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सच्चा धर्म

16 मई 2022

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हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफी संख्या में आ बसे थे; कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम-जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इनमें भी उन्नाव दरवाजे की तरफ मेवाती और बड़ागाँव दरवाजे के निकट पठान। इन मुहल्लों में केवल मुसलमान ही न बसते थे - मराठे, ठाकुर, तेली, काछी इत्यादि हिंदू बीच-बीच में। बड़ेगाँव दरवाजे मसजिद थी और थोड़ी दूर पर बिहारीजी का मंदिर। हिंदू मुसलमान, सब अपने-अपने विश्वास के अनुसार परंपरा क्रमागत त्योहारों को मनाते आए थे, कभी कोई झंझट पैदा नहीं हुआ।

उस साल डोल एकादशी और मुहर्रम एक ही दिन-सोमवार को पड़े। सुन्नी मुसलमान नौ-दस दिन पहले से ताजियों की तैयारी में लगे - अब की साल उनको ताजिए और भी अधिक धूमधाम के साथ निकालने थे; क्योंकि उनकी झाँसी स्वतंत्र हो गई थी, उनकी रानी राज कर रही थी। मंदिरों में भी खूब नाच और गाने के साथ मन का ओज प्रस्फुटित हो रहा था। इन दिनों भी झाँसी के मंदिरों में जो नित्य नई सजावट की जाती है उनको 'घटा' कहते हैं। किसी दिन नीली घटा, किसी दिन पीली घटा, किसी दिन कोई और। सारे मंदिर में एक ही प्रकार के रंग के वस्त्र और फूल। यह सब कई दिन एकादशी तक चलता रहा। सोमवार के रोज शाम के समय ताजिए दफनाए जाने को थे और उसी समय विमानों का जल-विहार होना था। यदि दोनों धर्मवालों में मेल-जोल हो तो मजे में सब रस्में निकाली जाएँ और यदि एक-दूसरे से अनमने हों तो एक डग भी रखने को जगह नहीं।

मोतीबाई और जूही जैसे दीवाली मनाती थीं वैसे ही ताजियादारी भी करती थीं। और उसी उत्साह के साथ वे 'मुरली मनोहर' के मंदिर में, जिस समय रानी दर्शन के लिए जाती थीं, नृत्य और गान भी करती थीं - उन्हीं दिनों मुहर्रम के जमाने में। परंतु उनके इस कार्य पर मुसलमान किसी प्रकार का आक्षेप नहीं कर रहे थे; क्योंकि वे प्रायः रानी के साथ रहा करती थीं।

दुर्गाबाई सुन्नी मुसलमान थी। वह भी ताजियादारी करती थी और नाचना उसका पेशा था। मंदिरों में उसके नृत्य की माँग थी। वह मंदिरों में नृत्य के लिए जाने लगी।।

कुछ मुसलमानों को असंगत लगा। चर्चा शुरू हो गई। इस चर्चा में पीरअली ने प्रधान भाग लिया।

सवेरे का समय था। ठंडी हवा चल रही थी। हलवाइयों की दुकानों पर ताजा मिठाइयाँ थालों में सजती और बिकती चली जा रही थीं। दूसरी ओर मालिनों की फूलों से भरी हुई डलियाँ थोड़ी ही देर में खाली होने को थीं।

दुर्गा नर्तकी ने हलवाई के यहाँ से मिठाई ली और मालिन के यहाँ से फूल। मार्ग में एक जगह ठेवा लगा। पैर में जरा सी चोट आई। साथ ही मिठाई के दोने से कुछ सामान नीचे जा गिरा। उसका मुँह बिदरा। पास से जानेवाला एक आदमी हँस पड़ा। दूसरे का कष्ट उसका विनोद बना। और भी कुछ लोग हँसे। एक ने कहा, 'उठा लो दुर्गा, नीचे पड़ा हुआ सामान। वह भी एक अदा होगी।'

'अरे रे, मुझको तो लग गई। तुम हँसते हो।' दुर्गा हँसती हुई बोली।

वहीं पीरअली भी था। वह भी हँसा था।

'अभी क्या हुआ, दुर्गाबाईजी!' पीरअली ने कहा, 'जैसा करोगी वैसा पाओगी।'

बात कुछ नहीं थी, परंतु दुर्गा को आग-सी लग गई। पीरअली शिया था। उसकी व्यर्थ बात में कोई गूढ़ प्रच्छन्न व्यंग्य अवगत करके बोली, 'तुम कहाँ के दूध के धुले हो, मियाँ! किसी दिन तुमको भी खुदा ऐसा समझेगा कि याद करोगे।'

