घबराए हुए लकड़बग्घे की बोली फटे हुए भोंपू जैसी होती है। तेंदुए की मार के मारे वह अपनी फटा हुआ भोंपू पूरे जोर के साथ बजा रहा था और तेंदुआ हुंकार भरी हूँ-हूँ से उसका पलेथन बना रहा था। यह सब मेरे स्थान से कुछ डगों पर हो रहा था। मैं अपने काँटों में होकर अत्यंत उत्सुकता के साथ देख रहा था। सोचता था कि ये दोनों अपने अखाड़े को जरा और विस्तृत कर दें तो मेरी ओट की और मेरी भी खैर नहीं। इसपर भी मैंने बंदूक नहीं चलाई। मैं इस युद्ध का अंतिम परिणाम देखना चाहता था।

अंतिम परिणाम, जैसा कि अनिवार्य था, वैसा ही हुआ। लकड़बग्घे को तेंदुए ने चीर-फाड़कर फेंक दिया। पर खाया नहीं। लकड़बग्घे के नाखून लंबे होते हैं और पंजा बड़ा। उसके नाखून तेंदुए की तरह गद्दी के अगले भाग के भीतर छिपे नहीं रहते। यही कारण है कि जब वह चलता है, पृथ्वी पर नाखून रगड़ खाते हैं और आवाज करते हैं। लोगों को भ्रम होता है कि लकड़बग्घा अपना पिछला धड़ घसीटकर चलता है, इसीलिए शब्द होता है।

उस लकड़बग्घे ने तेंदुए को अपने लंबे नाखूनों और बड़ी-बड़ी दाढ़ों से घायल कर दिया था; परंतु बहुत नहीं, क्योंकि युद्ध थोड़ी सी देर तक ही चला था।

तेंदुआ लकड़बग्घे से निबटकर बकरे के लिए एक पीछेवाली झाड़ी में जा छिपा। वह गत युद्ध के परिश्रम के कारण हाँफ रहा था और शायद अपने घावों पर जीभ फेर रहा था-दिखलाई तो पड़ नहीं रहा था, केवल शब्द सुनाई पड़ रहा था।

रात गहरी हो गई। बकरा थक-थकाकर बैठ गया। झाड़ी के पीछे से तेंदुए की हाँफ और जीभ फेरने का शब्द काफी देर पहले बंद हो चुका था। जमीन पर बैठने के लिए मेरी गाँठ में टाट का केवल एक छोटा सा टुकड़ा था। प्रतीक्षा करते-करते अधीर हो गया। सोचा, जरा खड़े होकर देखूँ कि ओट के बाहर के जगत् का क्या हाल है। बकरे के बैठ जाने से विश्वास हो गया था कि तेंदुआ कहीं दूर चला गया है।

मैं जैसे ही खड़ा हुआ, तेंदुए ने झाड़ी के पीछे से छलाँग मारी और द्रुत गति से जंगल में भाग गया। मैंने उस स्थान पर और अधिक ठहरना व्यर्थ समझा और बकरे को बगल में दाबकर गाँव चला आया।

तेंदुए की आँख और कान बहुत तेज होते हैं। वह मूँछों के सहारे भी बहुत सी ढूँढ़-खोज कर लेता है। मचान पर बैठकर कई बार मैंने जरा सा शब्द करके अवसर को खो दिया। कभी मचान जरा सा चरमरा गया, कभी कमर पेटी थोड़ी सी चिकचिका गई और कभी जेब में पड़ा हुआ कोई कागज या चमड़े का बटुआ ही तेंदुए के खिसक जाने का कारण बन गया।

मचान पर घंटों चुपचाप बैठे रहना एक बहुत ही कष्टसाध्य प्रयास है। भरपेट भोजन करके मचान पर बैठना तेंदुए को खो देने का पूर्व निश्चय तो करा ही देता है, और भी कई दंड देता है। बार-बार प्यास लगती है। भर-भरकर साँस लेनी पड़ती है और बार-बार आसन बदलना पड़ता है। ऐसी दशा में मचान पर न बैठकर घर की चारपाई पर करवटें बदलना कहीं ज्यादा अच्छा।

तेंदुआ जंगल में छह-सात बजे और गाँव में गायरे पर ग्यारह-बारह बजे रात तक आ जाता है। यदि उसको आरंभ में दुविधा दिखलाई पड़ी तो बाद को आता है; परंतु आता अवश्य है। उसकी लंबी प्रतीक्षा शिकारी के धैर्य की कसौटी है।

संध्या होते ही पहले खरगोश दिखलाई पड़ते हैं। शिकारी इसे अपशकुन मानते हैं। अपशकुन इसलिए कि खरहे के आने की जगह तेंदुए से खाली होनी चाहिए। जहाँ कोई खुटका होगा वहाँ खरहा आने ही क्यों चला! परंतु जंगल में खरहे इतनी अधिक संख्या में होते हैं कि किसी विशेष स्थान में तेंदुआ हो या न हो, खरहा तो सूर्यास्त के समय बाहर निकलेगा ही।

मैं जब मचान के ऊपर जा बैठा और बकरा बँधवा लिया, तब आधी घड़ी बाद ही मचान के नीचे और आसपास कई खरहे आए-गए। सूर्यास्त होते-होते तेंदुआ भी आया।