पीरअली - 'मैं तुम सरीखी औरतों को मुँह नहीं लगाना चाहता, अपनी राह देखो।'

दुर्गा - 'तुम्हीं मुँह लगने को फिरते हो। मैं तो ऐसों पर लानत भेजती हूँ।'

पीरअली - 'खबरदार, जो बद्जबानी की, जीभ काटकर फेंक दूँगा।'

दुर्गा - 'हाँ, बल-पौरुष औरतों पर ही चलाने आए हो; पर मेरी जबान काटने आओगे तो मैं कौन तुम्हारी जीभ की पूजा करने बैठ जाऊँगी! जानते हो किसका राज है?'

पीरअली दाँत पीसकर रह गया।

कई लोगों ने 'जाओ, रहने दो' कहा।

ऊपर से झगड़ा रफा-दफा हो गया, लेकिन भीतर-भीतर आग सुलग उठी। 'एक सुन्नी औरत ने, सो भी नर्तकी वेश्या ने, एक शिया मर्द पर मुहर्रम के दिनों में लानत भेजी!'

शिया-सुन्नियों के झगड़े का इस अत्यंत क्षुद्र घटना के कारण सूत्रपात हुआ।

शिया लोग घरों में चुपचाप मातम मनाते हैं। सुन्नियों में भी मातम मनाया जाता है; परंतु ताजिया इत्यादि बनाने की कोई पाबंदी नहीं। तो भी बनाए जाते थे और धूमधाम के साथ निकाले जाते थे।

रघुनाथराव के समय में अलीबहादुर का बहुत प्रभाव था। शिया थे। कदाचित इसलिए भी राज्य की ओर से ताजियों की कोई धूमधाम नहीं की जाती थी। अलीबहादुर का प्रभाव उठ गया था, परंतु ताजिया संबंधी परंपरा अवशिष्ट थी। शिया अपने ताजिए चुपचाप निकाल ले जाते थे और उनका समय भी सुन्नियों के ताजियों के निकालने के समय से टक्कर न खाता था। परंतु एकादशी के दिन डोल भी निकलने थे - दिन में। दिन में शिया-सुन्नियों के ताजिए भी निकलने थे। दोपहर-दोपहर तक दोनों फिरकों के ताजिए निकल जाएँ और दो बजे से विमान निकलें, यही रोजाना संभव जान पड़ती थी। पर शिया-सुन्नी इस पर राजी नहीं दिखलाई पड़ते थे। दीवान ने समझाने बुझाने और मनाने की कोशिश की। विफल हुआ।

ताजियादार कहते थे -

'हमारा ताजिया तीसरे नंबर पर उठा करता है। पहले नंबरवाला पहले उठे और चल पड़े और उसके पीछे दूसरावाला, हम तुरंत उसके पीछे हो जाएँगे।'

'हमारा पहला नंबर जरूर है, परंतु ताजिया हमारा हमेशा तब उठा है जब शियों के ताजिए निकल गए। आप कहते हैं कि नौ बजे से ताजिए निकालना शुरू कर दो। हम तैयार हैं, परंतु शियों के ताजिए पहले निकलवा दीजिए।'

और शियों के ताजिए उतने सवेरे निकल नहीं सकते थे। विवश कोई किसी को कर नहीं सकता। धर्म का मामला ठहरा।

अच्छा यही था कि झंझट दो दिन पहले खड़ा हो गया था।

शिया लोग अपने ताजिए यदि आतुरता के साथ बड़े भोर निकाल भी ले जाएँ तो इसमें संदेह था कि सुन्नी अपने ताजिए हर साल के समय के प्रतिकूल दफना देते या नहीं।

पीरअली इस झंझट में कहीं भी ऊपर नहीं दिखलाई पड़ता था; परंतु भीतर-भीतर उसकी उत्प्रेरणा मौजूद थी।

जब दीवान समस्या को हल न कर सका तब उसने कोतवाली से पुराने कागज मँगवाए। परंतु पुराने कागज विप्लव के आरंभ में ही भस्मीभूत हो चुके थे - और उनसे कुछ सहायता मिल नहीं सकती थी। दीवान हैरान था।

निदान, मामला रानी के पास पहुँचा।

हिंदू-मुसलमानों की भीड़ इक्ट्ठी हो गई।

रानी ने समझाने का यत्न किया। लड़ाना-भिड़ाना चाहतीं तो सहज ही ऐसा कर सकती थीं; परंतु वे तो मेल कराने पर तुली हुईं थीं।

जब वे कोई सुझाव देतीं तो सब 'बहुत ठीक, सरकार' 'बहुत ठीक, सरकार' कह देते और थोड़ी देर चुप रहने के के बाद 'किंतु' 'परंतु' करने लगते।

रानी ने यकायक कहा, 'क्या इतने हिंदू-मुसलमानों में कोई ऐसा नहीं, जो इस कठिनाई को हल कर दे?'

महल के पड़ोस में एक बढ़ई रहता था। वह आगे आया। उसने विनय की, 'सरकार, मैं कुछ विनय करना चाहता हूँ।'

रानी - 'कहो।'

बढ़ई - 'सरकार, राम और रहीम सबसे बड़े हैं। उसी तरह उनका मंदिर विमान से बड़ा और इनकी मस्जिद ताजिया से बड़ी। मस्जिद में रहीम की पूजा की जाती है। मैं मस्जिद बनाकर ठीक समय पर निकाल दूँगा। सब ताजिए उनके साथ निकल जाने चाहिए। आगे-पीछे का कोई सवाल नहीं खड़ा होता।'

सुन्नी ताजिएदार सहमत हो गए।

'मस्जिद बेशक सबसे बड़ी।'

'मस्जिद जरूर सबसे आगे रहेगी।'

'मस्जिद के पीछे-पीछे हम सबके ताजिए चलेंगे।'

उस बढ़ई ने दो दिन के भीतर कागज और भोडर की एक सुंदर मस्जिद बनाई। एकादशी के दिन ठीक समय पर सब ताजिए निकल गए। सबसे आगे बढ़ई की मस्जिद थी। हिंदुओं के विमानों को निकलने में विलंब हो गया; परंतु इसका किसी ने बुरा नहीं माना।

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रचनाएँ
वृंदावन लाल वर्मा की रोचक कहानियाँ
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इन्हे बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये 19 साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’(1908) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति दल’(1909) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था। ये प्रेम को जीवन का सबसे आवश्यक अंग मानने के साथ जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक भी थे। इन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूंजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी। इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं।
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मेंढकी का ब्याह

16 मई 2022
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उन ज़िलों में त्राहि-त्राहि मच रही थी। आषाढ़ चला गया, सावन निकलने को हुआ, परन्तु पानी की बूँद नहीं। आकाश में बादल कभी-कभी छिटपुट होकर इधर-उधर बह जाते। आशा थी कि पानी बरसेगा, क्योंकि गाँववालों ने कुछ पत

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खजुराहो की दो मूर्तियाँ

16 मई 2022
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चंद्रमा थोड़ा ही चढ़ा था। बरगद की पेड़ की छाया में चाँदनी आँखमिचौली खेल रही थी। किरणें उन श्रमिकों की देहों पर बरगद के पत्तों से उलझती-बिदकती सी पड़ रहीं थीं। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई अधलेटा। खजु

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जहाँगीर की सनक

16 मई 2022
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'इंशा! इंशा!!' बादशाह जहाँगीर ने इधर-उधर देखकर भरे दरबार में जरा ऊँचे स्वर में अपने भतीजे को पुकारा। अलमबरदार ने बड़े अदब के साथ बतलाया कि शाहजादा शिकार खेलने चले गए हैं। 'शाहजादा - इंशा के लिए! जहाँग

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शरणागत

16 मई 2022
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रज्जब कसाई अपना रोजगार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रकम। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुर

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थोड़ी दूर और

16 मई 2022
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जब महमूद गजनवी (सन 1025-26 में) सोमनाथ का मंदिर नष्ट-भ्रष्ट करके लौटा तब उसे कच्छ से होकर जाना पड़ा। गुजरात का राजा भीमदेव उसका पीछा किए चल रहा था। ज्यों-ज्यों करके महमूद गजनवी कच्छ के पार हुआ। वह सिं

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रक्षा

16 मई 2022
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मुहम्मदशाह औरंगजेब का परपोता और बहादुरशाह का पोता था। 1719 में सितंबर में गद्दी पर बैठा था। सवाई राजा जयसिंह के प्रयत्न पर मुहम्मदशाह ने गद्दी पर बैठने के छह वर्ष बाद जजिया मनसूख कर दिया। निजाम वजीर ह

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रामशास्त्री की निस्पृहता

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दो सौ वर्ष के लगभग हो गए, जब पूना में रामशास्त्री नाम के एक महापुरुष थे। न महल, न नौकर-चाकर, न कोई संपत्ति। फिर भी इस युग के कितने बड़े मानव! भारतीय संस्कृति की परंपरा में जो उत्कृष्ट समझे जाते रहे है