तेंदुआ आकर बकरे की बगल में खड़ा हो गया। उसने बकरे को सूँघा भी। बंदूक तैयार थी, परंतु मैंने चलाई नहीं। मैं देखना चाहता था कि तेंदुआ बकरे को सूँघ-सूँघाकर फिर क्या करता है। मैं मचान पर से लगभग बारह बजे रात को उतर आया।

दूसरे दिन फिर उसी मचान पर जा बैठा। खरहे आए और चले गए। सियार भी आए। इनका इलाज मेरे पास था-मैंने मचान पर थोड़े से कंकड़ रख छोड़े थे।

तड़ाक से एक कंकड़ मैंने सियार के ऊपर छोड़ा उसको लगा। वह भाग गया। निश्चित था कि तेंदुआ उस समय वहाँ नहीं है। मैं खाली पेट था। हाँफ और साँस की कोई चिंता न थी। रात भर बैठा रहना पड़ता, तो भी न थकता।

गरमियों के दिन थे। नदी का किनारा। किनारे से लगे हुए भरके और छोटे-छोटे नाले। इनमें करौंदी का जंगल था। करौंदी फूलों से लदी हुई थी और वायु उसकी महक से लदी जान पड़ती थी। नदी के पानी के पास चकवा-चकई बोल रहे थे। वे अलग न थे। रात को भी साथ ही रहते हैं। पुराने कवियों के भ्रम में ने ही उनको अलग किया है। पानी में मछलियाँ उछल-उछलकर डूब रहीं थी। पतोखियाँ और टिटिहरियाँ बोल-बोल जाती थीं। रात बिलकुल अँधेरी थी; परंतु तारे निकल आए और झिलमिला रहे थे - निले आकाश में टँके हुए से।

थोड़ी देर बाट देखने के बाद मैंने बंदूक के नीचे अपनी टॉर्च एक रूमाल से बाँधी और बंदूक को जाँघ पर रख लिया।

एक बड़ा तारा पूर्व दिशा के भाल पर दमक रहा था। वह पेड़ के झरोखे में से साफ दिखलाई पड़ता था। करौंदी की मस्त महक और उस तारे की लुभानेवाली दमक में मुझको तेंदुए के शिकार की लालसा न रही। मैं एकटक उस अद्भुत तारे को देखने लगा।

इतने में खूँटी से बँधा हुआ बकरा चटका। उसके प्राणों की मुझको चिंता हुई। उस अँधेरी रात में मचान के नीचे की भूमि पर बकरा एक हिलता हुआ छपका दिखलाई पड़ा। मैं समझ गया कि बकरे के पास कोई आ रहा है।

एक क्षण उपरांत ही बकरेवाले छपके पर एक बड़ा और लंबा छपका जोर के साथ हिलता हुआ दिखलाई पड़ा। साथ ही बकरे की 'में-में' सुनाई पड़ी। उसी बड़े छपके की सीध में दुनाली हो गई। टॉर्च का बटन दबाते ही तेज प्रकाश हुआ। एक लंबा-चौड़ा तेंदुआ बकरे को दबोचे हुए था।

'धाँय!' गोली चली। वह तेंदुए को फोड़कर बकरे को जा लगी। तेंदुआ बकरे को छोड़कर दूर जा पड़ा थोड़ी सी हुंकारियाँ मारकर चुप हो गया। गोली लगने के कारण बकरा भी खत्म हो गया-तेंदुए से पहले ही।

कारतूस में पक्की गोली (Solid ball) थी। यदि कच्ची गोली (soft ball) होती तो वह तेंदुए के भीतर ही रह जाती और बकरा बच जाता। तेंदुए ने बकरे को ऐसा जकड़ लिया था कि मैं कुछ और कर ही नहीं सकता था।

तेंदुआ काफी लंबा-चौड़ा था। परंतु इससे एक बड़ा शर्मा जी ने मारा था। और, सबसे बड़ा तो वह था, जिसको चि. सत्यदेव ने दिन में बैलगाड़ी पर से केवल आठ-दस फीट के फासले पर चित्त कर दिया था। गोली खाते ही तेंदुआ उछला; छलाँग जरा तिरछी पड़ती तो सीधा गाड़ी पर आता। उसपर तुरंत दूसरी गोली पड़ी और वह ठंडा हो गया। नापने पर वह दो इंच कम आठ फीट लंबा था। इन जानवरों की नाप पूँछ सिरे से नाक के छोर तक ली जाती है। इस तेंदुए का रंग और उबार बहुत गहरा था। डीलडौल में छोटे शेर के बराबर जान पड़ता था।

इन जानवरों को मुलायम खालवाला जानवर कहते हैं। इनके लिए पक्की गोली उपयुक्त नहीं है। खाल इतनी लोचदार, इतनी लचीली होती है कि कभी-कभी पक्की गोली-जैसा कि कुछ लोगों का मत है-उसपर से रिपट जाती है। कच्ची गोली चकत्ता बन जानेवाली मुलायम, नोकदार गोलियाँ ही इन जानवरों के लिए ठीक हैं।

तेंदुआ साधारण तौर पर मनष्य पर हमला नहीं करता; परंतु दबे पाँव चढ़ भी बैठता है। घायल तेंदुआ तो मौत का द्वार ही है। हर साल एक-न-एक शिकारी घायल तेंदुए की दाढ़ों और नाखूनों का शिकार हो जाता है।

घायल होने के बाद तेंदुए को कई घंटे तक खोजना सावधानी का एक नियम-सा है; परंतु इस नियम की परवाह शायद ही कोई शिकारी करता हो। फल ही उसका जो अनिवार्य है, वह होता है।

तेंदआ छप्पर तोड़कर बकरवाली घरों में प्रवेश करता है। नाखून गड़ाकर दीवार पर चढ़ता है और छोटे-मोटे जानवरों को मुँह में चाँपकर ले भागता है। जो कुत्ते इसको रात-रात भर भौंककर चिढ़ाते हैं, उनको मिटा देने की यह गाँठ-सी बाँध लेता है और एक-न-एक रात मिटाकर रहता है।

मैंने अपने फॉर्म पर खेती की रखवाली के लिए जितने कुत्ते पाले, वे ज्यादा काम न करते थे तो रात को भौंकते अवश्य थे। उसने बारी-बारी से सबको समाप्त कर दिया।

परंतु तेंदुए की मुठभेड़ जब सुअर से होती है तब उसको छठी के दूध की याद आ जाती होगी। किंतु सुअर हो खीसदार। खीसदार सुअर के साथ तेंदुए की लड़ाई रात-रात भर होती है। एक तरफ से 'हुर्र हुख' और दूसरी तरफ से हुंकार की टंकारें होती हैं। यह लड़ाई दो में से एक की समाप्ति पर ही निबटती है। कभी-कभी तो दोनों ही मर जाते हैं। सुअर अपनी छुरी जैसी खीसों से तेंदुए के चिथड़े उड़ाता है और तेंदुआ अपने पाँचों हथियारों से सुअर की बोटियाँ बिखेरता है।

कभी-कभी 'सेही' से भी तेंदुए की थोड़ी देर लड़ाई हो जाती है; परंतु यह विग्रह अल्पकालीन होता है। सेही के शरीर पर-पिछले भाग पर अधिकतर लंबे-नुकीले काँटे होते हैं। यह इन काँटों को आत्मरक्षा में अपने आक्रमणकारी पर तेजी के साथ छोड़ती है। ये काँटे शरीर में से जाते हैं।

परंतु अंत में तेंदुआ सेही को मारकर खा जाता है।

मैंने एक बार एक तेंदुआ मारा। जब खाल छिलवाई तो उसके पुट्ठों में सेही के दो काँटे निकले। घाव पुर गया था, पर मांसपेशी में वे काँटे ज्यों-के-त्यों थे।

एक और तेंदुए के शरीर में से सीसे का एक छर्रा निकला था। किसी शिकारी का छर्रा खाकर भी तेंदुए का कुछ न बिगड़ा था।

कुछ लोग इसको शिकारी कुत्तों से घेरकर बरछे से मारते हैं। परंतु मार उसको तब पाते हैं जब वह एकाध कुत्ते की चटनी बना डालता है और स्वयं घायल हो जाता है या बहुत थक जाता है। इस प्रकार का शिकार काफी समय लेता है।

एक तरह से और उसको मारा जाता है; परंतु वह वध है, शिकार नहीं। खिसियाए हुए गाँववाले, जिनमें से अनेक बंदूक देखी तक नहीं, करें भी और क्या!

एक गहरा गड्ढा खोदा। उसपर गाड़ी का पहिया नाम मात्र के सहारे से रख दिया। एक ओर, चबाकर, बकरा बाँध लिया। तेंदुआ आया। उसने बकरे पर झपट लगाई। बकरा अलग, तेंदुआ गड्ढे में और पहिया जा सटा गड्ढे के ऊपर। फिर जुटे गाँववाले पत्थर और लंबे-नुकीले ले-लेकर और किया उसको ठोंक-पीटकर समाप्त।

तेंदुआ जंगल या अपनी चुल से साँझ के लगभग निकल पड़ता है और प्रातःकाल के जरा पहले लौट आता है। ठंड के दिनों में वह काफी दिन चढ़े तक घमोरी लेता है। गरमियों की ऋतु में वह शाम को किसी खुली सुरक्षित जगह में लेट जाता है। वहीं से अधमुँदी आँखों गुंताड़े लगाता रहता है-शिकार की टोह-टाप में।

तेंदुआ अपनी मादा के साथ असाढ़ और कातिक के लगभग रहता है। इनकी लड़ाई-भिड़ाई या मेल-मिलाप का समाचार इनका गर्जन-तर्जन देता है। सारा जंगल इनकी गूँजों के मारे उमग सा पड़ता है।

एक बार ऐसे ही एक गर्जन को सुनकर मैं बंदूक लेकर दौड़ा। गर्जन लगभग आधा मील दूर से आ रहा था। जब मैं पास पहुँचा तब वह दूर हट गया। झाड़ी घनी थी। रेंगते-रेंगते मैं तेंदुए के पास पहुँच गया। मैंने बंदूक नहीं सीधी कर पाई और उसने देख लिया। वह एक हुंकार के साथ विलीन हो गया। मैं पसीना बहाता हुआ अपने डेरे पर लौट आया।