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दबे पाँव (अध्याय 1)

16 मई 2022
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कुछ समय हुआ एक दिन काशी से रायकृष्ण दास और चिरगाँव से मैथिलीशरण गुप्त साथ-साथ झाँसी आए। उनको देवगढ़ की मूर्ति कला देखनी थी - और मुझको दिखलानी थी। देवगढ़ पहुँचने के लिए झाँसी-बंबई लाइन पर जालौन स्टेशन

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दबे पाँव (अध्याय 2 )

16 मई 2022
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हिंदी में कुछ-न-कुछ लिखने की लत पुरानी है। सन् 1909 में छपा हुआ मेरा एक नाटक सरकार को नापसंद आया। जब्त हो गया और मैं पुलिस के रगड़े में आया। परंतु रंगमंच पर अभिनय करने पर अभिनय करने का शौक था और नाटक

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दबे पाँव (अध्याय 3)

16 मई 2022
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चिंकारे का शिकार करछाल के शिकार से भी अधिक कष्टसाध्य है। चिंकारा बहुत ही सावधान जानवर होता है। उसे संकट का संदेह हुआ कि फुसकारी मारी और छलाँग मारकर गया। हिरन संकट से छुटकारा पाने के लिए दूर भागकर दम ल

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दबे पाँव (अध्याय 4)

16 मई 2022
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एक जगह जमकर बैठने का शिकार काफी कष्टदायक होता है। झाँखड़ या पत्थरों के चारों ओर ओट बना लेते हैं और उसके भीतर जानवरों को अगोट पर शिकारी बैठ जाते हैं-ऐसे ठौर पर, जहाँ होकर जानवर प्रायः निकलते हों। उनके

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दबे पाँव (अध्याय 5)

16 मई 2022
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हिरन वर्ग के जानवरों के लिए ढूका या ढुकाई का शिकार भी अच्छा समझा जाता है। इस शिकार में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पेट के बल रेंगते हुए भी चलना पड़ता है; पहेल ही कहा जा चुका है। कुछ लोग बंदूक के घोड़

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दबे पाँव (अध्याय 6 )

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चीतल (स्वर्णमृग) हिरन वर्ग का पशु समझा जाता है। परंतु इसके सींग फंसेदार होते हैं। यह बहुत ही सुंदर होता है। इतना सुंदर कि कभी-कभी शिकारी इसके भयानक हानि पहुँचानेवाले कृत्यों को भूल जाता है। इसकी खाल प

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दबे पाँव (अध्याय 7)

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चीतलों के बाद मुझको पहला तेंदुआ सहज ही मिल गया। विंध्यखंड में जिसको 'तेंदुआ' कहते थे, उसकी छोटी छरेरी जाति को कहीं-कहीं 'चीता' का नाम दिया गया है। हिमाचल में शायद इसी को 'बाघ' कहते हैं। तेंदुए की खबर

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दबे पाँव (अध्याय 8)

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खेती को नुकसान पहुँचानेवाले जानवरों से सुअर चीतल और हिरन से कहीं आगे है। मनुष्यों के शरीर को चीरने-फाड़ने में वह तेंदुए से कम नहीं है। सुअर की खीसों से मारे जानेवालों की संख्या तेंदुए की दाढ़ों और नाख

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दबे पाँव (अध्याय 9)

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मैं संध्या के पहले ही बेतवा किनारे ढीवाले गड्ढे में जा बैठा। राइफल में पाँच कारतूस डाल लिए। कुछ नीचे रख लिए। रातभर बैठने के लिए आया था, इसलिए ओढ़ना-बिछौना गड्ढे में था। अँधेरा हुआ ही था कि एक छोटी सी

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दबे पाँव (अध्याय 10)

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एक बार जाड़ों में पहाड़ की हँकाई की ठहरी। लगान लग गए। मैं पहाड़ की तली में बैठ गया और शर्मा जी चोटी पर। बीच में अन्य मित्र लगान पर लग गए। हँकाई होते ही पहले साँभर हड़बड़ाकर निकल भागे। हँकाई में पहले

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दबे पाँव (अध्याय 11)

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साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं। जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग मे

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दबे पाँव (अध्याय 12)

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एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर

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दबे पाँव (अध्याय 13)

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अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी। जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थ

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दबे पाँव (अध्याय 14)

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मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर

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दबे पाँव (अध्याय 15 )

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मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भ

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दबे पाँव (अध्याय 16)

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एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया। मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होक

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दबे पाँव (अध्याय 17)