रेंगते-रेंगते तेंदुए के पास पहुँचना समय नष्ट करना है। तेंदुए के कान इतने तेज होते हैं कि कोई भी इस प्रकार की आसानी के साथ उसको नहीं दबा सकता। इस रेंग-राँग के बीच वह स्वयं प्रचंड विशेषज्ञ और पारंगत है। उसकी ही जातिवाला इस तरह उसके पास पहुँच सकता है। मनुष्य के लिए तो बहुत दुष्कर है।

तेंदुए की भिन्न-भिन्न बदमाशियों के कारण कुछ लोग अपनी खीज में उसको 'खजुहा' कहते हैं। कोई-कोई 'नकटा', क्योंकि उसकी नाक बिलकुल चिपटी होती है - और कोई-कोई 'कटना'।

जिस समय वह अपनी लोच को फैलाता और समेटता हुआ जंगल में चलता है, उस समय उसपर शान बरस बरस सी जाती है। परंतु जब उसके हत्यारेपन की याद आती है तब उसके लावण्य या सौंदर्य के साथ कोई सहानुभूति नहीं रहती।

फिर भी तेंदुए की कोई अदा मन पर एक लकीर छोड़ ही जाती है। जब कभी-कभी रात को नींद नहीं आती और मन इधर-उधर भटकता है तब कुछ ऐसी स्मृतियाँ विचलित मन और गहरी नींद को जोड़नेवाली कड़ियाँ बन जाती हैं।

अँधेरी रात थी, पर मोटर की तेज रोशनी थी। ललितपुर से टिकमगढ़ जा रहा था। मार्ग अच्छा न था। मोटर जरा धीमी चाल से जा रही थी। यकायक एक बड़ा तेंदुआ सड़क के एक छोर से दूसरे छोर को निकल गया। बड़े-बड़े गुल और चमकती हुई खाल, बड़े-बड़े पुट्ठे सब लहराते हुए, खिंचे हुए से सरपट निकल गए। आँखों के सामने बिजली सी कौंध गई।

दूसरी बार सूर्योदय के पीछे इससे भी बढ़कर अनुभव मिला। गरमियों के दिन थे। करौंदी के फूल झड़ चुके थे और करधई की पत्तियाँ भी। जंगलवर्ती एक कुएँ के पास वाले लोग दुपहरी में अपने ढोरों को इस कुएँ से खींच-खीचकर पानी पिलाते थे। उस गड्ढे में पहले दिन का बचा-खुचा पानी था। मैं इस पानी के पास एक बहुत साधारण सी झाँक-झँकीली ओट लेकर बैठा था। कल्पना थी कि सुअर आएगा।

पद्रंह मिनट बैठा था कि धूल पर गद्दी के पड़ने का हलका सा 'धम' शब्द हुआ। मैं समझ नहीं पाया। सोचा, धूल पर सुअर का पैर पड़ा होगा।

एक क्षण उपरांत देखा कि एक लंबा-चौड़ा तेंदुआ मजे-मजे पानी के गड्ढे के पास आ रहा है। मैं अनपी ओट में पीछे दुबका; क्योंकि वैसे तेंदुआ दूर से ही मुझको परख लेता। जब वह लगभग बीस-पच्चीस फीट की दूरी पर रह गया, किसी संदेह में तुरंत ठिठक गया। उसने वायु की ओर नथने पसारे। मैं समझ गया कि इसने बाँव ले लिया और अब दो छलाँग मारकर अदृश्य हो जाएगा। मैं तुरंत खड़ा हो गया। तेंदुए ने मुझे अच्छी तरह देख लिया और अब दो छलाँग मारकर अदृश्य हो जाएगा। मैं तुरंत खड़ा हो गया। तेंदुए ने मुझे अच्छी तरह देख लिया। भागने के लिए उसने एकदम उचाट ली। उधर उसने उचाट ली, इधर बंदूक से हिरनमार छर्रा छूटा। परंतु लगा उसको एक भी नहीं। दूसरा छूटा, वह भी बिलकुल खाली गया। तेंदुआ भाग गया।

दूसरे दिन मैं फिर उसी स्थान पर और भी जल्दी जा बैठा। जब काफी दिन चढ़े तक कुछ भी न आया तब मैंने पास की एक झाड़ी की राह पकड़ी। मटरगश्त थी आशा तो कोई थी नहीं।

मैं दबे-दबे जा रहा था। एक मोड़ से पल्लवहीन करधई के एक झकूटे के पीछे बड़ी गठरी-सी दिखलाई पड़ी। सोचा, यदि धीरे-धीरे बढ़ा तो निकट पहुँचने के पहले ही गठरी तिरोहित हो जाएगी मुझको संदेह था कि कोई जानवर सिमटा बैठा है; परंतु निश्चय न था। मैंने डग बढ़ाए।

जल्दी पास पहुँच गया। गठरी भी शीघ्र खुलकर फैली। तेंदुआ सीधा खड़ा हो गया।

यह तेंदुआ कलवाले से भी अधिक दीर्घकाय था। इसके गुल कुछ ढले हुए थे। जब तक मैंने बंदूक चलाई तब तक उसने छलाँग भरी। गोली का कोई भी प्रभाव नहीं हुआ। एक पेड़ की डाल से सटकर बल खाती हुई चली गई। तेंदुए ने और छलाँगें भरी। मैंने दूसरी गोली छोड़ी। वह भी खाली गई। तेंदुआ चला गया। परंतु मन पर गहरी छाप छोड़ गया।

एक मित्र ने इस प्रकार के जानवर के शिकार के संबंध में एक बार लालसा प्रकट की थी, 'जानवर मरे या न मरे, जंगल के सुनसान में एक बार दिखलाई ही पड़ जाय तो उसका स्मरण खोई हुई नींद को बुलवाने का काम किया करेगा।'

परंतु शेर या तेंदुआ जब मरी हुई हालत में शिकारी को कहीं दिखलाई पड़ता है तो शायद मन में कोई स्थायी लीक नहीं बनती।

इन्हीं मित्र ने आजमगढ़ जिले की एक घटना सुनाई थी। जंगल से शेर भटककर किसानों के खेत में आ गया। गाँव भर की लाठियों और कुल्हाड़ियों ने उसको जा घेरा। वह जंगल से दूर भटक आया था, इसलिए एक खड़े खेत से दूसरे खड़े खेत में जा पहुँचता था। थक गया। भूखा-प्यासा रहा ही होगा। गाँववालों ने लाठियों और कुल्हाड़ियों से मार डाला।

उसको देखकर मन में कोई स्थायी कुतूहल न जागा।

झाँसी की कचहरी में पुरस्कार पाने के लिए कुछ गाँववाले एक मरे हुए शेर को गाड़ी पर रखकर लाए थे। उसको देखकर मेरे मन में ग्लानि उत्पन्न हुई थी।

सर्कस के शेर और तेंदुए कुछ कौतुक दे देत हैं, परंतु सुनसान एकांत में चुपचाप आनेवाले जानवर मन को जो कुछ दे जाते हैं, वह टिकाऊ होता है। परंतु उशका चरित्र खटकता है।

तेंदुआ रात को तो चोरी करता है, दिन में भी डाके डालने से नहीं चूकता। बछियों-बच्छों और गायों को तो वह बहुधा दिन में ही मिटाता है।

जब यह मनुष्यभक्षी हो जाता है तब तो मनुष्यभक्षी शेर भी इसके सामने कुछ नहीं है। इतनी हिम्मत, इतनी फुरती, इतनी ढिठाई और चालाकी शेर में नहीं होती।

तेंदुए से कहीं अधिक भयानक मादा तेंदुआ होती है; खासतौर पर उस समय जब उसके बच्चे दूध पीते हों।

जाड़ों की बात है। बेतवा नदी के बीचोबीच एक पथरीले और पेड़वाले टापू में, जिसकी जाड़ों में केवल एक ओर धार रह गई थी, एक मादा तेंदुआ ने अपनी चुल बनाई, दो बच्चे जने और वहीं रहने लगी। शिकार में एक अँगरेज का साथ हो गया। उसको तेंदुए के शिकार का अनुभव न था। वह चुल के ठीक ऊपर जा लेटा। मैंने पानी के पास बैठकर खाने की पोटली खोली। अँगरेज का खाना कई मील दूर पर रह गया था। शीघ्र भोजन प्राप्त करने का उसके पास कोई साधन न था।

मैंने सोचा, बिस्कुट-डबल रोटी खानेवाले से पूड़ी खाने की बात कहूँ ही क्यों! परंतु मनुष्यत्व या हिंदुस्थानियत ने प्रेरणा की।

मैंने पूछा, 'पूड़ी खाओगे?'

उसने चाव के साथ स्वीकार किया। वह चट्टान पर से उतर ही रहा था कि लपककर मादा तेंदुआ आई। वह ऐसी परिस्थिति में था कि बंदूक चला ही नहीं सकता था और मेरे हाथ पूड़ी-साग के हिसाब में उलझे हुए थे। कुशल हुई कि उस मादा तेंदुए ने ज्यादा पीछा नहीं किया।

कुछ समय पीछे हम लोग चुल के पास जा टिके। मादा चुल में नहीं थी जंगल में निकल गई थी। फिर वह चुल में चली गई। खा-पीकर हम लोगों ने चुल का घेरा डाला। चुल में कई छेद थे। एक छेद से वह बाहर निकल गई थी। सावधानी के साथ बच्चों को निकाल लिया। दो थे। अँगरेज ने दोनों बच्चों को ले लेने की इच्छा प्रकट की। मुझको तो एक भी नहीं रखना था। वह दोनों को ले गया। उसकी इच्छा उन बच्चों को किसी सर्कस में दे देने की थी।

मादा तेंदुआ थोड़ी देर खड़ी-खड़ी यह सब देखती रही। परंतु हम लोग दो से कई गुने हो गए थे। बहुत हल्ला-गुल्ला कर रहे थे, और बंदूक तो हाथ में थीं ही। इसलिए उसने आक्रमण नहीं किया। हम लोग यदि बहुसंख्यक न होते तो चुल में से बच्चों निकालने का प्रयास भी न करते।