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जंगली कुत्ते का मैंने शिकार तो नहीं किया है, परंतु उसको देखा है। जिन्होंने इसके कृत्यों को देखा है वे इस छोटे से जानवर के नाम पर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। रंग इसका गहरा बादामी होता है, इसलिए शायद इस

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भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है। भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-

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दबे पाँव (अध्याय 19)

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भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव क

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दबे पाँव (अध्याय 20)

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जंगल में शेर और तेंदुए से भी अधिक डरावने कुछ जंतु हैं - साँप, बिच्छू और पागल सियार। अजगर का तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि वह काटने के लिए आक्रमण नहीं करता है, भक्षण के लिए पास आता है; और जहाँ तक मैंने द

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दबे पाँव (अध्याय 21)

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जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं। अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का क

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दबे पाँव (अध्याय 22)

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शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले। संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं

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दबे पाँव (अध्याय 23)

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शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती

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दबे पाँव (अध्याय 24)

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लौटने पर किसी ने कहा तलवार पास रखनी चाहिए, किसी ने कहा छुरी। तलवार और छुरी का उपयोग शिकार में हो सकता है; परंतु मैं तलवार से छुरी को ज्यादा पसंद करूँगा और छुरी से भी बढ़कर लाठी को, और लाठी से बढ़कर क

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यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती ह

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रिहाई तलवार की धार पर

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बंदा बैरागी और उसके सात सौ सिख साथियों के कत्ल का दिन आ गया। ये सब बंदा के साथ गुरदासपुर से कैद होकर आए थे। बंदा ने स्वयं खून की होली खेली थी, इसलिए उसके मन में किसी भी प्रकार की दया की आशा या प्रार्थ

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सच्चा धर्म

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हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफी संख्या में आ बसे थे; कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम-जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इनमें भी उन्नाव दरवाजे की तरफ मेवाती और बड

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शाहजादे की अग्निपरीक्षा

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दिल्ली का बादशाह जहाँगीर सन 1605 में राजसिंहासन पर बैठा था। उसे दस-बारह साल राज करते-करते हो गए थे। जहाँगीर सूझ-बूझवाला व्यक्ति था; परंतु कभी-कभी दुष्टता का भी बरताव कर डालता था। उसमें सनक भी थी। जहा

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शेरशाह का न्याय

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वह नहा रही थी। ऋतु न गरमी की, न सर्दी की। इसलिए अपने आँगन में निश्चिंतता के साथ नहा रही थी। छोटे से घर की छोटी सी पौर के किवाड़ भीतर से बंद कर लिए थे। घर की दीवारें ऊँची नहीं थीं। घर में कोई था नहीं,

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शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी

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'इस क़ैदी को शाह के सिपुर्द कीजिये ।' अहमदशाह अब्दाली के दूत ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से युद्ध की समाप्ति पर कहा । सन् १७६१ में पानीपत के युद्ध में मराठे हार गये थे। कई सरदारों के साथ मराठों का सरद

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पहले कौन?

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मेवाड़ और मारवाड़ (जोधपुर) में परस्पर बहुत वैर बढ़ गया था। बात लगभग तीन सौ वर्ष पुरानी है। मेवाड़ की सीमा पर जोधपुर राज्य का एक गढ़ था। गढ़ खँडहर हो गया है और खँडहरों का नाम क्या! जोधपुर अपनी आन पर थ

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लुटेरे का विवेक

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बात बारहवीं शताब्दी के अंत की है। मुहम्मद साम दिल्ली का सुल्तान था और भीम द्वितीय गुजरात का राजा। भीम ने लगभग इकसठ वर्ष राज किया। वह सिद्धांत पर चलता था, जिसे सत्रहवीं शताब्दी में छत्रसाल ने यों व्यवह

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इंद्र का अचूक हथियार

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तपस्वी की साधना की जो प्रतिक्रिया हुई, उससे इंद्र का इंद्रासन डगमगाने लगा। तपस्या भंग करने के उपकरण इंद्र के हाथ में थे ही। उसने प्रयुक्त किए। तपस्वी के पास मेनका अप्सरा अपने साज-बाज के साथ जा पहुँची।

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वृंदावनलाल के जीवन के प्रेरक प्रसंग

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सच्चा इतिहास मैं लिखूँगा मनुष्य के जीवन में एकाध घटना ऐसी गुजरती है, जो संवेदनशील मन को झनझना देती है। जिस घटना ने वृंदावनलाल वर्मा के मन को झकझोरकर उन्हें इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया, वह घटना उ

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