तेंदुए की दाढ़ का किया हुआ जख्म तो अच्छा भी हो जाता है, परंतु उसके नाखून का किया हुआ जक्म बहुत विषैला होता है। उसके नाखूनों की मोड़ में मारे हुए जानवरों के मांस के परमाणु चिपटे रहते हैं। वे सड़ते हैं और उसकी सड़ाँस में भयंकर विषवाले कृमि की उत्पत्ति हो जाती है। जब इनका प्रवेश मनुष्य के शरीर में हो जाता है तब वे सारे शरीर को विषाक्त कर देते हैं।

नाखूनी जानवरों के किए हुए घावों को तुरंत स्प्रिट से भिगो देना चाहिए। यदि उनको आग से दाग दिया जाए, तो भी अच्छा है।

कुछ लोगों की कल्पना है कि तेंदुए की मूँछ में विष होता है। यदि कोई भोजन में उसको खा जाए तो पेट के अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। मैं समझता हूँ कि यह सही नहीं है। उसकी मूँछ या खाल के बालों में विष होता तो उनको जरूर रोगग्रस्त देखता, जो उसका मांस खा जाने से नहीं हिचकते। मैंने एक जाति विशेष को मांस खाते देखा है। यह भी देखा है कि बरसों तक उसके खानेवालों को कोई विशेष रोग नहीं हुआ। मांस के साथ उन खानेवाले ने बाल-वाल भी नहीं छोड़े थे।

तेंदुए की चरबी का उपयोग जोड़ों के दर्द पर करते देखा है, सुना है; पर मुझको मालूम नहीं कि वह इस प्रकार की पीड़ा के लिए लाभदायक है। उसकी हँसुली की हड्डी तो बहुत से अंधविश्वासों की कहानी है।

चीते और तेंदुए के अंतर पर प्रायः वाद-विवाद चला करता है। मेरी समझ में वाद-विवाद का मूल कारण चीते का तेंदुए से कुछ बातों में सादृश्य है। शरीर के चित्ते, कानों का छोटापन, सिर की बनावट, पूँछ की लंबाई चीते को तेंदुए के वर्ग का कहने के लिए प्रलोभन देती है; परंतु दो बातों में चीता तेंदुए से बिलकुल भिन्न होता है। चीता पालतू किया जा सकता है; परंतु तेंदुआ पालतू करके पिंजड़े में तो रखा जा सकता है, किंतु वह भरोसे के साथ स्वतंत्र कदापि नहीं छोड़ा जा सकता। दूसरे, तेंदुए के नाखून उसेक पंजे की गद्दी में बिलकुल छिपे रहते हैं, परंतु चीते के नाखून पंजे की गद्दी के बाहर ही रहते हैं, ठीक कुत्ते की तरह। चीता तेंदुए से काफी छोटा और कुत्ते से काफी बड़ा होता है। चीता कुत्ते की अपेक्षा अधिक बड़ी छलाँगें लेनेवाला और तेंदुए की अपेक्षा कहीं अधिक तेज दौड़नेवाला होता है। कोई-कोई राजा चीते को हिरन के शिकार के लिए पालते हैं। यह हिरन को पकड़कर अपने मालिक के सुपुर्द कर देता है। परंतु यदि यही क्रिया पालतू तेंदुए से कराई जा सकती होती, तो वह हिरन को खुद ही खाता और यदि मालिक उसके भोजन में कोई बखेड़ा उपस्थित करता तो वह मालिक पर तुरंत चढ़ बैठता।


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रचनाएँ
वृंदावन लाल वर्मा की रोचक कहानियाँ
5.0
इन्हे बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये 19 साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’(1908) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति दल’(1909) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था। ये प्रेम को जीवन का सबसे आवश्यक अंग मानने के साथ जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक भी थे। इन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूंजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी। इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं।
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मेंढकी का ब्याह

16 मई 2022
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उन ज़िलों में त्राहि-त्राहि मच रही थी। आषाढ़ चला गया, सावन निकलने को हुआ, परन्तु पानी की बूँद नहीं। आकाश में बादल कभी-कभी छिटपुट होकर इधर-उधर बह जाते। आशा थी कि पानी बरसेगा, क्योंकि गाँववालों ने कुछ पत

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खजुराहो की दो मूर्तियाँ

16 मई 2022
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चंद्रमा थोड़ा ही चढ़ा था। बरगद की पेड़ की छाया में चाँदनी आँखमिचौली खेल रही थी। किरणें उन श्रमिकों की देहों पर बरगद के पत्तों से उलझती-बिदकती सी पड़ रहीं थीं। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई अधलेटा। खजु

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जहाँगीर की सनक

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'इंशा! इंशा!!' बादशाह जहाँगीर ने इधर-उधर देखकर भरे दरबार में जरा ऊँचे स्वर में अपने भतीजे को पुकारा। अलमबरदार ने बड़े अदब के साथ बतलाया कि शाहजादा शिकार खेलने चले गए हैं। 'शाहजादा - इंशा के लिए! जहाँग

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शरणागत

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रज्जब कसाई अपना रोजगार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रकम। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुर

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थोड़ी दूर और

16 मई 2022
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जब महमूद गजनवी (सन 1025-26 में) सोमनाथ का मंदिर नष्ट-भ्रष्ट करके लौटा तब उसे कच्छ से होकर जाना पड़ा। गुजरात का राजा भीमदेव उसका पीछा किए चल रहा था। ज्यों-ज्यों करके महमूद गजनवी कच्छ के पार हुआ। वह सिं

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रक्षा

16 मई 2022
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मुहम्मदशाह औरंगजेब का परपोता और बहादुरशाह का पोता था। 1719 में सितंबर में गद्दी पर बैठा था। सवाई राजा जयसिंह के प्रयत्न पर मुहम्मदशाह ने गद्दी पर बैठने के छह वर्ष बाद जजिया मनसूख कर दिया। निजाम वजीर ह

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रामशास्त्री की निस्पृहता

16 मई 2022
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दो सौ वर्ष के लगभग हो गए, जब पूना में रामशास्त्री नाम के एक महापुरुष थे। न महल, न नौकर-चाकर, न कोई संपत्ति। फिर भी इस युग के कितने बड़े मानव! भारतीय संस्कृति की परंपरा में जो उत्कृष्ट समझे जाते रहे है

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दबे पाँव (अध्याय 1)

16 मई 2022
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कुछ समय हुआ एक दिन काशी से रायकृष्ण दास और चिरगाँव से मैथिलीशरण गुप्त साथ-साथ झाँसी आए। उनको देवगढ़ की मूर्ति कला देखनी थी - और मुझको दिखलानी थी। देवगढ़ पहुँचने के लिए झाँसी-बंबई लाइन पर जालौन स्टेशन

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दबे पाँव (अध्याय 2 )

16 मई 2022
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हिंदी में कुछ-न-कुछ लिखने की लत पुरानी है। सन् 1909 में छपा हुआ मेरा एक नाटक सरकार को नापसंद आया। जब्त हो गया और मैं पुलिस के रगड़े में आया। परंतु रंगमंच पर अभिनय करने पर अभिनय करने का शौक था और नाटक

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दबे पाँव (अध्याय 3)

16 मई 2022
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चिंकारे का शिकार करछाल के शिकार से भी अधिक कष्टसाध्य है। चिंकारा बहुत ही सावधान जानवर होता है। उसे संकट का संदेह हुआ कि फुसकारी मारी और छलाँग मारकर गया। हिरन संकट से छुटकारा पाने के लिए दूर भागकर दम ल

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दबे पाँव (अध्याय 4)

16 मई 2022
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एक जगह जमकर बैठने का शिकार काफी कष्टदायक होता है। झाँखड़ या पत्थरों के चारों ओर ओट बना लेते हैं और उसके भीतर जानवरों को अगोट पर शिकारी बैठ जाते हैं-ऐसे ठौर पर, जहाँ होकर जानवर प्रायः निकलते हों। उनके

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दबे पाँव (अध्याय 5)

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हिरन वर्ग के जानवरों के लिए ढूका या ढुकाई का शिकार भी अच्छा समझा जाता है। इस शिकार में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पेट के बल रेंगते हुए भी चलना पड़ता है; पहेल ही कहा जा चुका है। कुछ लोग बंदूक के घोड़

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दबे पाँव (अध्याय 6 )

16 मई 2022
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चीतल (स्वर्णमृग) हिरन वर्ग का पशु समझा जाता है। परंतु इसके सींग फंसेदार होते हैं। यह बहुत ही सुंदर होता है। इतना सुंदर कि कभी-कभी शिकारी इसके भयानक हानि पहुँचानेवाले कृत्यों को भूल जाता है। इसकी खाल प

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दबे पाँव (अध्याय 7)

16 मई 2022
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चीतलों के बाद मुझको पहला तेंदुआ सहज ही मिल गया। विंध्यखंड में जिसको 'तेंदुआ' कहते थे, उसकी छोटी छरेरी जाति को कहीं-कहीं 'चीता' का नाम दिया गया है। हिमाचल में शायद इसी को 'बाघ' कहते हैं। तेंदुए की खबर

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दबे पाँव (अध्याय 8)

16 मई 2022
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खेती को नुकसान पहुँचानेवाले जानवरों से सुअर चीतल और हिरन से कहीं आगे है। मनुष्यों के शरीर को चीरने-फाड़ने में वह तेंदुए से कम नहीं है। सुअर की खीसों से मारे जानेवालों की संख्या तेंदुए की दाढ़ों और नाख

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दबे पाँव (अध्याय 9)

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मैं संध्या के पहले ही बेतवा किनारे ढीवाले गड्ढे में जा बैठा। राइफल में पाँच कारतूस डाल लिए। कुछ नीचे रख लिए। रातभर बैठने के लिए आया था, इसलिए ओढ़ना-बिछौना गड्ढे में था। अँधेरा हुआ ही था कि एक छोटी सी

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दबे पाँव (अध्याय 10)

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एक बार जाड़ों में पहाड़ की हँकाई की ठहरी। लगान लग गए। मैं पहाड़ की तली में बैठ गया और शर्मा जी चोटी पर। बीच में अन्य मित्र लगान पर लग गए। हँकाई होते ही पहले साँभर हड़बड़ाकर निकल भागे। हँकाई में पहले

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दबे पाँव (अध्याय 11)

16 मई 2022
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साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं। जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग मे

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दबे पाँव (अध्याय 12)

16 मई 2022
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एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर

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दबे पाँव (अध्याय 13)

16 मई 2022
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अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी। जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थ

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दबे पाँव (अध्याय 14)

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मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर

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दबे पाँव (अध्याय 15 )

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मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भ

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दबे पाँव (अध्याय 16)

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एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया। मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होक

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दबे पाँव (अध्याय 17)

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जंगली कुत्ते का मैंने शिकार तो नहीं किया है, परंतु उसको देखा है। जिन्होंने इसके कृत्यों को देखा है वे इस छोटे से जानवर के नाम पर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। रंग इसका गहरा बादामी होता है, इसलिए शायद इस

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दबे पाँव (अध्याय 18)

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भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है। भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-

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दबे पाँव (अध्याय 19)

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भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव क

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दबे पाँव (अध्याय 20)

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जंगल में शेर और तेंदुए से भी अधिक डरावने कुछ जंतु हैं - साँप, बिच्छू और पागल सियार। अजगर का तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि वह काटने के लिए आक्रमण नहीं करता है, भक्षण के लिए पास आता है; और जहाँ तक मैंने द

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दबे पाँव (अध्याय 21)

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जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं। अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का क

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दबे पाँव (अध्याय 22)

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शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले। संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं

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दबे पाँव (अध्याय 23)

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शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती

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दबे पाँव (अध्याय 24)

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लौटने पर किसी ने कहा तलवार पास रखनी चाहिए, किसी ने कहा छुरी। तलवार और छुरी का उपयोग शिकार में हो सकता है; परंतु मैं तलवार से छुरी को ज्यादा पसंद करूँगा और छुरी से भी बढ़कर लाठी को, और लाठी से बढ़कर क

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दबे पाँव (अध्याय 25)

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यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती ह

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रिहाई तलवार की धार पर

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बंदा बैरागी और उसके सात सौ सिख साथियों के कत्ल का दिन आ गया। ये सब बंदा के साथ गुरदासपुर से कैद होकर आए थे। बंदा ने स्वयं खून की होली खेली थी, इसलिए उसके मन में किसी भी प्रकार की दया की आशा या प्रार्थ

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सच्चा धर्म

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हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफी संख्या में आ बसे थे; कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम-जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इनमें भी उन्नाव दरवाजे की तरफ मेवाती और बड

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शाहजादे की अग्निपरीक्षा

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दिल्ली का बादशाह जहाँगीर सन 1605 में राजसिंहासन पर बैठा था। उसे दस-बारह साल राज करते-करते हो गए थे। जहाँगीर सूझ-बूझवाला व्यक्ति था; परंतु कभी-कभी दुष्टता का भी बरताव कर डालता था। उसमें सनक भी थी। जहा

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शेरशाह का न्याय

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वह नहा रही थी। ऋतु न गरमी की, न सर्दी की। इसलिए अपने आँगन में निश्चिंतता के साथ नहा रही थी। छोटे से घर की छोटी सी पौर के किवाड़ भीतर से बंद कर लिए थे। घर की दीवारें ऊँची नहीं थीं। घर में कोई था नहीं,

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शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी

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'इस क़ैदी को शाह के सिपुर्द कीजिये ।' अहमदशाह अब्दाली के दूत ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से युद्ध की समाप्ति पर कहा । सन् १७६१ में पानीपत के युद्ध में मराठे हार गये थे। कई सरदारों के साथ मराठों का सरद

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पहले कौन?

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मेवाड़ और मारवाड़ (जोधपुर) में परस्पर बहुत वैर बढ़ गया था। बात लगभग तीन सौ वर्ष पुरानी है। मेवाड़ की सीमा पर जोधपुर राज्य का एक गढ़ था। गढ़ खँडहर हो गया है और खँडहरों का नाम क्या! जोधपुर अपनी आन पर थ

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लुटेरे का विवेक

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बात बारहवीं शताब्दी के अंत की है। मुहम्मद साम दिल्ली का सुल्तान था और भीम द्वितीय गुजरात का राजा। भीम ने लगभग इकसठ वर्ष राज किया। वह सिद्धांत पर चलता था, जिसे सत्रहवीं शताब्दी में छत्रसाल ने यों व्यवह

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इंद्र का अचूक हथियार

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तपस्वी की साधना की जो प्रतिक्रिया हुई, उससे इंद्र का इंद्रासन डगमगाने लगा। तपस्या भंग करने के उपकरण इंद्र के हाथ में थे ही। उसने प्रयुक्त किए। तपस्वी के पास मेनका अप्सरा अपने साज-बाज के साथ जा पहुँची।

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वृंदावनलाल के जीवन के प्रेरक प्रसंग

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सच्चा इतिहास मैं लिखूँगा मनुष्य के जीवन में एकाध घटना ऐसी गुजरती है, जो संवेदनशील मन को झनझना देती है। जिस घटना ने वृंदावनलाल वर्मा के मन को झकझोरकर उन्हें इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया, वह घटना उ

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